नैतिकता, श्लीलता-अश्लीलता या सुरुचि की कसौटियां समय के साथ बदलती रहती हैं। जो चीज़ आज अशालीन जान पड़ती है, कल को स्वीकृत मान ली जाती है और कभी-कभी उसे सुरुचिपूर्ण होने का दर्जा भी मिल जाता है। नैतिकता के मानदंड भी बदलते रहते हैं। एक दौर में राज कपूर, देवानंद और दिलीप कुमार की फिल्में भी ‘लड़कों को बिगाड़ने वाली' मानी जाती थीं। बड़े-बूढ़े तो पूरी फिल्म संस्कृति को संदेह से और नाक-भौं सिकोड़ कर देखते थे। लड़के घरों से भाग कर फिल्में देखते थे। लेकिन दो-तीन दशक बाद वही फिल्में बहुत शिष्ट, शालीन और सुरुचिसंपन्न मानी जाने लगीं।
मगर श्लीलता और अश्लीलता की बहसें बनी रहीं। सत्तर के दशक में ‘सत्यम शिवम सुंदरम' या अस्सी के दशक में ‘राम तेरी गंगा मैली' और ‘इंसाफ़ का तराजू' जैसी फिल्में सामाजिक संवेदना पर चोट करती रहीं। अस्सी के दशक में ही आई फिल्म ‘विधाता' का गीत ‘सात सहेलियां खड़ी-खड़ी' श्लीलता और अश्लीलता की बहसों को मुंह चिढ़ाता रहा। नब्बे के दशक में ‘मोहरा' के गाने ‘तू चीज़ बड़ी है मस्त-मस्त' ने जैसे नायिका के वस्तुकरण पर- उसे ‘चीज़' मानने की प्रवृत्ति पर स्वीकृति की मुहर लगा दी। बेशक, तब भी इस गीत पर अश्लीलता के आरोप लगे थे और इन पंक्तियों के लेखक ने ‘नवभारत टाइम्स' में एक टिप्पणी भी लिखी थी।
और अब मौजूदा माहौल में श्लीलता-अश्लीलता की वे बहसें पुरानी और बेमानी जान पड़ती हैं। मामला मुन्नी की बदनामी और शीला की जवानी से आगे जा चुका है। जो लोग कल तक अपने मां-बाप से ऐसे गाने सुनने-गाने के लिए डांट सुना करते थे, वे अपने बच्चों को इनकी धुनों पर थिरकता देखकर खुश हैं। हमने स्कूली बच्चों को 'तू चीज़ बड़ी है मस्त-मस्त' पर थिरकते देखा है और शादियों में तमाम अभद्र शब्दावली वाले पंजाबी-भोजपुरी गीत भी बजते देखे हैं।
भारत में हुई ओटीटी क्रांति इस उन्मुक्तता का नया विस्तार है। इस ओटीटी क्रांति में उन्मुक्त दृश्य और अश्लील संवाद इतने आम हैं कि अब उन पर हैरत नहीं होती। गंदी-गंदी गालियों से भरी वेब सीरीज़ 'कूल' मानी जा रही हैं। जिन गालियों के उल्लेख मात्र से बच्चे थप्पड़ खा जाते थे, और जिन्हें सुन कर बड़ों के कान लाल हो जाते थे, वे सब अब खूब मजे में दुहराई जा रही हैं और शालीन घरों के ड्राइंग रूम में पैदा हुआ नया कला-बोध इन्हें सहज रूप से स्वीकार कर रहा है।
तो क्या हम मान लें कि जो पुराना भारत था वह अतिरिक्त संवेदनशील था और कुछ उन्मुक्त दृश्यों से उसके पांव थरथराने लगते थे या कुछ गालियां सुन कर उसकी भृकुटियां तन जाती थीं और उसके मुक़ाबले आज का भारत कहीं ज़्यादा बालिग़ है जिसकी नैतिक चेतना पर ऐसे सतही दृश्य और शब्द कोई खरोंच नहीं डाल पाते? वह बड़े मज़े में यह बदलता हुआ सामाजिक यथार्थ देख पाता है जिसमें बेडरूम के वर्जित माने जाने वाले दृश्य ज़रूरी होते हैं और सड़कों पर गालियां सहज-स्वाभाविक होती हैं?
सतह पर यही लगता है। लेकिन भारत ने नई संवेदना अर्जित की है या पुरानी संवेदना खो दी है? क्या पुराने गानों का अस्वीकार जितना बेतुका था, नए गानों की स्वीकृति उससे कम बेतुकी है? क्या इन कारोबारी फिल्मों और इनसे जुडे गानों का कोई बड़ा सांस्कृतिक मूल्य है?
दरअसल उदारीकरण और वैश्वीकरण के बाद एक उपभोक्तावादी सांस्कृतिक आंधी ने भारतीय घरों और समाजों को उनकी चूलों से लगभग उजाड़ दिया है। भारतीय मध्यवर्ग की- और खासकर हिंदी पट्टी की- सांस्कृतिक विपन्नता वैसे तो पुरानी रही है, लेकिन इस नए सांस्कृतिक हमले ने उसे बिल्कुल बदल डाला है। वह उसी मनोरंजन की आदत डाल रहा है जो उसे आसानी से सुलभ है। वह साहित्य-संस्कृति, कला और रंगमंच के विविध रूपों से अब लगभग पूरी तरह नाता तोड़ चुका है। अच्छा नृत्य-संगीत उसकी समझ से बाहर है। उसके सामने अब बहुत तेज़ गति से डाउनलोड होने वाले वीडियो हैं जिनमें उससे भी तेज़ गति से चलते गाने हैं जिनमें कटी-छंटी देह वाली आधी-अधूरी लड़कियां होती हैं जो फिल्मों या वेब सीरीज़ में आकर पूरे डायलॉग बोलने लगती हैं।
ऐसा नहीं कि इस पूरे दौर में जो कुछ हुआ है, वह नकारात्मक ही है। इस दौर में बहुत बेहतरीन हिंदी सिनेमा खड़ा हुआ है। कई प्यारी और विविधऱंगी फिल्में बनी हैं। फिर ओटीटी क्रांति ने उसके सामने विश्व का महानतम सिनेमा भी परोसा है जिसने भारतीय दर्शकों को परिपक्व भी बनाया है। लेकिन यह एक छोटे तबके तक सीमित है और इसका ज़्यादातर माल अपराध के रोमांच और सेक्स की सनसनी के बीच तैयार होता और बिकता है।
यह दरअसल नई संवेदना का अर्जन नहीं, यह नई बौद्धिकता की प्राप्ति नहीं, यह नई संवेदनशून्यता की स्थिति है। हम कुछ भी महसूस या अनुभव करने, उसे याद रखने की स्थिति में नहीं रह गए हैं। जो भी है वह दृश्य है जो रोमांच और सनसनी का झाग पैदा कर बदल जाना है। उसमें जो अदृश्य संभावना है हम उससे बेपरवाह हैं।
सच तो यह है कि हमारे आस्वाद की चेतना बदल या खो चुकी है। इसमें सोशल मीडिया की भी बड़ी भूमिका है। यूट्यूब पर बनने वाले और सोशल मीडिया पर ध्यान खींचने वाले तरह-तरह के अजीबोगरीब और फूहड़ वीडियो हिट हो रहे हैं। सूचना और संचार क्रांति के इस युग में सबकुछ पल भर के लिए है, ख़बरें चीख-चीख कर सनसनी पैदा करती हैं, वेब सीरीज़ हत्याओं के राज़ खोलते कट जाती है, सामाजिक माहौल और यथार्थ के चित्रण के नाम पर गाली-गलौज का जख़ीरा है। इन सबको जो सामाजिक स्वीकृति मिल रही है वह हर रोज़ होने वाली शादियों में बजने वाले फूहड़ गीतों को देखकर पहचानी जा सकती है।
लेकिन जिन लोगों को ये सारी चीज़ें आहत नहीं करतीं, उन्हें फिल्म ‘पठान' का गाना आहत कर रहा है। वह भी इसलिए आहत नहीं कर रहा कि उसमें दीपिका और शाह रुख़ ने एक फूहड़ या उन्मुक्त नृत्य किया है, वह इसलिए आहत कर रहा है कि इस गीत में लगातार परिधान बदलती दीपिका एक दृश्य में भगवा परिधान पहने दिखाई पड़ती है। यह भगवा परिधान उन्हें हिंदू धर्म का अपमान लग रहा है।
कुछ देर के लिए मान लेते हैं कि वाकई कुछ लोगों की आस्था इतनी पक्की हो सकती है कि वे एक अभिनेत्री को भगवा वस्त्र पहने नृत्य करते देख आहत हो सकते हैं। लेकिन फिर इस आस्था को हर रोज़ ऐसे न जाने कितने इम्तिहान देने होंगे। इस आस्था को उन साधु-संतों से टकराना होगा जो भगवा कपड़े पहनने के बावजूद बलात्कार के मामलों में पकड़े जाते हैं और उनके भक्तों से भी- जो तब भी अपने गुरुओं की आरती उतारते रहते हैं। इस आस्था को उन तमाम अधार्मिक कृत्यों से निबटना होगा जो भगवा वस्त्र धारण करने के बाद की जाती हैं। लेकिन ये लोग तो उन पुराने गीतों से भी निबटने को तैयार नहीं जहां दीपिका की तरह ही भगवा कपड़े पहने नायिकाएं नाच-गा रही हैं।
लेकिन दरअसल यह आस्था कच्ची है, बल्कि कृत्रिम है। यह सांप्रदायिक नफ़रत की ख़ाद से पैदा हुई है और इसके पीछे बस मुस्लिम घृणा का इकलौता एजेंडा है। इसका एक राजनीतिक पहलू भी हैं। जो केंद्र इसे हिंदूवादी राजनीति के विरुद्ध लगते हैं, वे भी इसे देश के दुश्मन दिखते हैं। इस ढंग से शाहरुख और दीपिका दोनों को इनके निशाने पर होना ही होना है। मध्य प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्र ने खुल कर कह ही दिया कि दीपिका पहले जेएनयू के आंदोलनकारियों के बीच जाने का गुनाह कर चुकी है। यह अनायास नहीं है कि इस आस्था का गुस्सा अमूमन उन फिल्मों पर फूटता रहा है जिसके निर्देशन या निर्माण से कोई मुस्लिम चेहरा जुड़ा हो या कोई ऐसा शख़्स हो जो इस सरकार का विरोधी हो।
सारे रंग ख़ूबसूरत होते हैं- सबका अपना चरित्र होता है जो आपस में घुलता-मिलता रहता है।
भगवा भी एक ख़ूबसूरत रंग है। उसमें न गहरे लाल वाली चुभन है न हल्के पीले वाली उदासी। वह एक खिलखिलाता हुआ रंग है- ऐसा रंग जिसमें साधु-भाव भी फबता है और शृंगार भी, ऐसा रंग जो वैराग्य भी जगाता है और अनुराग भी। यही वजह है कि फिल्मों में सभी रंगों की तरह उसका इस्तेमाल भी आम है। लेकिन उसे ‘पठान' का एक मामूली सा गीत अगर सस्ता बनाता है तो उस पर आस्था के बहाने पाबंदी लगाने की आक्रामक मांग डरावना बना डालती है। यह बदरंग आस्था है जिसका मुक़ाबला बेशर्म रंग से है।