यह 1985 का साल था। इंटरमीडिएट में पढ़ते हुए मैंने तीस रुपये में सात रूसी किताबें खरीदी थीं- चेखव का कहानी संग्रह, मैक्सिम गोर्की की तीन किताबें- 'मेरा बचपन', 'मेरे विश्वविद्यालय' और 'जीवन की राहों में', तुर्गनेव का 'पिता और पुत्र', ऑस्त्रोव्स्की का 'अग्निदीक्षा', और टॉल्स्टॉय का 'पुनरुत्थान'।
तीस रुपये में यह ख़ज़ाना हाथ में लगने जैसा था। रूसी साहित्य से यह मेरा पहला विपुल परिचय हो रहा था। रूस की सर्द रातों में ओवरकोट पहने लोग, बग्घियों में घूमती लड़कियां, बेंत लिए बूढ़े, बेंच पर बैठी महिलाएं- अगले कुछ महीने में मॉस्को, लेनिनग्राद, स्टालिनग्राद सब जैसे अपने जाने-पहचाने शहर होते गए थे। आने वाले वर्षों में इस ख़ज़ाने में और भी किताबें जुड़ती चली गईं- मैक्सिम गोर्की का 'मां', टॉल्स्टॉय का 'अन्ना कैरेनिना', दॉस्तोएव्स्की का 'अपराध और दंड', और 'बौड़म', जॉन रीड का 'वे दस दिन जब दुनिया हिल उठी', शोलोखोव का 'धीरे बहो दोन होय', मारिया प्रिलेयाजेवा की लिखी लेनिन की जीवनी, 'द्वंद्वात्मक भौतिकवाद' लेनिन का 'क्या करें' और ऐसी ढेर सारी किताबें जो आने वाले दिनों में हमें कुछ कम्युनिस्ट, कुछ समझदार, कुछ प्रगतिशील और कुछ साहित्यिक बनाती रहीं। यह सियासत से ज़्यादा किताबों और बदलाव की चाहत से मोहब्बत थी जो हम कुछ से कुछ होते चले गए। अगर सोवियत संघ ने अपने संसाधन नहीं झोंके होते तो शायद बहुत सारे बहुमूल्य साहित्य से हम अपरिचित रह जाते।
1985 के इसी साल मिखाइल सर्गेयेविच गोर्बाचेव सोवियत संघ के राष्ट्रपति बने। उसके पहले सोवियत संघ अपने दो राष्ट्रपतियों की बहुत तेज़ विदाई देख चुका था। कुछ महीने चेरनेन्को रहे, जिनका नाम तक लोगों को याद नहीं होगा और दो साल यूरी आंद्रोपोव रहे, जिनके पहले ब्रेझनेव युग चला था। यह वह दुनिया थी जिसमें कई जाने-माने राष्ट्र प्रमुख अपने-अपने देशों की सत्ता संभाल रहे थे। अमेरिका को रोनाल्ड रीगन बदल रहे थे और ब्रिटेन को लौह महिला मार्गरेट थैचर। पश्चिम जर्मनी को हेलमुट कोल ने संभाल रखा था। लेकिन इन तमाम लोगों के बीच गोर्वाचेव की हैसियत शायद सबसे ऊंची थी- कुछ सोवियत संघ की विराट हैसियत की वजह से और कुछ अपनी निजी शख़्सियत के कारण। निश्चय ही वे कुछ अलग से नेता थे। सोवियत सत्ता की सीढ़ियों पर बहुत कम उम्र में पहुंच गए थे। उनके सामने कई सपने और कई लक्ष्य थे। उनको एहसास था कि देश में घुटन बढ़ रही है और दुनिया में तनाव। पश्चिम से वे बेहतर रिश्ते चाहते थे। किसी भी सूरत में तीसरा विश्वयुद्ध रोकने के पक्षधर थे। चालीस साल से धधक रहे शीतयुद्ध को ख़त्म करना चाहते थे। उन्होंने ग्लास्तनोस्त और पेरेस्त्रोइका शुरू किया- यानी खुलापन और बदलाव।
इसी दौर में रूसी किताबों की खरीद का मेरा सिलसिला जारी था। सोवियत संघ के अटूट बने रहने पर मेरा विश्वास दूसरों से ज़्यादा था क्योंकि अध्ययन और कम था। वैसे भी जिनका अध्ययन था, उनमें भी कोई शख़्स यह कल्पना तक नहीं कर सकता था कि अगले पांच साल में सोवियत संघ टूट जाएगा। मैंने इन्हीं दिनों कभी गोर्बाचेव की लिखी किताब 'पेरेस्त्रोइका' ख़रीदी। पेरेस्त्रोइका के जो आर्थिक ब्योरे थे, वे तो मुझे कम समझ में आए लेकिन गोर्बाचेव की एक दलील बहुत साफ़ समझ में आई। गोर्बाचेव ने लिखा था कि दुनिया की कोई भी क्रांति एक दौर में सफल नहीं हुई है। उन्होंने अमेरिकी क्रांति, ब्रिटिश संसदीय सुधार और फ्रांसीसी क्रांति के उदाहरण दिए। कहा कि सोवियत क्रांति भी एक दौर में पूरी नहीं मानी जानी चाहिए। उसे क्रांति के एक और दौर से गुज़रना होगा।
लेकिन यह स्वप्नदर्शिता गोर्बाचेव के बहुत काम नहीं आई। वे सोवियत संघ की खिड़कियां खोलने चले थे ताकि कुछ हवा आए, लेकिन उससे ऐसा बवंडर भीतर आया जिसने घर की छत ही उड़ा दी। सोवियत संघ का अंत हो गया।
यह बहुत सारी चीज़ों का अंत था। हमारे सामने दुनिया ढह या बन रही थी। जर्मनी की दीवार गिर चुकी थी। सोवियत संघ बिखर गया था। युगोस्लाविया-चेकोस्लोवाकिया ने के नक्शे फट रहे थे और ज़मीन पर गृह युद्धों में उलझी जातीय अस्मिताएं इस आधुनिक समय के बर्बर युद्धों में लगी थीं। सोवियत संघ के साथ शीत-युद्ध का भी अंत हो गया, इतिहास का भी अंत हो गया, विचारधारा का भी अंत हो गया, बहुत सारे सपनों का भी अंत हो गया।
मेरी किताबों की ख़रीद का भी अंत हो गया। पीपुल्स बुक हाउस नाम की जिस दुकान से मैं किताब खरीदता था, उसकी आलमारियां ख़ाली होती गईं, वह सन्नाटे में डूबती चली गईं, रादुगा और प्रगति प्रकाशन बस स्मृतियों में रह गए। कुछ बरस बाद रूसी विद्वान वरयाम सिंह के कहने पर मैंने रूसी कविताओं के अनुवाद के सहारे रूसी कविता की परंपरा पर कुछ काम किया और पुश्किन, त्यूतचेव, लेर्मेंतेव, मायाकोव्स्की, ब्लोक, अख़्मातोवा, त्स्वेतायेवा, येव्तुशेन्को और वोज्नेसेंस्की जैसे कवियों को नए सिरे से पढा तो मेरे भीतर वे स्मृतियां सिर उठाती रहीं जिनके साथ अपने होने का भी एक मतलब जुड़ा था, अपना भी एक सपना बंधा था। इन्हीं दिनों टूटे हुए सोवियत संघ और बचे हुए रूस में बीस साल बाद उसका एक निर्वासित और नोबेल विभूषित लेखक सोलजेनिस्तीन लौटा तो उसने पाया कि रूस बदल गया है, उसकी भाषा बदल गई है। जिस मुल्क की तलाश में वह गया था, वह उसे नहीं मिला। वहां भी वह एक उदास-अकेला शख्स था।
बहरहाल, सोवियत संघ ढह गया और शीतयुद्ध ख़त्म हो गया। लेकिन क्या इसके बाद जो शीत शांति आई, वह कुछ ज़्यादा मानवीय थी? विचारधाराओं के पुराने संघर्ष नहीं बचे, लेकिन सभ्यताओं के संघर्ष शुरू हो गए। स्टारवार्स जैसा कार्यक्रम खत्म हो गया, अमेरिका-रूस की ऐटमी होड़ कुछ घटी, लेकिन अमेरिका के नेतृत्व में जो एकध्रुवीय दुनिया बनी, उसने सबकुछ बदल कर रख दिया। पश्चिमी वर्चस्ववाद के आक्रामक रवैये ने, दक्षिण एशिया से पश्चिम एशिया तक धार्मिक कट्टरता को पोसने और उसे वहां की सत्ता के ख़िलाफ़ खड़ा करने की अमेरिकी रणनीति ने कहीं तालिबान पैदा किए, कहीं अल क़ायदा बनाए। पुराने छापामार युद्ध आतंकी हमलों में बदले, अमेरिका के ट्विवन टावर गिरा दिए गए, देश ढहते गए, प्रगतिशील मूल्य पीछे छूटते गए, धार्मिक कट्टरताएं दक्षिणपंथी राजनीति के उभार की बुनियाद बनीं और दुनिया भर में तकनीक पर आधारित संस्कृतिशून्य बाजार व्यवस्था का क़ब्ज़ा बढ़ता चला गया। इस पूरी प्रक्रिया में तकनीक का भी बड़ा योगदान रहा। आज स्थिति ये है कि दुनिया भर में बाज़ार और बड़े औद्योगिक घराने सत्ता का स्वरूप तय कर रहे हैं। अपने भारत में भी लोकतंत्र या तो पुरानी धार्मिक और जातीय जकड़नों में जकड़ा हुआ है या आवारा-काली पूंजी की गिरफ़्त में है। कम्युनिस्ट आंदोलन या तो उपहास की वस्तु है या उपेक्षा की। गोर्बाचेव 1991 के बाद शायद बिल्कुल शून्य में चले गए। एक बार येल्तसिन के मुक़ाबले चुनाव लड़ने की कोशिश की, लेकिन आधे फ़ीसदी के आसपास वोट हासिल कर सके। रूसी जनता ने उन्हें नकार दिया था। आख़िर उनकी वजह से दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क अपनी चमक और हैसियत खो बैठा था।
हमारे लिए भी गोर्बाचेव लगभग गुजर चुके थे। 91 बरस की उम्र में उनकी मौत की ख़बर जिन्होंने सुनी, उन्हें हैरत हुई होगी कि वे अब भी ज़िंदा थे! हमारी तरह के बहुत सारे लोगों के लिए सोवियत संघ का ख़त्म होना बस एक देश का, दुनिया की एक व्यवस्था का, ख़त्म होना नहीं था, अपने बहुत सारे सपनों के निर्माण की सामग्री का भी मिट्टी हो जाना था। अगर वह सोवियत संघ न होता तो हम क्या जूलियस 'फ़्यूचिक की फांसी के तख़्ते से' जैसी धड़कती हुई किताब पढ़ पाते, क्या रसूल हमजातोव का 'मेरा दागिस्तान' देख पाते, क्या दोस्तोएव्स्की के कार्मोजोव ब्रदर्स से परिचित हो पाते? क्या चेखव की 'थ्री सिस्टर्स' को मनोयोग के साथ एनएसडी में देख पाते? क्या गिरगिट जैसी कहानी पर हंस पाते और हंसते हुए अचरज कर पाते कि दुनिया और सभ्यता में कितना कुछ मूल्यवान है और कितना कुछ छोड़ दिए जाने लायक? यही नहीं, क्या वे बहुत सारी यादगार कविताएं हिंदी की दुनिया में होतीं जिन्होंने हमें सपना देखना भी सिखाया और न्याय और समानता को अपरिहार्य मूल्य मानना भी?
लेकिन ठीक है। सबकुछ नष्ट होने के लिए बना है। सभ्यताएं बनने और बिखरने को अभिशप्त होती हैं। यह एक दार्शनिक मायूसी भर नहीं है, एक ठोस सच्चाई है जो हमारे सामने घटी है। जिसकी वजह से घटी, उसके जाने से याद आया- हम कितनी चीज़ों के गवाह रहे हैं।