भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) इधर अभद्र भाषा को लेकर कुछ ज़्यादा ही संवेदनशील दिखती है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने आज़ादी की लड़ाई में बीजेपी की भूमिका का सवाल उठाया। कहा कि आपके यहां से किसी ने शहादत नहीं दी- एक कुत्ता भी नहीं मरा। बस यह कुत्ता शब्द बीजेपी को लग गया। बाक़ी बातें छोड़ कर उसने इस कुत्ते की पूंछ पकड़ ली और उसके नेता खरगे से माफ़ी की मांग करने लगे।
क्या खरगे को कुत्ता शब्द इस्तेमाल नहीं करना चाहिए था? न करते तो अच्छा होता। कुत्तों को हम वैसे भी बहुत हिकारत से देखने लगे हैं। जबकि कुत्ते इंसान के सबसे वफ़ादार दोस्तों में रहे हैं। उनके दुम हिलाने के हज़ार मतलब होते होंगे, लेकिन हम एक ही समझते हैं।
बहरहाल, भारतीय राजनीति ने इस कुत्ता शब्द के और भी बुरे इस्तेमाल देखे हैं। 2014 से पहले प्रधानमंत्री पद की दौड़ में लगे तब के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से पूछा गया कि 2002 के गुजरात दंगों का दर्द उन्हें नहीं है? उन्होंने बहुत मासूमियत से जवाब दिया कि दर्द तो तब भी होता है जब गाड़ी के नीचे कोई पिल्ला आ जाता है। अगर प्रधानमंत्री मोदी की यह इंसानियत अभद्र नहीं थी तो खरगे की सियासत कैसे अभद्र हो गई?
दिलचस्प ये है कि मल्लिकार्जुन खरगे से माफ़ी की मांग करने वाली बीजेपी इससे भी अभद्र भाषा का इस्तेमाल करती नजर आई। केंद्र सरकार के संसदीय कार्य मंत्री प्रल्हाद जोशी ने मौजूदा कांग्रेस को इटैलियन कांग्रेस बता डाला, मल्लिकार्जुन खरगे को रबर स्टांप अध्यक्ष बता दिया। आखिर इस कांग्रेस को इटैलियन कांग्रेस कहने का अर्थ क्या है? क्या सोनिया गांधी के इतालवी अतीत को लेकर राजनीतिक टीका-टिप्पणी अभद्र नहीं है? 2014 में मोदी के आने से पहले इसी कांग्रेस ने दस साल देश की सत्ता संभाली और सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, मनरेगा और भूमि अधिग्रहण क़ानून जैसे ढेर सारे ऐसे कायदे दिए जिनकी कोई बराबरी नहीं।
वैसे अभद्र भाषा की इस होड़ में बीजेपी के साथ दूसरी तमाम पार्टियां शामिल हैं। दुर्भाग्य से ज़्यादातर ऐसी अभद्र भाषा के निशाने पर स्त्रियां होती हैं। पिछले कुछ वर्षों में इस देश की राजनीति में ‘कांग्रेस की विधवा', ‘पचास करोड़ की गर्लफ्रेंड', ‘शूर्पनखा जैसी हंसी' और ‘दीदी ओ दीदी' जैसे उद्गार उन कमलमुखों से निकले हैं जिनसे इनकी अपेक्षा सबसे कम होनी चाहिए थी। इसी तरह मायावती, जयाप्रदा, सुषमा स्वराज और स्मृति ईरानी पर दूसरे लोग अभद्र टिप्पणियां कर चुके हैं। जहां यह अभद्रता नहीं होती, वहां भी ऐसा हल्कापन होता है जिसका जवाब नहीं। कांग्रेस नेता अजय राय ने स्मृति ईरानी के अमेठी आने-जाने को 'लटका-झटका' बताया। ऐसा करके उन्होंने दरअसल अपने प्रति राय खराब कर ली। स्मृति ईरानी ख़ुद दूसरों को लेकर बहुत सख़्त भाषा इस्तेमाल करती रही हैं। और ऐसा करते हुए वे प्रशंसा कम, आलोचना ज़्यादा अर्जित करती रही हैं।लेकिन मामला अभद्र भाषा का नहीं है, अपनी राजनीति को संजीदगी से लेने का है। ऐसा प्रतीत होता है कि बीजेपी बस सत्ता को संजीदगी से लेती है, चुनाव को संजीदगी से लेती है, उसके बाद के दायित्वों को नहीं। लोकतांत्रिक संस्थाओं को भी वह गंभीरता से लेती नज़र नहीं आती- संसद की सर्वोच्चता का भी सम्मान नहीं करती।
अगर कर रही होती तो अलवर की एक रैली में दिए गए भाषण पर वह खरगे से माफ़ी मांगने की बात नहीं करती। खरगे का ‘कुत्ता बयान' जैसा भी हो, उनकी यह दलील सही है कि संसद के बाहर दिए गए बयान पर संसद के भीतर माफ़ी मांगने का औचित्य नहीं है। अगर बीजेपी खरगे को माफ़ी मांगने पर मजबूर करना चाहती है तो यह काम उसे संसद के बाहर करना होगा। और यह काम उसे आज़ादी की लड़ाई में अपने वैचारिक पुरखों की सकारात्मक भूमिका साबित करते हुए करना होगा। दरअसल इसी मोड़ पर बीजेपी दुविधा में पड़ती है। आज़ादी की लड़ाई के पन्ने खुलते हैं तो आरएसएस और हिंदू महासभा दोनों अलग-अलग ढंग से मुस्लिम लीग की तरह अंग्रेज़ों के काम आते दिखाई पड़ते हैं। यह नज़र आता है कि जालियांवाला बाग की गोलियां खाने से पहले अमृतसर की रामनवमी और बैशाखी के साथ हिंदू-मुस्लिम एकता के सूत्रों में बंधा जो बहुभाषिक, बहुसांस्कृतिक और बहुधार्मिक राष्ट्रवाद भारत में पैदा हुआ, बीजेपी की वैचारिकी उसकी गर्भ में ही हत्या कर देने पर तुली थी।
बहरहाल, विषय पर लौटें। राजनीति, लोकतांत्रिक संस्थाओं और ज़रूरी मुद्दों के प्रति वैसे तो पूरी भारतीय राजनीति में संजीदगी घटी है, लेकिन बीजेपी ने उनका जो शिगूफ़ाकरण किया है, वह कई मायनों में अनूठा है। ताज़ा मामला कोविड का है। कोविड के नए सिरे से फैलाव का अंदेशा बहुत गंभीर मसला है। इसको लेकर केंद्र सरकार ने बैठक भी की और राज्यों को निर्देश भी दिए। लेकिन लगे हाथ स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया ने एक चिट्ठी राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के नाम कर दी- कहा कि कोविड के प्रोटोकॉल पर अमल करें या फिर भारत जोड़ो यात्रा बंद करें।
ये चिट्ठी उस दिन लिखी गई जिस दिन भारत में कोरोना के कुल 132 नए मामले सामने आए हैं। यह ऐसा समय है जब दिल्ली हवाई अड्डे की भीड़ को लेकर केंद्र सरकार को बैठक करनी पड़ रही है। इसी समय बाजार-मॉल-सिनेमाघर सब लोगों से पटे पड़े हैं। दो वर्षों तक कोविड के साये में रहने के बाद खुली दुनिया कुछ ज़्यादा खिली दिख रही है। ठीक है कि इन सबके बावजूद कोविड की वापसी का अंदेशा बना हुआ है। लेकिन केंद्र सरकार को यह सारी भीड़ नहीं दिखी, राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा नज़र आई। जाहिर है, यह कोरोना के अंदेशे का राजनीतिक दुरुपयोग है- इस लिहाज से ज़्यादा अश्लील कि जब वाकई इस देश में कोरोना अपने चरम पर था तो मौजूदा सरकार के मंत्री राज्यों में चुनाव प्रचार कर रहे थे। जिन दिनों देश में रोज़ 4 लाख से ज़्यादा मामले आ रहे थे, उन्हीं दिनों प्रधानमंत्री बंगाल में रैली पर रैली कर रहे थे और वहां उमड़ने वाली भीड़ पर गदगद हो रहे थे। इन्हीं दिनों तमाम तरह के राजनीतिक आयोजनों पर सरकार की नज़र नहीं है। दिलचस्प है कि कोरोना पर केंद्र सरकार की बैठक के बाद पत्रकारों को संबोधित करने आए नीति आयोग के सदस्य वीके पॉल जिस तरह पत्रकारों से घिरे थे, वह कोरोना के प्रोटोकॉल का महाउल्लंघन था।
दरअसल ऐसा लगता है कि सरकार को हर जगह राजनीति दिखती है। वह कोरोना नहीं देखती, अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए कोरोना का इस्तेमाल देखती है। वह संसद में चीन पर चर्चा नहीं चाहती, क्योंकि इससे किसी महानायक का मिथक टूटने का डर लगता है, वह संसद में खरगे से ऐसे बयान पर माफ़ी चाहती है जो संसद में दिया ही नहीं गया।
ध्यान से देखें तो इन तमाम वर्षों में एक संस्था के रूप में हमारी संसद की सर्वोच्चता भी प्रश्नांकित की जा रही है। कभी अरुण जेटली ने कहा था कि संसद को चलने न देना भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए ज़रूरी है। लेकिन संसद में अब काम कम होता है और विवाद ज़्यादा होते हैं, सत्रों की अवधि लगातार घट रही है, विधेयकों को बिना विचार-विमर्श पारित किया जा रहा है।
यह बिखरा हुआ लेख दरअसल भारतीय लोकतंत्र के क्षरण के बिखरे हुए चिह्नों को समेटने की कोशिश में लिखा गया है- कहीं अभद्र भाषा है तो कहीं अभद्र भाषा पर नक़ली चिंता है, कहीं बीमारी है तो कहीं बीमारी को लेकर नक़ली चिंता है। असली मुद्दे छूटे जा रहे हैं, नक़ली सवाल हमारे लोकतंत्र को नक़ली लोकतंत्र में बदलने पर आमादा हैं।