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This Article is From Apr 05, 2016

बस्तर ही नहीं, समय के हिंसक होने की दास्तां है, ‘लाल लकीर’

Dayashankar Mishra
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 08, 2016 18:17 pm IST
    • Published On अप्रैल 05, 2016 13:40 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 08, 2016 18:17 pm IST
'लाल लकीर'। इसे पूरा करने और इसके बारे में लिखने के बीच खासा अंतर है। इसकी वजह बस इतनी है कि सुपरिचित पत्रकार हृदयेश जोशी ने बस्‍तर के बहाने देश के बड़े हिस्‍से का दर्द पन्‍नों पर जाहिर किया है, यह पूरी कहानी आपके दिमाग में उतारने के साथ उतना ही गहरा ‘शॉक’ भी देता है। अरे! हम इतनी साजिशों के हिस्‍सेदार हैं। संयोग से मैं इस किताब पर हुई पहली  चर्चा / बहस का भी हिस्‍सा था। जिसमें हमेशा की तरह वक्‍ता जमीनी हकीकत की जगह लंबी गप्पी शैली की रणनीति और नक्‍सलवाद के रोमांस और दार्शनिक पक्षों पर चिंतन करते रहे।

ऐसे अपढ़ समय में जहां बिना जाने ही ज्ञान के जयघोष की होड़ है,  झूठ के दावों का दंगल है, ‘लाल लकीर’ उम्‍मीद की तरह है। जो न केवल सत्ता के आतंक को बखूबी रेखांकित करती है, बल्कि हाशिये पर पड़े मनुष्यों के संघर्ष गाथा को भी प्रमुखता से उकेरती है। इसे पढ़ते हुए अनायास ही हम खुद को अखबारों की उन हिंसक हेडलाइंस के बीच धंसा हुआ पाते हैं, जिनमें बस एक ही पक्ष है। बिल्‍कुल निहत्था। जिससे किसी का संवाद नहीं है। और जो संवाद की कोशिश करता है, वह भी एक दिन अपराधियों की कतार में शामिल पाया जाता है। यह लोग न तो नक्सली हैं और न ही उनके हमदर्द । यह तो बस वार जोन में गले-गले तक डूबे लोग हैं, हमारे ही अपने !

(पढ़ें- शनिमंदिर में महिलाएं : रूढ़ियां तोड़ना ही काफी नहीं)

यह हेड़‍िया कुंजाम कौन है? भीमे को हिंसा की तेज धार के बीच अहिंसा की डोर थामने की शक्‍ति कहां से मिलती है? वह क्‍या है, जो भीमे को टूटने नहीं देता? जब हम कहते हैं कि दुनिया गांधी को भूल रही है तो हम शायद कुछ ज्यादा ही शहरी किस्म से सोचने लगते हैं। जबकि हमारा देश अपने भीतर न जाने कितनी सहनशीलता और अहिंसा की जोत जगाए बैठा है। इसीलिए गांधी कुछ और नहीं, बस विचार हैं। वह भीमे की शक्त‍ि के साझीदार हैं।
 


मन्नू भंडारी के उपन्यास 'महाभोज' के कुछ किरदारों की यादें 'लाल लकीर' से गुजरते हुए अनायास ही ताजा हो गईं...

इससे गुजरते हुए मुझे सबसे ज्यादा ‘महाभोज’ याद आई। मन्नू भंडारी ने लगभग एक दशक पहले जिस बिसेसर और बिंदा की कहानी सरोहा गांव से शुरू की थी और एसपी सक्सेना  के संघर्ष के साथ समाप्त की थी। लाल लकीर में मानो इन सबका पुर्नजन्म है। हां, बस इतना फर्क कि बिसेसर और बिंदा की लड़ाई और कठिन हो गई लेकिन जो उम्मीद पुलिस महकमे के एसपी सक्सेना में बाकी रह गई थी वह हृदयेश जोशी की कथा में अनुपम शुक्ला ने चकनाचूर कर दी। तो क्‍या हम राजनीति और हमारी सुरक्षा के लिए बनाए गए तंत्र के बीच फंस गए हैं, नहीं। बल्कि खतरा इससे कहीं अधिक गंभीर है।
हृदयेश ऐसी हिंसा को बयां कर रहे हैं, जिसमें लाखों लोग अचानक झोंक दिए गए। इस दुनिया के विमर्श से हमें राजनेता, मीडिया, समाजसेवियों के साथ नक्सलियों ने भी दूर रखा। बस्तर और छत्तीसगढ़ के साथ मुल्‍क के वह दूसरे हिस्‍से जहां सामाजिक अन्याय और व्यवस्था ने बंदूकों को घर -आंगन तक पहुंचा दिया।

नक्सलवाद ने उन्‍हें एक ऐसी अंधेरी रात की ओर धकेल दिया, जिसकी कोई सुबह नहीं थी। हृदयेश को सबसे बड़ा श्रेय यही है कि उन्‍होंने सरकार, पुलिस और नक्सलियों के बीच पिस रहे मासूम आदिवासियों की अंधेरी जिंदगी को स्याही बख्शी। वह भी बेहद संतुलन के साथ।

हृदयेश किसी कथावाचक की तरह निष्पक्ष भाव से कथा कह रहे हैं। पूरी तस्वीर दिखा रहे हैं। यह आसान नहीं था। बल्कि पत्रकार और संवेदनशील कथाकार होने के नाते खासा कठिन था। लेकिन वह इसमें एकदम खरे उतरे क्योंकि वह किसी के साथ नहीं गए। किसी का पक्ष नहीं छोड़ा, लेकिन किसी एक का हाथ भी उन्होंने नहीं थामा। वह बस सब कुछ दर्ज करते रहे। पूरी सजगता के साथ।

मुझे बहुत याद नहीं आ रहा, शायद आपको हो कि हमारे साहित्य या सिनेमा में कितनी ऐसी नायिकाओं को नायक का प्रेम मिला जो बलात्कार का शिकार हुईं। हां, उनके हिस्से अगर कुछ आता रहा तो वह बस लिजलिजी सहानुभूति थी। इस उपन्यास का जिक्र इस बात के लिए भी किया जाता रहेगा कि इसमें पुलिस और अपने ही लोगों का शिकार हुई नायिका (भीमे) के हिस्से पूरा प्रेम आया। फि‍र वे कौन लोग हैं, जिन्‍हें हम असभ्य और खतरनाक बताकर उनसे रोशनी लेने की जगह उन्हें हिंसा की अंधेरी राहों की ओर भेज रहे हैं। पढ़ते हुए भी इसका कोई उत्तर नहीं मिलता और उसके बाद भी नहीं।
बस्‍तर के वार जोन से यह एक बेहद जीवंत डायरी, कविता है, जिसमें हमारे उस हिस्से का दर्द है, जिनकी जमीनों के साथ उनके शरीर और आत्मा पर भी विकास के बुलडोजर अतिक्रमण करने के इरादे से डेरा डाले हुए हैं।

थोड़ा समय निकालिए। ‘लाल लकीर’ पढि़ए । यह आपको उस थोड़े समय का पूरा प्रतिफल देगा, जिसे निकालना इतना भी मुश्किल नहीं..।

-दयाशंकर मिश्र khabar.ndtv.com के संपादक हैं।

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