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अपने लिए सुशील, सर्वगुणी बहू खोजने वाले सास-ससुर और उनका मरियल और दकियानूसी बेटा कहेगा, ‘आप शादी के बाद भी खेलोगी? टूर करोगी तो परिवार कैसे चलेगा? और पैसे मायके कब तक भेजोगी...?’ ऐसे में दूसरी सिंधु कहां से आएंगी. अगले ओलिंपिक में बस एक और अधिक से अधिक दो... उससे आगे क्या? मोदी सरकार के प्री-सरकार भाषणों और वादों से हमें आशा थी कि वह खिलाड़ियों की परेशानियों को कम करने के लिए कुछ करेगी. लेकिन सिस्टम सुधरने की जगह माइनस में चला गया. नरसिंह यादव से बड़ी इसकी मिसाल क्या होगी. नाडा नौटंकी बन गया और साई का सेंटर अपने न्यूनतम स्तर को पार कर गया. इसका सीधा असर पदक तालिका पर दिख गया. खिलाड़ियों को सेल्फी के लिए मजबूर करते खेलमंत्री और रियो में खिलाड़ियों के लिए जी का जंजाल बने सरकारी अमले ने मनोबल घटाने का काम किया. खिलाड़ी इकोनॉमी में सफर करते हुए ‘सफर’ कर रहे हैं और सरकारी मेहमान बिजनेस क्लास में मौज कर रहे हैं... क्या यही बदला सरकार बदलने से? यानी सरकार बदलने से कुछ नहीं बदलता. और समाज, वह तो उसी जगह से रेंग रहा है जहां उसे ईश्वरचंद विद्यासागर और राजा राममोहन राय छोड़कर गए थे. समाज ने अपनी भाषा और मुहावरे जरूर बदले, लेकिन नीयत नहीं. ऐसे में तो करोड़ों में से एक ही सिंधु आएगी, उससे ज्यादा नहीं. हम शताब्दी प्रतिघंटा की रफ्तार से बदल रहे हैं. ऐसी गति से हम ऐसे ही बदलेंगे.
सिंधु का सिल्वर मेडल उसकी अपनी जिद और गोपीचंद जैसे सख्त कोच के संयुक्त सपने का सच होना है. गोपीचंद इस देश के खिलाड़ियों का रोल मॉडल नहीं बन सके, यह हमारा दुर्भाग्य था. गोपीचंद जिन कंपनियों को न कहते हैं, वह क्रिकेट सितारों के घर जाकर बैठ गईं और क्रिकेटर ख्यातियों के चांद बनकर चमकने लगे. क्रिकेट में संयोगवश विश्व कप आया, तो कंपनियां आईं और वह आ गईं तो पैसा आ गया. पैसा आया तो क्रिकेट जुनून की तरह देशभर में छा गया. वैसे भी क्रिकेट को मैं बैडमिंटन, कुश्ती, टेनिस जैसे खेलों की तुलना में सरल खेल मानता हूं. जहां दुनियाभर में एक से एक औसत खिलाड़ियों ने संयोगवश वह कामयाबी हासिल कर ली, जो कुश्ती, बैडमिंटन या टेनिस, हॉकी जैसे खेलों में संभव नहीं थी.
ऐसे में पेप्सी जैसे ऑफर ठुकराने वाले को गोपी को तो नेपथ्य में जाना ही था. लेकिन गोपी जिस तरह से लौटकर आए हैं, उसकी हर बार और बार-बार सराहना होनी चाहिए. साइना से कोई शिकायत नहीं, लेकिन इतनी शिकायत तो बनती ही है कि काश! उनके पास गोपी होते, तो कहानी और बेहतर होती. उम्मीद है, गोपी को जो सम्मान और रोल मॉडल होने का गौरव नहीं मिला, सिंधु को मिलेगा. शायद इसलिए, क्योंकि हमारा समाज ‘माथा देखकर तिलक’ करने के लिए बदनाम है. ऊपर से इन खेलों में कहीं अधिक संसाधनों और विशेषज्ञता की जरूरत होती है. इसके लिए भारत में न तो कोई भी सिस्टम है और न ही संसाधन. यहां तो ओलिंपिक विजेताओं को भी सरकारी घोषणाओं के बाद भी समय पर मदद नहीं मिलती. आए दिन हम पढ़ते हैं कि ओलिंपिक विजेता का परिवार इस हाल में कहीं मिला, या उसका परिवार ऐसा है. अभी चंद रोज पहले ही हमने देखा कि रांची में निशानेबाज कैसे निशाने का अभ्यास कर रहे हैं और कैसे महाराष्ट्र में तैराक बांध में तैराकी का अभ्यास कर रहे हैं...
हमें उम्मीद करनी चाहिए कि हमारी यह ओलिंपिक विजेता कामयाबी के साथ उस रास्ते को भी चुनें, जिसे गोपीचंद ने चुना था. जो समाजों के साथ और उनके लिए कुछ करने से होकर जाता है, जिन जड़ों से हम आते हैं.
खबू सारी बधाई जो किसी सोने की मोहताज नहीं है...
दयाशंकर मिश्र khabar.ndtv.com के संपादक हैं.
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