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This Article is From Jan 13, 2023

एक ख़त कमाल के नाम

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 13, 2023 20:57 pm IST
    • Published On जनवरी 13, 2023 20:56 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 13, 2023 20:57 pm IST

प्रिय भाई कमाल ख़ान, 

किसी दूसरी दुनिया का, और उस दुनिया में आपके होने का यक़ीन नहीं है, इसके बावजूद यह ख़त आपके नाम लिख रहा हूं तो इसलिए कि एक बरस पहले आपके साथ अपने भी कुछ मर जाने का एहसास था और यह खयाल भी कि मेरे भीतर आप कुछ बचे हुए हैं. ज़िंदगी नाम की शै का सिला यही है- एक सिलसिला जिसमें हम दूसरों के साथ मरते हैं और दूसरे हमारे भीतर जीते हैं. 

उन्नीस बरस हमने साथ काम किया. कई बार लगभग रोज़ बात होती रही, कई बार कुछ रुक-रुक कर. कई बार किसी ख़बर को लेकर बहुत संक्षिप्त सी बात और कई बार किसी विचार को लेकर लंबी गपशप. इन सबके बीच कभी-कभी कुछ शिकायतों और हताशाओं के प्रसंग भी आते-जाते थे. लेकिन हर बार, एक लम्हे के लिए भी यह एहसास नहीं जाता था कि एक-दूसरे से बात करते हुए हम अपने-आप से भी बतियाते थे- पत्रकारिता में धुंधले पड़ते सरोकार, लगातार इकहरी होती ज़ुबान, लगातार बिखरती हुई ख़बरें- बाहर और भीतर की राजनीति, छोटी-छोटी मायूसियां, कुछ अनपहचाने दुख- सब इस बातचीत में बहते हुए आते-जाते और हर बार अधूरी छूटी बातचीत को आगे बढ़ाने के वादे के साथ हम इसे विराम देते.  

तो कमाल साहब, यह उसी बातचीत को बढ़ाने की कोशिश है. खबरों की दुनिया आज भी उसी हाल में है जिस हाल में आप इसे छोड़ गए थे. इसमें कुछ नए आरोप -प्रत्यारोप जुड़ गए हैं, कुछ नई हत्याएं और आत्महत्याएं चली आई हैं, कुछ नए सरकारी दमन शामिल हो गए हैं, एक पहाड़ दरक रहा है, दुनिया कहीं भूख से, कहीं युद्ध से और लगभग हर जगह तरह-तरह की संकीर्णताओं से दम तोड़ रही है. हिंदुस्तान में पहले भी हमारी तरह के लोगों की कद्र ज़्यादा नहीं थी, अब भी नहीं है. लेकिन इससे ये सच्चाई कम नहीं होती कि हम हिंदुस्तान के हैं और हिंदुस्तान हमारा है. 

कमाल साहब, काफ़ी कुछ बदल रहा है. देश के बड़े हाकिम ने बताया है कि अयोध्या में एक जनवरी, 2024 को भगवान राम का भव्य मंदिर तैयार हो जाएगा. आप तो बार-बार अयोध्या जाते रहे थे. अयोध्या की गलियां आपके लिए मानस की चौपाइयों सरीखी थीं. आपको मालूम था कि राम के बहुत सारे मंदिर हैं, बहुत सारे भवन हैं, भव्यता की भूख राम के भीतर नहीं, राम के नाम पर राजनीति करने वालों के भीतर है. अब अयोध्या स्मार्ट सिटी बनने की ओर बढ़ रही है. साफ-सुथरी-चौड़ी सड़कों वाली इस अयोध्या की ख़बर देने के लिए आप नहीं हैं. होते तो शायद राम कथा के कुछ और मार्मिक रंग खुलते, अयोध्या का कुछ और भेद खुलता. शायद खौलती हुई अयोध्या पर आपकी मृदु आवाज़ कुछ मरहम लगाती. 

वैसे ये पूरा समय ही खौलता हुआ है. ठीक इन्हीं दिनों तुलसीदास और मानस सवालों से घिरे हैं. इक्कीसवीं सदी का जातिवाद विरोधी विमर्श उचित ही याद दिला रहा है कि महाकवि अपनी सारी उदात्तता और करुणा के बावजूद भारत की वर्ण-व्यवस्था के जाल में फंसे रहे और शूद्रों और स्त्रियों को तरह-तरह से कोसते रहे. मैं इल्तिज़ा करना चाहता हूं कि महाकवि को इस महाभूल के लिए फिर भी माफ़ किया जाए और देखा जाए कि किस तरह उन्होंने रामकथा का जनतांत्रिकीकरण करने के साथ-साथ भाषा को भी उदार बनाया. उनके राम गरीबनवाज़ हैं जो कभी-कभी सूफ़ी जान पड़ते हैं. पता नहीं, इस बात से आप सहमत होते या नहीं. 

कमाल साहब, हम दोनों को जो चीज़ जोड़ती थी, वह भाषा भी थी- लफ़्ज़ों के मानी में हमारा भरोसा, शब्दों की नई-नई रंगत खोजने की हमारी कोशिश और अदब की दरबानी का हमारा जज़्बा. पत्रकारिता के सतहीपन ने आपको भी दुखी किया और मुझे भी. आज ही देख रहा हूं कि सुप्रीम कोर्ट ने नफरती बयानों के मामले में सुनवाई करते हुए टीवी चैनलों को जम कर लताड़ा है. यह 'लताड़ना' शब्द भी हमारी अभिरुचि को रास नहीं आता, लेकिन क्या करें, सच को सिकोड़ कर, छुपा कर कहने का सलीका बरतने की बेईमानी भी हमें सालती रही. तो सुप्रीम कोर्ट ने टीवी चैनलों और ऐंकरों को उनकी सनसनीख़ेज़ रिपोर्टिंग के लिए फटकारा है. सरकार से यहां तक पूछ लिया कि आप इनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई क्यों नहीं करते.  

कमाल साहब, आप होते तो शायद इस ख़बर को भी अलग दर्द के साथ कर पाते. अच्छी पत्रकारिता आज की ख़बर देती है, लेकिन बड़ी पत्रकारिता आज को अतीत और भविष्य के साथ मिलाकर भी देखती है. आप यह काम करते रहे थे. शायद यही वजह है कि परंपरा की कोई भी टूटन, रिवायतों में आई कोई भी दरार आपको एक हद के बाद परेशान नहीं करती थी. आपके पास एक समृद्ध अतीत की स्मृति थी और एक जज़्बा था कि यह सब बना रहेगा. अयोध्या के मंदिरों के लिए फूल उगाने वाले मुसलमानों की कहानी कहते हुए आप छह सौ साल पीछे जा सकते थे और उस मगहर तक पहुंच सकते थे, जहां कबीर सोया हुआ है. आप याद दिला सकते थे कि ये उस कबीर की धरती है जिसका शव फूलों में बदल गया था और जिसे हिंदुओं और मुसलमानों ने बांट लिया था.  

आप अपने कबीर थे कमाल साहब. हालांकि आपमें कबीर वाली तल्ख़ी कहीं नहीं थी. लहज़ा आपका तुलसी वाला था. आपकी ज़ुबान आंच भी देती थी ख़ुशबू भी. आपको याद है, हम कई बार केदारनाथ सिंह, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और रघुवीर सहाय से लेकर फ़ैज़-फ़िराक तक की बातें किया करते थे. हिंदी की टीवी पत्रकारिता चाहती तो आपसे काफ़ी कुछ सीख सकती थी. लेकिन लगता है कि उसे सादगी से सच कहने का हुनर सीखने के मुक़ाबले नक़ली शोर-शराबा करना ज़्यादा रास आया.  

हालांकि बहुत तेज़ रफ़्तार से भागती ज़िंदगी के बीच हम एक-दूसरे को जान ही कितना पाए थे. आपके इंतकाल के बाद आपके क़रीबियों के संस्मरणों ने बताया कि जिस कमाल को मैं जानता था, वे बहुत आधे-अधूरे थे. यह हमारे समय की विडंबना है- एक-दूसरे से अंततः अपरिचित रह जाने की नियति, जो अंततः हम सबको एक-दूसरे के प्रति उदासीन बना रही है. हमें तो आपकी उम्र भी ठीक-ठीक पता नहीं थी. हम आपको बहुत युवा समझते थे. आपको याद होगा, अदिति के साथ एक बातचीत के बाद मैंने आपको फोन किया था- आप बड़े हैं या मैं बड़ा हूं कमाल साहब? आपने जिस हंसी के साथ सवाल टाला था, उससे हम हैरत में पड़ गए. पहली बार मुझे एहसास हुआ कि आप उम्र में मुझसे बड़े भी हो सकते हैं. हालांकि इसके कुछ ही दिन आपने अपनी ज़िंदगी को ‘स्टॉप' कह दिया और अपनी उम्र रोक ली- जैसे मुझे बड़े होने का अवसर दे दे रहे हों.  

यह बहुत संकट का समय है कमाल साहब. पत्रकारिता के लिए भी, भाषा के लिए भी, आपसी सहनशीलता के लिए भी, मिल-जुल कर रहने के जज़्बे के लिए भी. इस समय आपको याद करना और लाज़िमी हो जाता है. मैं जज़्बाती होता हूं लेकिन लेखन में उसे ठीक से उतार नहीं पाता. यह फ़न आपमें ही था कि चेहरा सपाट और आवाज़ सहज बनाए रखते हुए आप मनचाहा प्रभाव पैदा कर पाते थे.  

मुझे वह आख़िरी दिन याद आ रहा है जब हमारी बात हुई थी. हमेशा की तरह आपने अतिरिक्त ज़िम्मेदारी ले रखी थी और भागते-दौड़ते बता रहे थे कि आपको क्या-क्या करना है. हालांकि इस दबाव में भी आप अपना धीरज और इत्मीनान बनाए रखते थे. इसी के साथ फिर किसी दिन बात करने का वादा भी किया था.  

हममें से किसको मालूम था कि यह वादा तोड़ कर आप चल देंगे. और हममें से किसे मालूम है कि कौन ऐसी चिट्ठियां कब तक लिख सकेगा. ज़िंदगी के हाथ में भी एक कलम होती है जिससे वह हम सबका लेखा चुपचाप लिख रही होती है. इतना भर नियतिवाद बहुत सारी तार्किकता के बावजूद मेरे भीतर चला आता है. तो यह ख़त आपके नाम है- उस उजली पत्रकारिता की याद के नाम है जिसे आपने और जिसने आपको बनाया और इस उम्मीद के नाम है कि इस उजाले से कुछ लोग अब भी रोशनी हासिल करते रहेंगे. 

प्रियदर्शन

(कमाल खान की पहली पुण्यतिथि से पहले कमाल की याद) 

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