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    एक ख़त कमाल के नाम

    कमाल साहब, हम दोनों को जो चीज़ जोड़ती थी, वह भाषा भी थी- लफ़्ज़ों के मानी में हमारा भरोसा, शब्दों की नई-नई रंगत खोजने की हमारी कोशिश और अदब की दरबानी का हमारा जज़्बा. पत्रकारिता के सतहीपन ने आपको भी दुखी किया और मुझे भी.

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    सूर्य कुमार यादव की जाति के बहाने

    बेशक, यह स्थिति भी स्थायी नहीं रहेगी. सूर्य कुमार यादव या ऐसे दूसरे खिलाड़ियों का उदय बता रहा है कि पुरानी शक्ति-संरचनाएं टूट रही हैं और नई सामाजिक शक्तियां अपनी आर्थिक हैसियत के साथ अपना हिस्सा मांग और वसूल रही हैं. यह स्थिति सिर्फ किसी खेल में नहीं, हर क्षेत्र में देखी जा सकती है.

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    अब एक और हिंदी दिवस आ गया! 

    दिलचस्प यह है कि एक तरफ़ हिंदी के मसाले में रेत की यह मिलावट जारी है और दूसरी ओर शुद्धतावाद और पवित्रतावाद का प्रपंच भी चल रहा है.

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    अब विदेशी विश्वविद्यालयों से भी लीजिए ज्ञान!

    उच्च शिक्षा के निजीकरण के बाद उसके भूमंडलीकरण की इस कोशिश के कुछ निहितार्थ तो स्पष्ट हैं. उच्च शिक्षा अब ग़रीबों की हैसियत से बाहर होने जा रही है. क्योंकि वे जिन सरकारी स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई करते हैं, वे धीरे-धीरे आर्थिक और बौद्धिक रूप से विपन्न बनाए जा रहे हैं. यह सच है कि भारत के विश्वविद्यालय कभी भी बहुत साधन-संपन्न नहीं रहे.

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    नया साल और हिंदी-उर्दू का सवाल

    यह सच है कि हिंदी और उर्दू को सांप्रदायिक पहचान के आधार पर बांटने वाली दृष्टि बिल्कुल आज की नहीं है. उसका एक अतीत है और किसी न किसी तरह यह बात समाज के अवचेतन में अपनी जगह बनाती रही है कि हिंदी हिंदुओं की भाषा है और उर्दू मुसलमानों की.

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    अभद्र भाषा से लेकर गंभीर बीमारी तक बस नक़ली चिंता 

    भारतीय राजनीति ने इस कुत्ता शब्द के और भी बुरे इस्तेमाल देखे हैं. 2014 से पहले प्रधानमंत्री पद की दौड़ में लगे तब के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से पूछा गया कि 2002 के गुजरात दंगों का दर्द उन्हें नहीं है? 

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    बदरंग आस्था बनाम बेशरम रंग 

    एक दौर में राज कपूर, देवानंद और दिलीप कुमार की फिल्में भी ‘लड़कों को बिगाड़ने वाली’ मानी जाती थीं. बड़े-बूढ़े तो पूरी फिल्म संस्कृति को संदेह से और नाक-भौं सिकोड़ कर देखते थे.

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    ये अर्थव्यवस्था है नादान! 

    जिस डिजिटल लेनदेन का नगाड़ा अगले कई दिनों तक ज़ोर-शोर से बजाया जाता रहा और जिस तरह राष्ट्रीय मुद्रा में लेनदेन का लगभग अवमूल्यन करते हुए डिजिटल भुगतान को बढ़ावा दिया गया, उसका उस पहले भाषण में लेश मात्र भी ज़िक्र नहीं था.  

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    प्रियदर्शन का ब्लॉग: मुलायम सिंह यादव की विदाई और समाजवाद की विरासत

    मुलायम योद्धा थे. सारी मुश्किलों को पार करते हुए, सारी आलोचनाओं से आगे निकल कर 2012 में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की जीत की बुनियाद उन्होंने ही रखी थी. इसमें शक नहीं कि उन्होंने अपने बेटे को बेहद मज़बूत विरासत सौंपी.

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    एनी एरनॉ को नोबेल सम्मान के साथ एक लेखिका से परिचय

    तो यह ऐनी ऐरनॉ है- अपनी भूमिका में ही एक सिहरा देने वाला अनुभव देने वाली. जिस समय सबकुछ प्रकाश की रफ़्तार से गुज़रा जा रहा है, उस समय अतीत के कुएं और भविष्य के आसमान में झांकने वाली, काल की आंख में आंख डाल कर देखने वाली इस लेखिका से परिचय कराने के लिए नोबेल पुरस्कार समिति का शुक्रिया. वैसे इस समिति ने पहले भी कई महत्वपूर्ण लेखकों से परिचित कराया है. बड़े पुरस्कार यह काम करते हैं. वे लेखकों को बड़ा नहीं बनाते, मगर बड़े लेखकों को हमारे सामने ले आते हैं.

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    हिन्दुओं को कौन बदनाम कर रहा है...?

    यह वाकई एक वैध प्रश्न है कि अमेरिका में भारत का 76वां स्वाधीनता दिवस मनाने वाली जमात को योगी और उनका बुलडोज़र क्यों याद आया?

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    स्मृति शेष: शेखर जोशी- शेष हुआ अब शंखनाद वह

    शेखर जोशी आधुनिक हिंदी कथा के प्रथम पांक्तेय लेखकों में रहे. 'कोशी का घटवार', 'दाज्यू' या 'नौरंगी बीमार है' जैसी उनकी कई कहानियां पाठकों की स्मृति में बिल्कुल गड़ी हुई हैं. वे पहाड़ में पैदा हुए थे, पहाड़ को ताउम्र अपनी पीठ पर ढोते रहे, अपनी रचनाओं में लिखते रहे, लेकिन इसके समानांतर वे इलाहाबाद के भी लेखक थे.

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    गांधी को मारना कितना मुश्किल है! 

    गांधी को महिषासुर बनाकर एक नई मिथक कथा तैयार करने की कोशिश इन्हीं मायावी तरीक़ों का हिस्सा है. इसका करुण पक्ष यह है कि जाने-अनजाने हिंदूवादी संगठन महिषासुर को भी एक मानवीय चेहरा प्रदान कर दे रहे हैं

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    संस्कृति के इस रेगिस्तान में राजू की हंसी 

    राजू श्रीवास्तव की कला क्या थी? वे लोगों को हंसाते थे। हंसाना कलाओं में शायद सबसे उपेक्षित काम माना जाता है। चुटकुले साहित्य की सबसे तिरस्कृत विधा है- इतने तिरस्कृत कि चुटकुले कहने वाले उनमें अपना नाम तक जोड़ना पसंद नहीं करते। 

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    गोर्बाचेव के साथ जो कुछ चला गया

    गोर्बाचेव ने लिखा था कि दुनिया की कोई भी क्रांति एक दौर में सफल नहीं हुई है। उन्होंने अमेरिकी क्रांति, ब्रिटिश संसदीय सुधार और फ्रांसीसी क्रांति के उदाहरण दिए।

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    अब महात्मा गांधी से प्रधानमंत्री मोदी की तुलना!

    लेकिन सवाल तो फिर भी बचा हुआ है. जनता का मन समझने का क्या मतलब होता है? निश्चय ही प्रधानमंत्री मोदी लोकप्रिय नेता हैं. लेकिन लोकप्रियता एक अलग चीज़ है और जनता का मन समझना एक दूसरी चीज़. बहुत सारे खिलाड़ी लोकप्रिय होते हैं, बहुत सारे फिल्मी सितारे लोकप्रिय होते हैं. वे जनता में उम्मीद जगाते हैं, गर्व जगाते हैं, सपना जगाते हैं. नेता भी यही काम करते हैं. उनकी लोकप्रियता का आधार वह उम्मीद होती है जो वे पैदा करते हैं, वे सपने होते हैं जो वे दिखाते हैं.

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    नय्यरा नूर की याद और नूर की तलाश 

    ये वे दिन थे जब यूट्यूब जैसी शै ने संगीत को बिल्कुल हमारे मोबाइल का खेल नहीं बना डाला था और एक-एक रिकॉर्ड खोजना और पाना फ़ख्र की बात माना जाता था।

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    हम तो आपको बस मनुष्य समझते थे, मनीष!

    यह सच है कि भारतीय समाज पूरी तरह जातिवादी है, भारतीय राजनीति बुरी तरह जातिवाद से विदग्ध है, लेकिन मनीष सिसोदिया तो उस राजनीतिक दल से जुड़े हैं जो नया भारत बनाने का दावा करता है।

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    राष्ट्रगीत के भारत भाग्य विधाता कहां हैं?

    निश्चय ही प्रतीकों का एक महत्व होता है. तिरंगा हो या राष्ट्रगान- वे हमारे भीतर राष्ट्रीय गौरव का एक ज़रूरी अभिमान भरते हैं. लेकिन कोई भी प्रतीक इतना बड़ा नहीं होता कि उसके आगे मूल अर्थ व्यर्थ हो जाए.

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    क्या नीतीश कुमार फिर सेक्युलर हो गए हैं? 

    राष्ट्रीय राजनीति में गठजोड़ युग आरंभ होते ही धर्मनिरपेक्षता वह फुटबॉल हो गई है जिसे हर दल अपनी सुविधा के हिसाब से खेलता है. बेशक, इसके कुछ अपवाद भी हैं.

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