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    महाकुंभ 2025 का हिस्सा बनने से पहले कुछ संकल्प लेना बेहद ज़रूरी

    महाकुंभ विशाल उत्सव जैसा है, जो हर 12 साल में एक बार आयोजित होता है. प्रयागराज महाकुंभ के दौरान देश-दुनिया की नजर इस ओर बराबर बनी रहेगी. बड़ी तादाद में विदेशी श्रद्धालु और सैलानी भी मौजूद रहेंगे. यह एक बड़ा मौका होगा, जब हम अपनी गौरवशाली परंपरा और सांस्कृतिक धरोहर की अद्भुत झलक सबके सामने पेश कर सकेंगे. ऐसे में सबको अपनी-अपनी जिम्मेदारी समझनी और संभालनी चाहिए.

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    बच्चों के सोशल मीडिया इस्तेमाल करने पर बैन लगाना कितना कारगर...?

    ऑस्ट्रेलिया की संसद ने एक बिल पास किया है. इसके मुताबिक, 16 साल से कम उम्र के बच्चे सोशल मीडिया इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म तक बच्चों की पहुंच रोकने की जिम्मेदारी सोशल मीडिया कंपनियों पर डाली गई है. अगर कंपनियां नाकाम रहीं, तो उन पर भारी-भरकम जुर्माना लग सकता है. ऐसा कानून लाने वाला ऑस्ट्रेलिया दुनिया का पहला देश है.

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    बस आने ही वाला है बोर्ड एग्जाम का सीजन, कैसी हो अभिभावकों और स्टूडेंट की रणनीति?

    बोर्ड परीक्षा और इसके नंबर को लेकर अभी से ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है. हां, इसका मतलब यह भी नहीं कि इन परीक्षाओं को एकदम हल्के में लिया जाए. परीक्षा की तैयारी पूरी मेहनत और उचित रणनीति बनाकर की जानी चाहिए.

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    हिन्दी में तेज़ी से फैल रहे इस 'वायरस' से बचना ज़रूरी है...!

    यहां हिंदी बोलने और लिखने में अंग्रेजी या दूसरी भाषाओं के शब्दों के बढ़ते इस्तेमाल की बात नहीं हो रही है. दूसरी भाषाओं के शब्दों को अपने में अच्छी तरह समा लेना तो अच्छी बात है. इससे तो हिंदी समृद्ध ही हो रही है.

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    लोकगीतों को संजोने के लिए कितना संवेदनशील है हमारा समाज?

    लोकगीतों पर चर्चा के बीच भाषा और बोलियों की चर्चा अकारण नहीं है. देखिए कैसे. छठ हो या कोई अन्य तीज-त्योहार, जन्मदिन-छठी हो या शादी-विवाह, शारदा सिन्हा के गाए गीत हमें केवल इसलिए नहीं भाते हैं कि वे कर्णप्रिय हैं. वे गीत इसलिए भी हमारे जेहन में हमेशा के लिए घर कर जाते हैं, क्योंकि वे ज्यादातर उन बोलियों में रचे गए हैं, जिनसे किसी न किसी रूप में हमारा गहरा वास्ता रहा है.

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    हर हाथ में फोन, पर इंटरनेट की बुनियादी जानकारी न होना खतरनाक!

    NSS के व्यापक सालाना मॉड्यूलर सर्वे (2022-23) के मुताबिक, देश में 15 साल से ऊपर के सिर्फ 60 फीसदी लोग ही इंटरनेट का इस्तेमाल करना जानते हैं. शहरी इलाकों में यह आंकड़ा 74 फीसदी है, जबकि ग्रामीण इलाकों में 54 फीसदी.

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    सिर्फ बाहर उजाला करने से क्या होगा, रोशनी की सबसे ज्यादा जरूरत तो भीतर है!

    प्रकाश के पर्व को जबरन कुछ गैरजरूरी चीजों से जोड़कर हम न केवल अपनी धरती और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं, बल्कि सेहत को भी खतरे में डालते हैं.

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    सिर्फ कोचिंग सेंटर का बेसमेंट नहीं, अपनी शिक्षा-व्यवस्था की बुनियाद भी जांचना ज़रूरी

    ज़्यादातर स्टूडेंट जब एक बार किसी टीचर को आदर्श मान लेते हैं, किसी कोचिंग इंस्टीट्यूट को 'नंबर वन' समझ लेते हैं, तो वहां पढ़ने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं. खासकर सिविल सर्विसेज़ एग्ज़ाम के लिए, जहां सक्सेस रेट महज 0.2% के आसपास हो. बड़े नाम वाले कोचिंग की भीड़ ही साल-दर-साल और बड़ी भीड़ को खींच लाती है.

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    हिंदी में नुक़्ता के इस्तेमाल की सीमा क्या हो, मीडिया किस राह पर चले?

    भाषा के कई विद्वान हिंदी में नुक़्ता का प्रयोग साफ तौर पर न किए जाने के पक्षधर हैं. इनका तर्क है कि बाहर से आए जिन शब्दों में नुक़्ता लगाया जाता है, उन शब्दों को अब हिंदी ने पूरी तरह अपना लिया है. जब वैसे शब्द हिंदी में पूरी तरह घुल-मिल चुके हैं, तो उन्हें हिंदी के बाकी शब्दों की तरह बिना नुक़्ता के ही लिखा जाना चाहिए. ज़्यादातर हिंदीभाषी उन शब्दों का उच्चारण भी वैसे ही करते हैं, जैसे उनमें नुक़्ता न लगा हो.

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    सिर्फ़ वर्कलोड नहीं, कामकाज के बुनियादी मकसद पर भी बात होनी चाहिए

    दिनकर जी एक जगह लिखते हैं, 'स्वर्ग की सुख-शांति है आराम में / किन्तु, पृथ्वी की अहर्निश काम में.' यहां शब्दार्थ नहीं, भावार्थ देखने की जरूरत है. यह समझने की जरूरत है कि इन पंक्तियों में कविवर के कहने का आशय क्या है.

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    अपने देश में इस्तीफ़े का शास्त्र समझना इतना भी मुश्किल काम नहीं!

    'त्यागपत्र' के शुरू में जो 'त्याग' शब्द लगा है न, इसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए. इस त्याग और त्याग की भावना की बदौलत ही संसार में कोई दधीचि बनकर अमर हो गए, कोई बुद्ध-महावीर बनकर. लेकिन इतिहास गवाह है कि इनमें से कोई भी अपनी सीट पर गमछा नहीं रख गए थे.

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    BLOG : सैलून में बाल कटवाने से पहले किताबें पढ़ने की शर्त शानदार है!

    ऐसा पाया गया है कि रोजाना कुछ देर किताबें पढ़ने से ब्लड-प्रेशर और तनाव से निपटने में मदद मिलती है. सोने से ठीक पहले किताबें पढ़ने से नींद की क्वालिटी में सुधार हो सकता है. पढ़ने की आदत से ब्रेन एक्टिव रहता है, जिससे मानसिक और भावनात्मक रूप से मजबूती हासिल करने में मदद मिलती है.

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    माइक टायसन की वापसी यही कहती है - उम्र महज़ एक आंकड़ा है

    माइक टायसन जब अपने प्रतिद्वंद्वी से भिड़ने के बाद रिंग से बाहर आएंगे, तो उनसे एक सवाल ज़रूर पूछा जाना चाहिए. यही कि वह भारत के गांव-गांव, शहर-शहर की ख़बरों पर पैनी नज़र रखते हैं क्या? आखिर उनके दिमाग में इस उम्र में रिंग में उतरने का खयाल आया कहां से?

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    ओलम्पिक गेम्स के नतीजों में छुपे हैं सफल जीवन के कई सुनहरे सूत्र

    पेरिस में आयोजित ओलम्पिक गेम्स ने देश-दुनिया का भरपूर मनोरंजन किया. हमारे हिस्से भी 6 मेडल आए, लेकिन इस तरह के खेल-आयोजनों को सिर्फ़ मेडल पाने या अवसर गंवाने के नज़रिये से देखना सही नहीं होगा. खेल और इनके नतीजे हर किसी के लिए कुछ बड़े सबक छोड़ जाते हैं, और यहां कुछ वैसे ही सुनहरे सूत्रों को समेटने की कोशिश की गई है.

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    ट्रैफ़िक रूल तोड़ने वाला 'स्पाइडर मैन' लोगों को क्या मैसेज देना चाहता है...?

    नजफ़गढ़ वाले 'स्पाइडर मैन' का मैसेज भी एकदम क्लियर है. घर हो या सड़क, इंसान को इंसान की तरह जीने का सलीका भी आना चाहिए. खुद ही जाल बुनना, अपने ही जाल में फंसे रहना, फिर उसी में दम तोड़ देना क्या इंसानों का काम है?

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    पैसों की तंगी के बावजूद CA, IAS या इंजीनियर बनने की खबरें सबको सम्मोहित क्यों करती हैं?

    आर्थिक तंगी के बावजूद, कड़ी मेहनत के बूते बड़ी कामयाबी हासिल करने वालों की खबरें जब-तब आती रहती हैं. कभी किसी ऑटो-रिक्शा चालक की बेटी सिविल सर्विसेज की परीक्षा पास कर जाती है. कभी घर-घर काम करने वाली अम्मा का बेटा अचानक करोड़ों के पैकेज वाली नौकरी पा लेता है. सवाल है कि आखिर इस तरह की खबरें सबको अपनी ओर खींचती क्यों हैं?

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    ये जो भीड़ है, धर्म का मर्म समझने में भूल कैसे कर देती है?

    शास्त्रकार कहकर गए हैं कि अठारहों पुराण पढ़ने की फुर्सत न हो, तो कोई बात नहीं. इनमें सिर्फ दो ही बातें हैं- परोपकार पुण्य है, दूसरों को सताना पाप है. ठीक यही बात तुलसीबाबा भी कहते हैं- परहित के समान कोई धर्म नहीं, परपीड़न के समान कोई अधर्म नहीं.

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    हमारे एजुकेशन सिस्टम में कहां-कहां 'रॉकेट साइंस' लगाने की जरूरत है?

    हमारे यहां कौन-सी परीक्षा कैसे ली जाए, यह आज एक बड़ा मुद्दा बन चुका है. सड़क से लेकर संसद तक चर्चा हो रही है. परीक्षाओं में 'रॉकेट साइंस' लगाने की जरूरत पड़ रही है! लेकिन मसले और भी हैं. एजुकेशन सिस्टम में कई जगह 'रॉकेट साइंस' लगाने की दरकार है. कहां-कहां, जरा देखते चलिए.

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    सोशल मीडिया पर ज़्यादा लाइक बटोरने के जुनून के पीछे क्या है?

    देखा जाए, तो यह खतरनाक स्थिति है, खासकर सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वाले युवा वर्ग के लिए. लाइक की भूख चिंता, अवसाद से बढ़ते हुए जानलेवा जुनून का रूप ले सकती है. क्या पुणे का खतरनाक स्टंट वाला वीडियो यह सब साफ-साफ बताने के लिए काफी नहीं है?

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    परीक्षाओं में 100% शुचिता की जरूरत क्यों महसूस की जा रही है?

    NEET के रिजल्ट में कथित गड़बड़ी को लेकर देशभर में जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे हैं. स्टूडेंट कई स्तरों पर गड़बड़ियों का आरोप लगाते हुए फिर से एग्जाम लेने की मांग कर रहे हैं.

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