ये अर्थव्यवस्था है नादान! 

जिस डिजिटल लेनदेन का नगाड़ा अगले कई दिनों तक ज़ोर-शोर से बजाया जाता रहा और जिस तरह राष्ट्रीय मुद्रा में लेनदेन का लगभग अवमूल्यन करते हुए डिजिटल भुगतान को बढ़ावा दिया गया, उसका उस पहले भाषण में लेश मात्र भी ज़िक्र नहीं था.  

ये अर्थव्यवस्था है नादान! 

भारतीय अर्थव्यवस्था का ट्रेंड

नई दिल्ली:

2016 की नोटबंदी का फ़ैसला सीधे प्रधानमंत्री के स्तर पर किया गया था. उन्होंने नोटबंदी की घोषणा वाले भाषण में तीन दावे किए थे- इससे काला धन रुकेगा, इससे आतंकवाद रुकेगा, इससे नक्सलवाद रुकेगा. जिस डिजिटल लेनदेन का नगाड़ा अगले कई दिनों तक ज़ोर-शोर से बजाया जाता रहा और जिस तरह राष्ट्रीय मुद्रा में लेनदेन का लगभग अवमूल्यन करते हुए डिजिटल भुगतान को बढ़ावा दिया गया, उसका उस पहले भाषण में लेश मात्र भी ज़िक्र नहीं था.  

लेकिन अब बीजेपी के ही नेता सुशील मोदी नोटबंदी से जुड़े एक अहम फ़ैसले को बदलने की मांग कर रहे हैं. प्रधानमंत्री की घोषणा के साथ ही पांच सौ और एक हज़ार रुपये के नोट रातों-रात बंद करने के अलावा 2000 रुपये के नए नोट जारी किए गए थे. सुशील मोदी को अब ये दो हज़ार के नोट चुभ रहे हैं. उनका कहना है कि इसकी वजह से काले धन को छुपाना आसान हुआ है.

इस पर लौटेंगे, लेकिन पहले उस नोटबंदी के नतीजों को याद कर लें. इस नोटबंदी की मार सबसे ज़्यादा उन गरीबों ने झेली जिनके पास तब ऑनलाइन पेमेंट को लेकर न कोई जानकारी थी न इसका ज़रिया था. महीनों उनका काम छूटा रहा. कारखाने बंद रहे, उद्योग धंधे बुरी तरह लड़खड़ा गए. जो 2016-17 बाक़ी दुनिया के लिए आर्थिक पुनर्जीवन के साल थे, वह हमारे लिए अपने घुटने तोड़ लेने की स्मृति के साल होकर रह गए. सरकार की ओर से  लाई गई उस मंदी की मार से बहुत सारे लोग अब तक उबर नहीं पाए हैं क्योंकि इसके ढाई साल बाद कोरोना की सख़्तियां चली आईं जिनकी विकरालता के आगे नोटबंदी के दुष्प्रभाव मामूली जान पड़ने लगे. 

इस बात को लेकर कई सूचना-आवेदन दाख़िल किए गए कि नोटबंदी का फ़ैसला किसने किया था, इसके लिए कब-कब और किन-किन की बैठक हुई थी। जो जानकारी आई, वह चौंकाने वाली रही. इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट बताती है कि भारतीय रिज़र्व बैंक की 561वीं बैठक के मिनट्स के मुताबिक आरबीआई के निदेशकों ने इस क़दम की तारीफ़ की थी लेकिन ये भी कहा था कि इसका मौजूदा साल की विकास दर पर अल्पकालिक नकारात्मक असर पड़ेगा. लेकिन उन्होंने ज़्यादा अहम बात ये कही थी कि इस कदम से काले पैसे या जाली नोटों पर कोई बड़ा असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि क्योंकि काला पैसा रुपयों की शक्ल में कम छुपाया जाता है, वह ज़मीन-जायदाद या सोने के निवेश में ज़्यादा लगाया जाता है.  

मगर इससे भी बड़ी बात यह थी कि यह बैठक प्रधानमंत्री की घोषणा के कुछ ही घंटे पहले बुलाई गई थी और इसके मिनट्स पर पांच हफ़्ते बाद दस्तख़त हुए. साफ़ है कि नोटबंदी के फ़ैसले के पीछे वित्तीय विशेषज्ञों या जवाबदेह लोगों की राय नहीं थी, एक आधी-अधूरी राजनीतिक समझ थी कि बड़े नोट रद्द होंगे तो छुपा हुआ काला पैसा अपने-आप ख़त्म हो जाएगा. लेकिन यह बात समझ से परे है कि इस फ़ैसले की हड़बड़ी इतनी ज़्यादा क्यों थी कि इसके लिए सारी प्रक्रियाओं को ताक पर रख दिया गया?  

वैसे बड़े नोटों के रद्द होने के साथ छुपे हुए काले पैसे के भी बरबाद हो जाने की जो उम्मीद थी, वह भी पूरी नहीं हुई। पहले दावा किया जा रहा था कि करीब 3 लाख रुपये बैंकिंग सिस्टम से बाहर रह जाएंगे. लेकिन लगभग सारा का सारा रुपया बैंकिंग सिस्टम में लौट आया. क़रीब 10,000 करोड़ से कुछ ऊपर की रक़म बाहर रह गई. यह सारी रक़म भी ब्लैक मनी नहीं थी, इसमें बहुत सारे उन लोगों द्वारा घरों में जमा की गई ऐसी पूंजी भी शामिल थी जिसे वे किसी औपचारिक बचत व्यवस्था से बाहर रखते थे.  

यह सारा कुछ नए सिरे से याद करने की ज़रूरत इसलिए है कि अब पूरे सात साल बाद बीजेपी नेता सुशील मोदी अपील कर रहे हैं कि 2000 रुपये के नोट बंद कर दिए जाएं, क्योंकि इससे काला धन रखने वालों को सुविधा होती है. 2000 के नए नोट नोटबंदी के फ़ैसले की ही अगली कड़ी थे और बहुत लोग हैरान थे कि एक हज़ार के नोटों से डरी हुई या परेशान सरकार अब दो हज़ार के नोट क्यों लेकर आ रही है.

लेकिन मामला नोटबंदी के प्रभाव या दुष्प्रभाव का नहीं है- वह तो हम झेल ही चुके हैं, बेशक, इसकी प्रक्रियाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होगी, क्योंकि इससे आने वाले दिनों की नज़ीर भी बनती है, लेकिन असली बात बहुत अहम मामलों में सरकार का फ़ौरी या लोकप्रियतावादी रवैया है. अर्थव्यवस्था जैसे गंभीर मामले में ऐसे फौरी रवैये से आप काम नहीं चला सकते। अर्थव्यवस्था पर गंभीरता से काम न करने के नतीजे हमने हाल-हाल तक भुगते हैं. कोविड काल की शुरुआत में प्रधानमंत्री के संबोधन के साथ ही दो भारत दिखाई पड़ गए- एक भारत देर रात तक अपने पांच सौ और हज़ार के नोटों से देश की सारी दुकानों पर पड़ा सामान ख़रीद लेने पर आमादा था और दूसरा भारत अगली सुबह अपने घर और रोज़गार खोकर सैकड़ों मील दूर अपने गांव-घर लौटने को मजबूर सड़क पर था.  

अर्थव्यवस्था की इस फांक को आप जीडीपी के आंकड़ों से नहीं समझ सकते. जीडीपी हमेशा खुशहाली का सूचकांक नहीं होती. वह बहुत सारे सच छुपाती भी है. डेविड पिलिंग अपनी मशहूर किताब ‘द ग्रोथ डिल्यूज़न' में बताते हैं कि दूसरे विश्वयुद्ध ने दुनिया को दो चीज़ें दीं- ऐटम बम और जीडीपी की अवधारणा. संभव हो, यह अतिरेकी विचार लग रहा हो, लेकिन इसमें शक नहीं कि जीडीपी उपभोग आधारित अर्थव्यवस्था का इस तरह महिमामंडन करती है कि उसके सारे नकारात्मक पहलू छुप जाते हैं. आप पेड़ काट कर भी जीडीपी बढ़ाते हैं और नया पेड़ लगा कर भी. आप सिगरेट पीते हैं तो उससे भी जीडीपी बढ़ती है और फिर कैंसर का इलाज कराते हैं तो उससे भी बढ़ती है. आप पैदल दो किलोमीटर चलते हैं तो जीडीपी में योगदान नहीं करते, आप कार से पेट्रोल जलाते हुए जाते हैं तो जीडीपी बढ़ाते हैं. आप हवा के लिए खिड़की खोल लेते हैं तो यह जीडीपी के ख़िलाफ़ है जबकि एसी चलाते हैं तो जीडीपी बढ़ाते हैं. 

यह विषयांतर लग रहा है मगर है नहीं। भारत में अर्थव्यवस्थाएं दो तरह से चलाई जा रही हैं- एक तरफ़ धन्ना सेठों को सारी छूट हासिल है कि वे बैंकों से लोन लें, उद्योग लगाएं और फिर फ़रार हो जाएं। कल ही वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने संसद में जानकारी दी है कि पिछले पांच वर्षों में सरकारी बैंकों को 10 लाख करोड़ से ज़्यादा का क़र्ज़ बट्टे-खाते में डालना पड़ा- यानी वह डूब गया। यह उस दौर में हुआ जब सरकार बैंकिंग सुधार के लिए न जाने कितने क़दम उठा चुकी है। वित्त मंत्री ने ये भी बताया कि इसके लिए तीन हज़ार से ज़्यादा बैंक अफ़सरों को ज़िम्मेदार ठहराया गया है और उन पर कार्रवाई भी हुई है। दूसरी तरफ़ तमाम सरकारें कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर इस तरह रेवड़ियां बांट रही हैं कि उनका ख़ज़ाना ख़ाली हुआ जा रहा है।  

दरअसल विकास और कल्याण दोनों इस देश में आर्थिक या सामाजिक पद नहीं रहे, बिल्कुल राजनीतिक शब्द हैं। आप विकास की इस अवधारणा के ख़िलाफ़ बोलते हैं तो आपको देशविरोधी माना जा सकता है। अगर आप कल्याण के इस रूप पर सवाल उठाते हैं तो आपको जनविरोधी करार दिया जा सकता है। लोगों की भावनाएं इससे भ़डकने लगती हैं। 

अर्थव्यवस्था के साथ भावनाओं के इस घालमेल का ताज़ा उदाहरण विपक्ष की यह मांग है कि भारत चीन के साथ कारोबार बंद करे। दिलचस्प यह है कि गलवान की खूनी झड़प के बाद यह मांग बीजेपी समर्थित संगठनों ने की थी और चीनी वस्तुओं के बहिष्कार का नारा दिया था। लेकिन इन दो-ढाई वर्षों में दोनों देशों का कारोबार बढ़ता गया- वस्तुतः चीन से हमारा आयात बढ़ता गया, चीन को हमारा निर्यात मामूली ही रहा। यानी आर्थिक मामलों में हम अब तक दुनिया के कई देशों की तरह चीन पर निर्भर हैं। बेशक, यह निर्भरता घटाने की ज़रूरत है। लेकिन यह काम चीनी वस्तुओं के बहिष्कार के नारे से नहीं होगा, चीन के साथ कारोबार रोक कर नहीं होगा, अपनी उत्पादकता बढ़ा कर होगा, अपनी उद्यमिता और अपने श्रम के पूरे इस्तेमाल से होगा।  

नोटबंदी जैसा झटपट लिया गया फ़ैसला लेकिन इस उद्यमिता और श्रम को चोट पहुंचाता है, कोविड में मजदूरों का खयाल रखे बिना लॉकडाउन के एलान से वे सड़क पर आ जाते हैं। अर्थव्यवस्था को निश्चय ही राजनीतिक निर्देशों के अधीन होना चाहिए, लेकिन राजनीतिक निर्देशों को वोटलिप्सा के अधीन नहीं होना चाहिए। फिर अर्थव्यवस्था को कुछ और गंभीरता से लेना चाहिए, तात्कालिक टकरावों के दबाव में उसके दूरगामी परिणामों की अनदेखी नहीं करनी चाहिए।  

1992 में बिल क्लिंटन के रणनीतिकारों में एक जेम्स कारविल ने ‘इट इज़ इकोनॉमी स्टुपिड' जैसा मुहावरा दिया था। उसके बाद से ये तमाम नेताओं के संदर्भ में दुहराया जाता है।  

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सुशील मोदी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सात साल पुराने फ़ैसले से जुड़े एक आयाम पर सवाल खड़े करते हुए दरअसल इसी कथन की याद दिलाई है- ‘ये अर्थव्यवस्था है नादान!'