आज सुबह की शुरुआत बेहद खौफनाक रही. मैंने अब तक कभी किसी अप्रत्याशित, सीधी हिंसा का सामना नहीं किया था. तब भी नहीं जब कोई एक दशक पहले मैं 'अशांत' जम्मू-कश्मीर में काम कर रहा था और अक्सर देर रात पैदल या दुपहिया पर घर लौटता था.
बुधवार की सुबह लगभग 11 बजे गाजियाबाद के आखिरी छोर और दिल्ली की सीमा से पहले यूपी बार्डर के गाजीपुर चौराहे पर जो कुछ हुआ, उससे ऐसा लगा जैसे मैं अचानक किसी हॉरर फिल्म के हॉल में फेंक दिया गया हूं. मेरी कार ग्रीन लाइट के इंतजार में खड़ी थी कि कुछ किन्नर (ठीक उसी तरह जैसे वे ट्रैफिक सिग्नल पर करते हैं) सामने आकर पैसे की मांग करने लगे. मैंने आदतन ध्यान नहीं दिया तो उनमें से एक युवा और उग्र किन्नर गेट की ओर लपका और पैसे देने के लिए कहा. मैंने इस पर भी ध्यान नहीं दिया और ग्लॉस खोलकर उससे एक ओर होने के लिए कहा, क्योंकि ग्रीन सिग्नल हो चुका था.
लेकिन वह अचानक उग्र हो गया. उसने वाइपर को लगभग तोड़ दिया और मुझे बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया. जब तक मैं कुछ समझता उसने अपने निचले हिस्से के कपड़े उतारकर बोनेट पर फेंक दिए. उसका व्यवहार आतंकित करने वाला था. यहां तक कि उसके बाकी साथी तक उसे समझाने में लगे थे पर उसके तेवर शांत नहीं हुए. वह ऐसी तमाम गालियां देता रहा जो यहां नहीं लिखी जा सकतीं. कुछ किन्नरों ने मुझसे कहा, अरे कुछ दे दो, साहब! बात खत्म करो. मेरे लिए प्रश्न कुछ देने का नहीं था, मैं तो अब तक यही नहीं समझ पाया था कि हो क्या रहा है.
मैंने किसी तरह दूर खड़े, निर्विकार भाव से हंगामा देख रहे ट्रैफिक कर्मियों को किसी तरह चिल्लाकर बुलाया तो उन्होंने कहा, गाड़ी एक तरफ खड़ी करिए, फिर देखते हैं. वे किसी भी तरह उस किन्नर और उसके साथियों को रोकने के मूड में नहीं थे. तब तक किन्नर ने अर्धनग्न अवस्था में मुझे पर हमला कर दिया. मेरा चश्मा टूट गया. उसके जोरदार थप्पड़ का असर अब तक मेरे गाल और गर्दन पर है. गर्दन के एक हिस्से में दर्द भी है. उसका मन फिर भी नहीं भरा. उसने कार के कुछ हिस्से को भी नुकसान पहुंचाया.
यह सब सलमान और रजनीकांत के फास्ट फारवर्ड सिनेमाई मोड में हुआ. मेरे पीछे ट्रैफिक जाम लग गया था और पुलिस मुझे समझा रही थी कि अरे ये तो बदमाश हैं, आप कहां इनके साथ उलझ गए. इसी बीच मेरी सोसायटी के ही एक अपरिचित सज्जन साहस जुटाकर अपनी कार से बाहर आए. तब कहीं जाकर लोगों का 'नायकत्व' बाहर निकला और मैं 'हाईजैक' से मुक्त हुआ.
मेरे पीछे ट्रैफिक जाम था और पुलिस वालों का भारी 'अनुरोध' चल रहा था 'यहां से निकलिए'. मैंने कुछ दूर आगे जाकर एक ओर कार रोकी. बाहर निकला, ताकि अपनी सांसों को थोड़ा संभाल लूं और खुद को बुरे ख्वाब से बाहर आने का भरोसा दिला सकूं. अब तक पीछे से आकर कुछ लोगों ने कहा कि आपको उसे छोड़ना नहीं चाहिए था, एफआईआर करवानी चाहिए थी. मजे की बात है कि यह सब वही लोग कह रहे थे जो वहां चुपचाप खड़े थे.
मैं इन सबसे अलग सोच रहा था कि ऐसा हुआ क्यों? वह भी दिनदहाड़े, सीसीटीवी के पहरे के बीच. पुलिस भी है और समाज भी. यह किसी बियावान की घटना नहीं है, अकेले में लूट नहीं है. आपके माथे पर बंदूक नहीं रखी गई है... यह उससे भी खतरनाक है... उससे भी डरावना है...
आखिर उस किन्नर के इतना हिंसक होने का कारण क्या था... क्या वह जबरन वसूली करने वाला पेशेवर अपराधी है या उसके भीतर हमारे समाज के लिए इतनी हिंसात्मक प्रतिक्रिया है कि वह इस तरह अपनी भड़ास उतार रहा था..हो सकता है वह हममें से ही किसी की हिंसा का शिकार हुआ हो. थर्ड जेंडर के लिए हमारे पास कोई इको सिस्टम तो है नहीं जहां वह अपनी बात रखे, या उसे सुना जा सके...
समझ नहीं पा रहा हूं कि मुझमें किन्नर के हाथों पीड़ित होने का दर्द है या अचानक इतने असुरक्षित होने से उपजी निराशा...
दयाशंकर मिश्र khabar.ndtv.com के संपादक हैं।
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This Article is From Aug 17, 2016
आपबीती : किन्नर का हमला और छोटे-छोटे सवाल
Dayashankar Mishra
- ब्लॉग,
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Updated:अगस्त 22, 2016 13:02 pm IST
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Published On अगस्त 17, 2016 18:17 pm IST
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Last Updated On अगस्त 22, 2016 13:02 pm IST
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