विज्ञापन
This Article is From Oct 10, 2022

प्रियदर्शन का ब्लॉग: मुलायम सिंह यादव की विदाई और समाजवाद की विरासत

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 10, 2022 22:23 pm IST
    • Published On अक्टूबर 10, 2022 21:56 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 10, 2022 22:23 pm IST

मुलायम सिंह यादव नहीं रहे. उनके साथ एक बड़े राजनीतिक दौर की हलचलों पर हमेशा-हमेशा के लिए परदा गिर गया. जिस माहौल में वे पैदा हुए थे और जो माहौल वे छोड़ गए- दोनों में अब काफ़ी अंतर है. वह गरीबी काफ़ी कम हुई है जो कभी हिंदुस्तान के गांव-देहात झेला करते थे और जिनके बीच मुलायम की भी परवरिश हुई होगी. लेकिन यही बात कई दूसरे संकटों के बारे में नहीं कही जा सकती. मुलायम सिंह यादव ने जिस दौर में आंख खोली, वह राष्ट्र-निर्माण के संकल्प का दौर था. इस यज्ञ में हर कोई अपने ढंग से आहूति दे रहा था. गांव-देहात से निकले बच्चे पहली बार इतनी बड़ी तादाद में स्कूल-कॉलेज जा रहे थे. मुलायम सिंह यादव ने भी अच्छी पढ़ाई की- राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि ली. उनकी डिग्री किसी एंटायर पॉलिटिकल साइंस में एमए जैसी संदिग्ध डिग्री नहीं थी. उन्होंने स्कूल में भी पढ़ाया. उस दौर का हिंदुस्तान औपनिवेशिक काल की बहुत सारी जकड़नों से मुक्त होने की कोशिश कर रहा था और उस सांप्रदायिकता को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ना चाहता था जिसकी वजह से इस देश के दो टुकड़े हो गए थे.

यह साठ का दशक था, जब मुलायम सिंह यादव राजनीति में आए. वे न कांग्रेस की आभा से प्रभावित हुए न जनसंघ के चक्कर में पड़े. उन्हें डॉ राममनोहर लोहिया के समाजवाद ने लुभाया जो बराबरी के विराट स्वप्न से प्रेरित था और कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेंकने को संकल्पबद्ध. लोहिया बिल्कुल चिंतक राजनेता थे और उनके दिए कई सूत्र समाजवादी राजनीति को अनुप्राणित करते रहे. 1967 में जब नौ राज्यों में पहली गैरकांग्रेसी सरकारें बनीं तो उसी दौर में मुलायम सिंह यादव भी पहली बार उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए.  

साठ के दशक का उद्वेलन सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में- ख़ासकर इमरजेंसी के बाद- कांग्रेस विरोधी लहर में बदल गया. लोहिया जा चुके थे और जेपी सक्रिय राजनीति से अरसे तक दूरी बरतने के बाद राजनीतिक आंदोलन में वापसी कर रहे थे. उनकी पहल पर जनता पार्टी बनी, जिसमें संगठन कांग्रेस, जनसंघ और समाजवादी पार्टी के घटक सब शामिल हो गए. इमरजेंसी में बहुत सारे दूसरे नेताओं के साथ मुलायम सिंह यादव ने भी पूरे 19 महीने की जेल काटी. जब 1977 में चुनाव हुए और इंदिरा गांधी को हरा कर दूसरी आज़ादी का एलान करती हुई जनता पार्टी सत्ता में आई तो मुलायम सिंह इस सरकार में राज्य मंत्री भी बनाए गए. दुर्भाग्य से सिर्फ़ ढाई साल के बाद सरकार गिरी और जनता पार्टी टूट गई.

ध्यान से देखें तो इस टूटन ने समाजवादी आंदोलन को सबसे ज़्यादा नुकसान पहुंचाया. समाजवादी पार्टियां आने वाले वर्षों में कई टुकड़ों में बंटती-जुड़ती और फिर टूटती रहीं, जबकि समाजवादी पहचान वाले नेता कभी कांग्रेस के पीछे नज़र आए कभी बीजेपी के हाथ मज़बूत करते दिखे. जनता पार्टी की टूट के बाद पहले लोकदल बना. इसके बाद चरण सिंह ने दमकिपा बनाई. फिर जनता दल बना. फिर जनता दल भी टूटा. फिर समाजवादी रंग की न जाने कितनी पार्टियां बनती चली गईं. समाजवादी पार्टी, समता पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, इंडियन नेशनल लोकदल, जेडीयू, जेडीएस, आरजेडी, बीजेडी- छोटी-छोटी लड़ाइयों ने, छोटे-छोटे शगूफ़ों ने समाजवादी विरासत के एक हज़ार टुकड़े किए, कोई यहां गिरा कोई वहां गिरा. समाजवाद पर भगवा रंग भी चढता दिखा और भ्रष्टाचार की कालिख भी नज़र आई.

जो मौजूदा समाजवादी पार्टी है, वह मुलायम सिंह यादव ने 1992 में बनाई थी. तब शायद उन्होंने सोचा नहीं होगा कि वे उत्तर प्रदेश के क्षत्रप रह जाएंगे और फिर आने वाले दिनों में परिवारवादी राजनीति करने की तोहमत झेलेंगे. यूपी में चरण सिंह की विरासत का वास्तविक हिस्सा उन्हें ही मिला- अजित सिंह की मौजूदगी के बावजूद.

लेकिन यह वह दौर है जब मुलायम अपनी समाजवादी-गंवई जिद के साथ बीजेपी का मुक़ाबला करते नज़र आते हैं. राम मंदिर आंदोलन की सारी आंच यूपी झेल रहा है. अय़ोध्या में कारसेवा के नाम पर इकट्ठा हुई भीड़ क़ायदे-क़ानून मानने को तैयार नहीं है. वह बाबरी मस्जिद के गुंबदों पर चढ़ जाती है. यूपी में मुख्यमंत्री बन चुके मुलायम सिंह गोली चलाने का आदेश देते हैं. राम मंदिर की उन्मादी रिपोर्टिंग में लगा मीडिया इस गोलीबारी में मरने वालों की तादाद 2 से शुरू करके 200 तक ले जाता है. मुलायम को बीजेपी आने वाले दिनों में मौलाना का खिताब दे डालती है. 
अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा की राजनीति मुलायम सिंह यादव के प्रति राजनीतिक घृणा में मूर्तिमान होती है. मंडल के बाद बदले हुए राजनीतिक मिज़ाज का अगर उन्हें फायदा हो रहा है तो उनके खिलाफ़ अगड़ा गोलबंदी में भी इसकी कसक शामिल दिखती है. 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद यूपी में मुलायम अल्पसंख्यकों की सबसे बड़ी उम्मीद बन कर उभरते हैं. 1993 में बसपा के साथ समझौता कर पिछड़ा-दलित गोलबंदी का एक ऐतिहासिक काम वह करते हैं और बीजेपी को रोक लेते हैं. बेशक, यह गोलबंदी त्रासद ढंग से टूटती है, लेकिन संयुक्त मोर्चे का बड़ा प्रयोग इसके बाद दिल्ली में होता है जो 1996 के आम चुनावों के बाद सरकार गठन में काम आता है. मुलायम इस सरकार में नेताओं की प्रतिस्पर्धा में प्रधानमंत्री बनते-बनते रह जाते हैं और रक्षा मंत्री बनते हैं.

हालांकि इसके बाद कुछ सियासत बदलती है, कुछ मुलायम बदलते हैं और कुछ कहानी बदल जाती है. मुलायम की राजनीति जैसे अपने चरम पर है. इस दौर में उनके साथ बड़े सितारे भी जुड़ रहे हैं और पूंजीपति भी. अमर सिंह इसी दौर में उनके सबसे विश्वसनीय साथी बनते हैं और बॉलीवुड के कई चमकीले नाम रातों-रात समाजवादी हो उठते हैं. बेशक, गठजोड़ की राजनीति और जोड़तोड़ में मुलायम की निर्भरता ऐसे लोगों पर बढ़ती जाती है और समाजवादी आंदोलन और मुलायम से जुड़े खांटी नेता पीछे छूटते जाते हैं.

यही वह दौर है जब मुलायम की राजनीति में कुछ ऐसे दाग लगते हैं जो बिल्कुल मृत्यु तक उनका पीछा करते हैं. पहला वह रामपुर तिराहा कांड है जहां उत्तराखंड के आंदोलनकारियों को रोकने के नाम पर उनका बुरी तरह दमन किया गया और औरतों से बलात्कार तक भी हतप्रभ करने वाली ख़बरें आईं. अक्टूबर 1994 के उस दमन के लिए उन्हें पहाड़ के आंदोलनकारियों ने कभी माफ़ नहीं किया.

इसी तरह 1995 के गेस्ट हाउस कांड की स्मृति मायावती के लिए अरसे तक नासूर बनी रही. यह कभी स्पष्ट नहीं हुआ कि वहां हुआ क्या था, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि जो कुछ भी हुआ था, वह भारतीय राजनीति के लिहाज से शालीन नहीं था और मुलायम के इशारों पर हुआ था. तीसरा मुलायम का वह बयान था जिसका बचाव किसी सूरत में नहीं किया जा सकता. बलात्कार के मसले पर उन्होंने कहा था कि लड़कों से ग़लती हो जाती है.

लेकिन अगर देखें तो यह हमारे समाज और सत्ता प्रतिष्ठान में बहुत गहरे पैठी वही पितृसत्तात्मक सोच है जो अपने चरित्र में बुरी तरह स्त्री-विरोधी है और कभी खुल कर तो कभी छुप कर अपने स्त्री-द्वेष को तरह-तरह से प्रगट करती रहती है. मुलायम ने जो बात बड़ी फूहड़ता से कही, दूसरे दलों के नेता बड़ी सूक्ष्मता से उस पर अमल करते रहते हैं. बीजेपी ने कुलदीप सिंह सेंगर, साक्षी महाराज और चिन्मयानंद स्वामी के साथ जो मुलायम रवैया अपनाया, वह दरअसल बिना कहे एक तरह से मुलायम सिंह यादव की बात को स्वीकार कर लेने जैसा था.  

बहरहाल, मुलायम और समाजवाद की ओर लौटें. आज समाजवाद की कई विडंबनाएं बड़ी आसानी से लक्षित की जा सकती हैं. हमने कई समाजवादी योद्धाओं को पलटते देखा. जॉर्ज फर्नांडीज़ जैसा बड़ा नेता बीजेपी के साथ खड़ा हो गया, उनका संकटमोचन बना रहा. लालू के साथ घर वापसी से पहले नीतीश अरसे तक बीजेपी के साथ रहे. मुलायम के भटकाव भी उनके करीबियों को मायूस करते रहे. समाजवादी पार्टी एक वैचारिक पार्टी से पहले क्षेत्रीय पार्टी बनी और फिर परिवार की पार्टी रह गई.

लेकिन क्या यह इन नेताओं के निजी दुर्गुण थे? या पूरी की पूरी भारतीय राजनीति एक तरह की सिद्धांतविहीनता के दलदल में चल रही है और नेताओं ने अवसरवाद को अपना सबसे प्रमुख औजार बना लिया है? या फिर पूंजी अब सत्ता और राजनीति को नियंत्रित कर रही है और जब तक आपके पास बड़ा पैसा नहीं हो आप बड़ी राजनीति नहीं कर सकते? या फिर भारतीय समाज ही वह सपना खो चुका है जिससे किसी रचनात्मक कार्यक्रम या सकारात्मक राजनीति का जन्म होता है? इस चरम उपभोक्तावादी दौर में समाजवाद या तो उपहास का विषय बनता जा रहा है या फिर कौतूहल का. इस मिट्टी से किसी मुलायम का जन्म होना अब मुश्किल है.

मुलायम योद्धा थे. सारी मुश्किलों को पार करते हुए, सारी आलोचनाओं से आगे निकल कर 2012 में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की जीत की बुनियाद उन्होंने ही रखी थी. इसमें शक नहीं कि उन्होंने अपने बेटे को बेहद मज़बूत विरासत सौंपी. अखिलेश यादव उस कामयाबी को दुहराने में नाकाम रहे तो इसकी एक वजह यह भी समझ में आती है कि उनमें मुलायम सिंह यादव की व्यावहारिकता नहीं थी. अपनी राजनीति को अपराध और जातिवाद से मुक्त रखने की ज़िद में अखिलेश ने बहुत से अपनों को बुरी तरह नाराज़ किया. एक समय मुलायम सिंह यादव को भी. लेकिन दरअसल यह राजनीति में शराफ़त की बहाली की वही कोशिश थी जो एक स्तर पर राहुल गांधी करते दिखाई पड़ते हैं और जिसका कुछ स्पर्श बिहार में तेजस्वी में दिखता है.

रहा समाजवादी विरासत का सवाल- तो यह सच है कि 2024 के नाम पर जो मोर्चे बनाए जा रहे हैं, उनके पीछे वैचारिक दृष्टि समाजवाद की है और सारी कोशिश उन दलों की ओर से है जिनका एक समाजवादी अतीत है. आरजेडी, जेडीयू, सपा- ये सब इसी अतीत की कोख से निकले हैं. मौजूदा दौर की घनघोर सांप्रदायिक और बाज़ारवादी राजनीति के इस दौर को अगर कोई चुनौती दे सकता है तो वह यही राजनीति है. लेकिन ऐसी कोई उम्मीद पालते-पालते एक संशय हम सबको घेरता है. भारतीय मध्यवर्गीय घर और परिवार अब बुरी तरह टूटे हुए हैं, उनके भीतर जैसे एक ज़हर उतार दिया गया है, सांप्रदायिकता की विराट भगवा चादर तमाम नाकामियों को ढंक लेती है और विश्वशक्ति होने का जुनूनी राष्ट्रवाद तमाम मुद्दों पर भारी पड़ता है. ऐसे में किसी समाजवादी सपने को बचाए रखना भी बड़ी बात है. मुलायम सिंह यादव की स्मृति इस सूखते हुए सपने को कुछ सींचने के भी काम आए तो यह बड़ी बात होगी.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com