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ब्लॉग राइटर
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ऑपरेशन 'मगरमच्छ' : वीर राजा की कहानी, इसे नोटबंदी से न जोड़ें
'राजा को लग रहा था कि ऐसा कोई काम किया जाए, जिससे वह इतिहास के आंगन का बरगद बन जाएं, और उनके विरोधी सूरन की तरह धरती में समा जाएं. आखिर वह दिन आ ही गया....'
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- दयाशंकर मिश्र
- नवंबर 30, 2016 16:19 pm IST
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अब शिवराज का क्या होगा...! कुछ नहीं...
प्रेमचंद अपनी महान कहानी 'पंच परमेश्वर' में कहते हैं, अपनी कामनाएं भले पूरी न हों, लेकिन दुश्मनों से बदला लेने का अवसर समय जरूर देता है...
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- नवंबर 22, 2016 12:56 pm IST
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'सर्जिकल स्ट्राइक' और सरकार के साथ लेकिन उन्माद और युद्ध के विरुद्ध ….
अखबार और मीडिया की गुरुवार और शुक्रवार की हेडलांइस से समाज के हितों का कोई लेना-देना नहीं है. यह बस एकाकी राग है, मूल विषयों से ध्यान भटकाने और उस जंग के उस बेसुरे राग छेड़ने का जिसका कोई लक्ष्य मनुष्य से जुड़ाव नहीं रखता. मनुष्यता और जंग परस्पर विरोधी स्वर हैं.
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- दयाशंकर मिश्र
- सितंबर 30, 2016 22:08 pm IST
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पत्नी नहीं, व्यवस्था की लाश ढो रहा है दाना माझी
हर छोड़ी बड़ी बात में निराश, मरने-मारने को आतुर शहरी समाज को दीना माझी से सब्र, प्रेम का सबक सीखना चाहिए, और जिद का भी. लाश को कंधे पर लादे यह जो दीना जा रहा है, वह अपनी जीवन संगिनी नहीं हमारी व्यवस्था की लाश ढो रहा है.
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- दयाशंकर मिश्र
- अगस्त 26, 2016 12:07 pm IST
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शोभा डे आप ट्विटर की गोल्ड मेडलिस्ट हैं, ओलिंपिक को छोड़ दें...
हम ओलिंपिक में खराब प्रदर्शन इसलिए नहीं करते, क्योंकि हमारे खिलाड़ियों में दमखम की कमी है. बल्कि इसलिए क्योंकि हम उन्हें वह माहौल और प्रशिक्षण ही नहीं दे पाते जो मिलना चाहिए. सोमवार को ही NDTV की एक रिपोर्ट में यह दिखाया गया था कि झारखंड में निशानेबाज कैसे ट्रेनिंग हासिल करते हैं.
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- दयाशंकर मिश्र
- अगस्त 22, 2016 13:03 pm IST
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आपबीती : किन्नर का हमला और छोटे-छोटे सवाल
आज सुबह की शुरुआत बेहद खौफनाक रही. मैंने अब तक कभी किसी अप्रत्याशित, सीधी हिंसा का सामना नहीं किया था. तब भी नहीं जब कोई एक दशक पहले मैं 'अशांत' जम्मू-कश्मीर में काम कर रहा था और अक्सर देर रात पैदल या दुपहिया पर घर लौटता था.
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- दयाशंकर मिश्र
- अगस्त 22, 2016 13:02 pm IST
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सिंधु की जीत से लड़कियों के लिए 'बासी' रिवाज बदलेंगे!
सिंधु जीत गईं. अब फाइनल चाहे जो हो, वे भारतीय लड़कियां जो हमारे सड़े-गले रिवाजों और बासी विचारों की रोज भेंट चढ़ रही हैं, के लिए तो वह फाइनल में पहुंचते ही जीत गईं थीं. महिलाओं के लिए ‘कठिन’ जिस भारतीय समाज से सिंधु आती हैं, वहां से ओलिंपिक का सोना तो सपना ही लगता रहा है. हम मानें या न मानें, लेकिन हमारी बेटियों को हमारे ही देश में निचले दर्जे की नागरिकता हासिल है.
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- अगस्त 22, 2016 13:01 pm IST
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अच्छा हुआ श्लोक नहीं पूछे! वरना हम तुम्हें बचा नहीं पाते...
विजय ने कल रात कांपती आवाज में कहा था कि मुझे न तो श्लोक आते हैं और न ही कुरान की आयतें! मैं क्या करता, केटी क्या करता अगर वो श्लोक या कुरान की आयतों पर आमादा हो जाते..
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- दयाशंकर मिश्र
- जुलाई 06, 2016 19:15 pm IST
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सबसे भले नेहरू, कम से कम सबके काम तो आ रहे हैं !
नेहरू को समझना है तो उनके विरोधियों के पत्र व्यवहारों से समझिए. पटेल के साथ पत्र व्यवहार को पढि़ए और समझिए. दुर्भाग्य से अपने नायकों को जानने-बूझने के लिए पढ़ने के सिवा हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है और सोशल मीडिया, राष्ट्रप्रेम के रंग में रंगे 'देशप्रेमी' अध्ययन के अतिरिक्त सब कर सकते हैं...
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असम भाजपा को भारत माता का वरदान है...
भाजपा को असम में क्या मिला है, इसे केवल सीटों और बहुमत से नहीं समझा जा सकता है। इसे समझने के लिए असम से उत्तर भारत के उस ‘देश’ की ओर जाना होगा, जहां कुछ महीने पहले बेमेल गठबंधन ने उसे बुरी तरह से पटक दिया था।
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विजय माल्या और मुल्क पर सवार इल्लियां...
यह विजय माल्या का बड़प्पन ही कहा जाएगा कि उन्होंने अब तक ‘जीप पर सवार इल्लियां’ पर प्रतिबंध की मांग नहीं की है, जबकि शरद जोशी ने कई बरस पहले ही उन पर शब्दबाण चलाए थे। हो सकता है माल्या इसका कॉपीराइट लेकर पूरा स्टॉक ही अपने साथ लंदन ले गए हों, ताकि...
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बस्तर ही नहीं, समय के हिंसक होने की दास्तां है, ‘लाल लकीर’
'लाल लकीर'। इसे पूरा करने और इसके बारे में लिखने के बीच खासा अंतर है। इसकी वजह बस इतनी है कि लेखक ने बस्तर के बहाने देश के बड़े हिस्से की पीड़ा का जिक्र कागज के पन्नों पर जाहिर किया है, वह पूरी कहानी आपके दिमाग में उतारने के साथ उतना ही गहरा ‘शॉक’ भी देता है।
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जेएनयू : कन्हैया को क्यों विक्रम का शुक्रगुजार होना चाहिए...
आपको ऐसा नहीं लगता कि एक समाज के रूप में पिछले कुछ सालों में हम हिंसक हेडलाइंस के भूखे होते जा रहे हैं. ज़रा सा भी सब्र नहीं बस तुरत-फुरत न्याय की जिद और 'मार दो, इसे मार दो' के नारे. सोशल मीडिया में कुछ भी कहने और हिट हो जाने की थ्योरी ने हमारे घर परिवार से लेकर हमारे ‘अवचेतन’ तक पर असर डाला है...
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दादा जी को 'अनाथालय' भेज कर इंटरनेट देना है, गुड आइडिया !
उम्मीद है कि आपने भी एक बड़ी मोबाइल कंपनी का वह विज्ञापन जरूर देखा होगा, जिसमें कंपनी इंटरनेट से दूसरों की मदद करने के दावे कर रही है. इमोशनल तरीके से कर रही है.कुछ विज्ञापन तो प्रभाव पैदा करने वाले भी हैं. इसलिए कंपनी और ज्यादा प्रभाव पैदा करने के फेर में भावुक हो गई.
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अभी नहीं तो कभी नहीं, कोहली एंड कंपनी को समझना होगा
हमें यह याद रखना होगा कि सचिन, सौरव, राहुल और वीवीएस लक्ष्मण के दौर में भी हम विदेशों में खासकर भारतीय उपमहादवीप के बाहर 'अच्छा' और दिल जीतने वाला क्रिकेट खेलते रहे और बस एक मैच जीतते रहे। उससे ज्यादा नहीं।
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क्यों चुप हैं, सुषमा-जया- रेखा और हेमा? डिंपल पूछेंगी, पापा ऐसा क्यों कहते हैं...
क्या डिंपल यादव में आयशा टाकिया जितनी हिम्मत भी नहीं है? निश्चित रूप से नहीं। हमें याद होना चाहिए कि सुपरिचत अभिनेत्री आयशा ने अपने पति के पिता और सपा के ही नेता अबू आजमी के महिला विरोधी बयान की सरेआम निंदा की थी...
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दयाशंकर मिश्र का ब्लॉग : प्रेमचंद की याद में हामिद का टूटा हुआ चिमटा
आज हिंदी कहानी के युगपुरुष की 135वीं जयंती पर दयाशंकर मिश्र उनके मासूम पात्र को नए जमाने में रखकर जो फैंटेसी गढ़ रहे हैं, उसमें गरीबी से जीता हामिद सांप्रदायिकता से पस्तहाल नजर आता है...
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अलविदा कलाम! हम तुम्हें भी जल्दी ही भूल जाएंगे...
किसी ने कहा वह जनता के राष्ट्रपति थे। किसी ने कहा वह बच्चों के राष्ट्रपति थे। सारी पार्टियों के नेताओं ने कहा, वह हमारे अजीज राष्ट्रपति थे। दोस्त थे, बेहद शानदार इंसान थे। कोई यहां तक कह गया कि वे तो हमारे बनाए राष्ट्रपति थे। सबने याद किया! लेकिन कलाम चाहते क्या थे?