' हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत न हो पाऊं फिर भी विचार प्रकट करने के आपके अधिकार की रक्षा करूंगा ' – वाल्तेयर
हमें वर्तमान भारतीय राजनीति को दो हिस्सों में समझना चाहिए. एक प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह के कार्यकाल तक का और दूसरा उसके बाद का. इस नजरिए से हम न केवल राजनीति, बल्कि समाज और उसके भीतर घुमड़ रहे सारे संकेतों को समझ सकते हैं. यह दृष्टिकोण हमें उन सवालों को समझने में भी मदद कर सकता है, जिन्हें आज हम हिंसा, प्रोपेगेंडा और व्यक्ति केंद्रित राजनीति और कट्टरवाद के उभार के रूप में रेखांकित करते हैं. जब हम इस तरह से समाज में आ रहे बदलावों को देखते हैं तो मुझे सारा विमर्श ही बदला हुआ लगता है. इमरजेंसी के दिनों की मुझे याद नहीं, मैंने उसे केवल पढ़ा और सुना है, इसलिए हर बात में उसकी ओर जाना किसी और के आग में जलने पर उसकी जलन को महसूस करने जैसा ही है.
इसलिए मैं यह तो नहीं कहूंगा कि मैं इमरजेंसी जैसा कुछ मसहूस करता हूं, यह शायद थोड़ा ज्यादा हो, लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में डॉ. सिंह की सत्ता से विदाई के बाद मैंने कुछ लिखने या कहने से पहले वाल्तेयर के इस कथन को जितना याद किया है, उतना कभी किसी दूसरी चीज़ को नहीं किया. क्या, हमें अपनी बात कहने से डरना चाहिए, इसलिए कि वह कुछ या बहुत से लोगों को पसंद नहीं होगी. एकदम नहीं. अगर वह बहुत से लोगों को पसंद नहीं आएगी तो भी नहीं. न केवल पत्रकार बल्कि एक स्वतंत्र मनुष्य के रूप में भी नहीं.
मैं इस प्रश्न में जाना ही नहीं चाहता कि कन्हैया ने क्या कहा. उसने जो भी कहा, अपने विचार या दूसरों के प्रभाव में कहा. दूसरों के प्रभाव में इसलिए कह रहा हूं कि हममें से शायद ही किसी के मौलिक विचार होते हैं. हां, हम सब चीजों को उलटते-पलटते हुए, उनमें अपने अनुभव जोड़ते हुए, उनके नए और अनूठे होने के दावे के सहारे ही जीते हैं. लेकिन जिस सबसे अहम बात का हमें ख्याल रखना है कि कन्हैया है कौन! वह एक छात्र है. रिसर्च स्कॉलर. एक उम्मीद. हाईकोर्ट में सरकार ने ठीक ही कहा है कि यह सारा प्रकरण एक ‘यूथफुल एरर’ है.
आपको ऐसा नहीं लगता कि एक समाज के रूप में पिछले कुछ सालों में हम हिंसक हेडलाइंस के भूखे होते जा रहे हैं. ज़रा सा भी सब्र नहीं बस तुरत-फुरत न्याय की जिद और 'मार दो, इसे मार दो' के नारे. सोशल मीडिया में कुछ भी कहने और हिट हो जाने की थ्योरी ने हमारे घर परिवार से लेकर हमारे ‘अवचेतन’ तक पर असर डाला है. कहने से पहले सोचना नहीं. करने के पहले सोचना नहीं, बस किसी तरह से सबके बीच लोकप्रिय हो जाना. यह आक्रामकता हमें कहां ले जाएगी... दूसरों को सहन नहीं करना. सुनना नहीं. क्या कन्हैया पर इन सबका असर नहीं है. बस देख लेने की धमकी...खुद को प्रकट कर देने और रातोंरात स्टार बन जाने की चाह... क्या यही हमारा समाज और वह भारतीय संस्कृति है. जिसका अधिकांश भारतीय अपने भाषणों में सगर्व जिक्र करते हैं?
कन्हैया के बाद बात विक्रम चौहान की. कन्हैया को तो शुक्रगुजार होना चाहिए विक्रम का. इस कहानी में विक्रम बॉलीवुड की परंपरागत बेसिर पैर की फिल्मों के नायक की तरह प्रकट हुए. जो देशप्रेम की कथा में विलेन समझे जा रहे कन्हैया पर टूट पड़े. हो सकता है कि इस एक्शन ड्रामे के बिना कन्हैया स्लो-मोशन में रिहा हो जाते और कुछ बहसों के बाद वह जेएनयू की ओर लौट जाते. लेकिन भारतीय राजनीति इन दिनों बॉलीवुड की कहानी को दोहराती जा रही है. उनको भी जिनमें ग्रे शेड वाले किरदार अंत में 'जीत' हासिल कर लेते हैं या इन किरदारों को ही दर्शकों की तालियां नसीब होती हैं. वैसे तालियां अब सिनेमाघरों से उसी तरह गायब हो गई हैं, जैसे हमारी राजनीति से ‘विवेक’. कहीं ऐसा तो नहीं कि बेतहाशा मीडिया कवरेज और सोशल मीडिया के आभामंडल ने युवाओं को सुर्खियां बटोरने का मौका उपलब्ध करा दिया है फिर भले ही यह 'निगेटिव' कारण से क्यों न हो...
आइए, हम बात बात पर नेताओं को कोसने और सारा इल्जाम उन पर थोपने से आगे की ओर बढ़ें. क्योंकि यह कन्हैया और विक्रम से कहीं अधिक हमारे घर-समाज से जुड़ा प्रश्न है, उस हिंसा और प्रोपेगेंडा में अचानक धकेले जाने का है, जिसे अनजाने में हमने समाज में जगह दे दी. यह कतई अंतरराष्ट्रीय साजिश नहीं है, यकीन मानिए इसमें कोई अलगाववादी एजेंडा भी नहीं है, केवल ‘यूथफुल एरर’ है और कम से कम अपने साथियों और समाज के लिए थोड़ा आराम से बिना तनाव और देश की चिंता में डूबे संवाद और निर्णय करने की जरूरत है...
-दयाशंकर मिश्र khabar.ndtv.com के संपादक हैं
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This Article is From Feb 18, 2016
जेएनयू : कन्हैया को क्यों विक्रम का शुक्रगुजार होना चाहिए...
Dayashankar Mishra
- ब्लॉग,
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Updated:फ़रवरी 18, 2016 14:00 pm IST
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Published On फ़रवरी 18, 2016 11:51 am IST
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Last Updated On फ़रवरी 18, 2016 14:00 pm IST
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