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This Article is From Aug 22, 2022

हम तो आपको बस मनुष्य समझते थे, मनीष!

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 23, 2022 14:25 pm IST
    • Published On अगस्त 22, 2022 22:03 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 23, 2022 14:25 pm IST

मनीष सिसोदिया राजपूत हैं- यह जानकारी जातिविशारद भारतीय समाज में हर किसी को होगी। लेकिन अपने इस राजपूत वंश का वे इस शान से उल्लेख करेंगे, इसकी कल्पना कम लोगों ने की होगी। यह सच है कि भारतीय समाज पूरी तरह जातिवादी है, भारतीय राजनीति बुरी तरह जातिवाद से विदग्ध है, लेकिन मनीष सिसोदिया तो उस राजनीतिक दल से जुड़े हैं जो नया भारत बनाने का दावा करता है। वे तो शिक्षा के उस उपक्रम से जुड़े हैं जिसकी तारीफ़ न्यूयॉर्क टाइम्स तक में छपती है। जब दिल्ली के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले लाखों पिछड़े और दलित बच्चों को पता चलेगा कि उनका उपमुख्यमंत्री अपनी राजपूती मूंछों पर ताव देता है तो उन पर क्या गुज़रेगी? और अगर इन स्कूलों में अगड़ी जातियों के राजपूत बच्चे पढ़ते होंगे तो वे कौन सा सबक सीखेंगे? क्या उन्हें यह नहीं लगेगा कि जाति-धर्म से ऊपर उठने की नसीहत देने वाली यह शिक्षा बेकार है और उनका राजपूत होना ही काफ़ी है?

यह सच है कि जाति की जकड़न बहुत बड़ी है। लेकिन इस देश के कई बड़े नेताओं ने जातिवाद के ख़िलाफ़ लगातार संघर्ष जारी रखा। गांधी, अंबेडकर और लोहिया अलग-अलग ढंग से इस जकड़न के विरुद्ध वैचारिक घेराबंदी करते रहे। इसके अलावा बहुत सारे नेता- जो व्यावहारिक तौर पर जातिगत संस्कारों में बंधे पड़े थे- भी जातिविहीन समाज के आदर्श को स्वीकार करते थे। अगर यह धारा नहीं होती तो हमारे पास वह संविधान नहीं होता जो जाति और धर्म की जकड़नों के  पार जाकर हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है। यह एक क्रांतिकारी संविधान है जिसे व्यवहार में हम विफल करते रहे हैं।

लेकिन मनीष सिसोदिया ने यह लगभग असंवैधानिक भावना वाला काम क्यों किया? वे तो अपनी जमात को आदर्शवादी युवाओं का दल बताते रहे हैं? दरअसल उन्हें समझ में आ गया है कि भारतीय राजनीति में कामयाब होने के लिए जातिविहीनता के आदर्शवाद से नहीं,बल्कि जातिगत गर्व के यथार्थवाद से मदद मिलेगी। बहुत संभव है, इस नए यथार्थबोध के साथ उन्होंने जो नया राजनीतिक सयानापन अर्जित किया है, वह उन्हें चुनावी राजनीति में थोड़े-बहुत अतिरिक्त वोट दिला दे। लेकिन राजनीतिक विकल्प बनने का जो सपना उन्होंने देखा और दिखाया है, वह आज कुछ और चूर-चूर हो गया है।

ऐसा नहीं कि आप से मोहभंग की यह पहली प्रक्रिया हो। राजनीति में आने के बाद आप ने तरह-तरह के समझौते किए- लेकिन उन समझौतों को फिर भी भारतीय राजनीति और चुनाव तंत्र का चरित्र समझते हुए स्वाभाविक मजबूरी माना जा सकता है। ऐसा भी नहीं कि जाति की राजनीति इस देश में कोई अपराध है। बहुत सारी पार्टियां जातिगत पहचानों की राजनीति करती हैं। मंडल और कमंडल की लंबी चली खदबदाहट के बीच भारतीय राजनीति में जातियों की अपरिहार्यता बढती चली गई है। लेकिन पिछड़ी जातियों के ऐतिहासिक हितों की नुमाइंदगी की तरह राजनीति एक बात है और जातिगत गुरूर का राजनीतिक विज्ञापन दूसरी बात। भारतीय राजनीति में दोनों बातें हो रही हैं। एक तरफ़ पिछड़ा हितों की गोलबंदी भी चल रही है और दूसरी तरफ़ अगड़े अहंकार की घेराबंदी भी।

दुर्भाग्य से मनीष सिसोदिया इस राजनीति के दूसरी तरफ़ खड़े हैं। उनके वक्तव्य में जातिवादी अहंकार की बू है। वे बीजेपी के दबाव के आगे नहीं झुकेंगे, यह इनकी निजी ईमानदारी या उनके निजी साहस का मामला होना चाहिए। इसे वे राजपूत होने के और महाराणा प्रताप का वंशज होने के अपने अहंकार से जोड़ कर बहुत सारे लोगों का सिर झुका देते हैं। क्या वे कहना चाहते हैं कि जो राजपूत नहीं हैं वे झुक जाते हैं? वे समझौते कर लेते हैं? वैसे भारत के इतिहास को देखें तो बीते एक हजार साल में राजपूत सम्राटों की जितनी विरुदावलियां गाई गई हैं, उतने युद्ध उन्होंने जीते नहीं हैं। लेकिन यह टिप्पणी किसी जाति विशेष पर नहीं, उस जाति विशेष का होने के अंहाकर पर है।

भारतीय राजनीति में जिन बहुत कम लोगों से मैं अपने परिचय का दावा कर सकता हूं, उनमें मनीष सिसोदिया हैं। वे ईमानदार और जुझारू रहे हैं और यह छवि अब तक मेरे भीतर प्रामाणिक रूप से मौजूद है। लेकिन चाहे राजनीति के लिए या फिर किसी और गुमान में- अपने जातिगत अहंकार का प्रदर्शन कर उन्होंने हमारी तरह के मित्रों को निराश किया है और अपनी ही राजनीति को नीचा दिखाया है।

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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