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This Article is From Jul 31, 2015

दयाशंकर मिश्र का ब्लॉग : प्रेमचंद की याद में हामिद का टूटा हुआ चिमटा

Dayashankar Mishra
  • Blogs,
  • Updated:
    जुलाई 31, 2015 19:14 pm IST
    • Published On जुलाई 31, 2015 15:08 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 31, 2015 19:14 pm IST
एक सदी पहले जब मुंशी प्रेमचंद का नन्हा किरदार हामिद ‘ईदगाह’ जा रहा था, तो उसके जीवन की सबसे बड़ी विडंबना गरीबी और यतीम होना थी, लेकिन उसके बालसुलभ हौसले के दीये को मुंशी जी ने गुरबत की आंधी में बुझने नहीं दिया। आज हिंदी कहानी के युगपुरुष की 135वीं जयंती पर दयाशंकर मिश्र उनके मासूम पात्र को नए जमाने में रखकर जो फैंटेसी गढ़ रहे हैं, उसमें गरीबी से जीता हामिद सांप्रदायिकता से पस्तहाल नजर आता है...

हामिद का टूटा हुआ चिमटा

कौन हामिद! अरे भूल गए। वही अपना हामिद। प्रेमचंद का मासूम नायक। जो ईदगाह के मेले में अपने लिए सेवइयां और खिलौने खरीदने के पैसे से दादी के लिए चिमटा खरीद लाया था।

अपनी दादी के लिए जज्‍बाती यह बच्‍चा रातों-रात मशहूर हो गया, लेकिन जब वह बड़ा हुआ तो लाख कोशिशों के बाद भी शहर में पांव जमाने का हुनर नहीं खरीद पाया।  

आखिरकार हामिद बूढ़ी दादी को लेकर हमीरपुर से मुजफ्फरनगर चला गया। वहां फुगाना में बस गया। निकाह हो गया। बच्चे हो गए। छोटी सी दुकान खोल ली। खैरियत से गुजारा होने लगा। सीधा-सादा तो वह था ही। जितना मिलता उसे ही खुदा की बख्शीश मान लेता।  

प्रेमचंद ने हामिद को कम उम्र में ही हीरो बना दिया था। उसके किस्‍से गांव–गांव पहुंच गए थे। इससे लोगों के दिल में हामिद के लिए एक इज्‍ज्‍त थी। हालांकि दूसरी कौमों में हामिद को लेकर कुछ तल्‍खी भी थी। उनका मानना था कि दादी के लिए चिमटे तो कई बच्चे लेकर आए थे, लेकिन प्रेमचंद ने जानबूझकर एक मुस्लिम लड़के को हीरो बना दिया।

लेकिन ये बातें गुजरे वक्‍त में हामिद के बचपन की तरह गुजर गईं थीं। हामिद हिंदुस्‍तानी जिंदगी बसर कर रहा था। उसके गांव फुगाना में खास मजहबी फर्क नहीं था। दूसरे मुसलमानों की तरह यह उसके लिए बड़ी नेमत थी। यह अलग बात है कि देशप्रेमी होने का जो ठप्पा धर्म विशेष लोगों के सीने पर चस्पा है, वह तमगा आज भी इस कौम के नसीब में नहीं। 'भारत माता की जय' और 'वंदे मातरम' जैसे नारों के जयघोष में फेफड़े की पूरी हवा झोंकने के बाद भी हामिद के बच्‍चों से कहा जाता, ज़रा दम लगाओ मियां। ये वतन अपना ही है।

देश के सीनियर मोस्‍ट पीएम इन वेटिंग की रिंगटोन ‘कसम राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे…’ मोबाइल आने से पहले आ गई थी। अयोध्या में ‘भजन’ के लिए समतल मैदान बनाने का अटल स्‍वर हामिद ने मुद्दतों पहले सुना था, मगर सेक्‍युलर मुखौटे का राजधर्म अलाप उसे ज्‍यादा याद रहता। बाबरी ढहने और गोधरा जलने से उसके भरोसे को कुछ खरोंचें तो आईं थी, लेकिन हिफाजत के यकीन का ढांचा अब भी खड़ा था।

उसे गांव वालों की राम-राम सच्‍ची दुआ सलाम लगती। मियां सब खैरियत है, के रिवाजी सवाल उसे गांव वालों के खैरख्‍वाह होने का सकून देते। कमोबेश अब तक सब ठीक ठाक चल रहा था। शायद इसलिए कि गांव तक खबरों का असर आने में वक्त लगता था। इस बार ऐसा नहीं है। जोशीले भाषण पल भर में तहसीलों, चौपालों तक पहुंच रहे हैं। पंचायतें लग रही हैं। मगर जुम्‍मन मियां की अलग और अलगू चैाधरी की अलग पंचायतें। वीडियो और फेसबुक वे भी दिखा रहे हैं, जो हुए ही नहीं।  

फुगाना से बाहर देश का मिजाज सियासी सुरूर में डूबा है। देश में प्रधानमंत्री पद के लिए अचानक से काबिल उम्मीदवार सामने आने लगे। ग्‍लोबल कैंडिडेट। इटली का नाम तो खुलेआम लिया जाता मगर लुई चौदहवां की जुबान फ्रेंच है, इस पर कोई गौर नहीं। ‘मैं ही राज्‍य हूं’ से थोड़ा आगे। गुजरात जीतेगा। भारत जीतेगा। थोड़ी अमेरिकी ठसक भी ‘वी कैन’। सुशासन नए-नए रूप धरकर आने लगा। हिंदुत्व ने ड्रेस कोड बदल लिया। वह सूट-बूट पहनकर रोज ट्विटर पर ट्रेंड कर रहा है।

देश खुश है कि पप्‍पू और फेंकू जैसे देसी नाम जुबान पर हैं। भाषणों में नए इतिहास, नए सत्य सामने आ रहे। गांधी को राजनीति राजघाट से उठा लाई है। लुई ने तो उनसे खासी प्रेरणा ली थी। उसने गुजरात में ‘सत्य के नए प्रयोग’  किए। सेक्युलरिज्म के पप्‍पू ने इसका पुरजोर जवाब दिया। उसने अपने पाठ अच्छे से रट लिए। वह आस्‍तीन चढ़ा-चढ़ाकर जोशीले भाषण देने लगा। मार्क्स मंडली गांधी के तीसरे बंदर को फॉलो कर रही थी, कान बंद किए। 'अपना काम बनता तो भाड़ में जाए जनता' जैसे गीत गली-चौराहों पर गूंजने लगे। इसे सारी पार्टियों ने एकमत से जनगीत स्‍वीकार कर लिया।  

‘सत्य के नए प्रयोग’ को नेहरू और चरण सिंह के प्रदेश में आजमाना था। अचानक मुजफ्फरनगर में जमीन तैयार मिल गई। प्रयोग शुरू हो गए। कई गांवों में मस्जिदों को ‘समतल’ कर दिया गया। कई घरों को रातोंरात बारात घर और चौपाल बना दिया गया। लेकिन कुछ लोगों को इतने से भी डर नहीं लगा।

तो अब क्या हो। सुशासन के नारों का सब्र डोल गया। सुशासन हामिद के घर में घुस गया। दीवारें तो दस एक साल पहले ही दरक चुकीं थीं, इस बार छत पर जोर पड़ी तो संभल नहीं पाईं। हामिद का घर और घरवाले सीधे आसमान के नीचे आ गए। धरती पर गिरी चीज पर सबका हक होता है। सो सबने अपनी हसरतें पूरी कर लीं। घर लूटकर, घरवालों को खसोटकर। सत्‍य के नए प्रयोग को ठंडक मिल चुकी थी। फुगाना दौरागाह बन गया। सरकार ने मुआवजे का एलान कर ठंड रख ली। और ठंड ने पचीसियों छोटे-छोटे हामिद को मौत बख्शी। हिफाजत के फर्ज का गबन हो चुका था।

वैसे इसकी उम्‍मीद नहीं थी। किसी को नहीं। क्‍योंकि इस सूबे में कुछ साल पहले एक नौजवान जब साइकिल पर चलकर आया था, तो जनता ने हाथी से उतरकर उसे गले से लगाया था। हामिद भी उन्‍हीं में से एक था। खैर, अब तो खैरियत बची नहीं थी, इंसाफ की बारी थी। और इंसाफ देता कौन है, कानून। मगर कानून सबूत मांगता है। घर, इज्‍जत, भरोसा सबकुछ तो जलकर खाक हो गया था हामिद का। वह सबूत कहां से लाता। फि‍र भी वह गया था। कानून के पास।

लेकिन कानून ने कहा, उसका चश्मा इत्‍तेफाकन टूट गया है। अब कानून को कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था। ठंड में मरते बच्चे। बेआबरु औरतें। जले घर। टूटी मस्जिदें। कुछ भी नहीं।

अपने पड़ोसियों से जख्म पाने वाले हामिद हर बंदे को पहचानता था। क्योंकि ये लोग तो वही लोग थे, जो हामिद से चिमटे, अंडे और शक्कर लेते थे। नकद कम, उधारी ज्यादा। जो अब कभी हामिद नहीं मांग पाएगा। इनके खेत में ही हामिद के बच्चे और पोते गन्ना उगाते या चीनी मिल में काम करते। शर्तिया कोई भी आदमी बाहरी नहीं था। क्‍योंकि जब हामिद के घर में बच्चियों, औरतों की इज्जत लूटी जा रही थी तो वे सबसे नाम लेकर …  भाईजान– भाईजान कहकर खुद को बख्शे जाने की मिन्‍नतें कर रही थीं, लेकिन उनके मंसूबे लोहे से बने थे और मुलायम होने को तैयार ही नहीं थे।

अब हामिद अपना सबकुछ गंवा चुका है। उधर दिल्ली में किसी ने कहा, लश्कर के लोग हामिद से बात करते देखे गए हैं और उसके पाकिस्तानी होने के सबूत हैं। यह सच भी हो सकता है, क्योंकि न तो हामिद के पास आधार कार्ड है, न पैन कार्ड। उसका राशनकार्ड, वोटर कार्ड सुशासन और साइकिल वाले लोग अपने साथ ले गए। तो हामिद हिंदुस्‍तानी कैसे हो सकता है?

हामिद के पास सिर्फ उसका नाम बचा था। उसका दिमाग काम कर गया। उसे तो सब जानते हैं। वह अब डायरेक्‍ट प्रधानमंत्री से बात करेगा। लेकिन मुश्किल ये थी कि प्रधानमंत्री तो कुछ बोलते ही नहीं, तो फि‍र वह बात कैसे करेगा। उसने सोचा भावी प्रधानमंत्रियों से बात की जाए।  

हामिद सबसे पहले 'पी' प्रधानमंत्री को फोन लगाता है, जिनको वोट देते-देते उसके हाथों की अंगुली गल गई है, वहां से जवाब आता है, मैं रिलक्टेंट नहीं, पर बिजी हूं।

उसके बाद 'एफ' प्रधानमंत्री को नंबर मिलाता है, लेकिन दिक्कत यह है कि उनके फोन पर केवल गुजरात के ही कॉल रिसीव होते हैं। हर मुद़दे पर बाएं चलने वालों का नंबर अक्सर बिजी रहता है, क्योंकि वह सांप्रदायिकता के विरोध में सेमिनार करते रहते हैं। देशभर में।

अब हामिद आम आदमी की तरफ बड़ी उम्मीद से आम लोगों के नए नेता को फोन लगाता है। उधर से विश्वासभरी आवाज आती है… यह आजादी की दूसरी लड़ाई है। हमारी हेल्पलाइन पर शिकायत दर्ज कराइए। समय आने पर आम लोगों की पार्टी संपर्क करेगी।

आखिर में वह सूबे के नेताजी को फोन लगाता है, लेकिन वह भी व्यस्त हैं। इस सर्दी तो पूरी सियासी जमात मुजफ्फरनगर ताप रही थी। इन्‍हीं रातों में समाजवाद मुंबई से आई गरम रजाइयों में लिपटा हुआ था और सारे फोन साइलेंट मोड पर थे।

हारकर हामिद पास में जल रहे अलाव में धीरे से फोन झोंक देता है और वहीं बगल में सिकुड़ जाता है, उसे झपकी आ जाती है। हामिद सपना देखता है। सपने में इधर कई महीनों से बूढ़े प्रेमचंद आने लगे थे, लेकिन हामिद उनकी बातें समझ नहीं पा रहा था। क्योंकि वह भी तो बूढ़ा हो गया था। कई बार एक ही उम्र के लोगों के बीच भी ठीक संवाद नहीं हो पाता है। और खासकर जब दोनों बुजुर्ग हों, तो मुश्किल हो जाती है।

फि‍र प्रेमचंद की बातों पर तो इधर अनेक पढ़े-लिखे लोगों को भी शक होने लगा है। कोई कहता है कि वह दलितों का पक्ष ठीक से नहीं रख पाए तो कोई कह रहा है कि उन्होंने ब्राह्मणों, ठाकुरों के अत्याचारों का बचाव किया। और भी न जाने क्या-क्या। सो लगता है कि इन बातों का कुछ असर हामिद पर भी होने लगा था। अखबार तो वह पढ़ता ही था।

खैर प्रेमचंद हामिद से इतना ही कहना चाह रहे थे कि यहां से घरबार बेचकर कहीं दूसरी जगह चले जाओ। हामिद धीरे से पूछता, कहां चले जाएं। इस बात का प्रेमचंद के पास कोई जवाब नहीं था, सो वह गाली-गलौज पर उतर आते।
हामिद अक्सर बड़बड़ाता रहता है, वह क्या कहना चाहता है, न कह पाता है और न कोई समझ पाता है।

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