यह कौन है, जो हमारी आजादी के जश्न को भंग करने आ गया. यह कौन है जो ओलिंपिक में मिले दो पदकों के उत्साह को धूमिल करने का पाप कर रहा है. यह किस लोक का निवासी है, जिसमें इतना बल है कि दस किलोमीटर तक अपनी पत्नी के शव को लादे चला गया. उसकी बारह साल की बेटी जो जाहिर तौर पर हमारी किसी ‘बेटी बचाओ’ योजना का हिस्सा नहीं होगी, बिलखती रही, लेकिन उसके आंसू कालाहांडी के स्मार्ट सिटी न होने के कारण आंखों में ही सूख गए.
दाना माझी को चीखना नहीं आता. उसे ललकारना नहीं आता, तो उसकी आवाज कौन सुनता? पत्नी की मौत टीबी से हुई, मजेदार बात यह है कि हमारे विकसित होने को बेताब मुल्क में ऐसी बीमारी के लिए कोई जगह नहीं है. आपने कभी किसी सरकार के ''वादा पत्र'' में टीबी से मुक्ति का जिक्र सुना है? जब जिक्र ही नहीं, तो चिंता तो दूर की कौड़ी है. यह कालाहांडी है क्या? यह वही जगह है जहां अकाल लंबे काल से डेरा डाले रहा है. यह वह जगह है जहां पहुंचने से पहले सरकार की दबंग, दमदार और स्मार्ट योजनाएं दम तोड़ देती हैं. अगर विस्तार से और दुखी करने वाली जानकारी चाहिए तो स्वर्गीय आलोक तोमर की किताब ‘हरा-भरा अकाल’ एक मुकम्मल दस्तावेज है. ‘हरा-भरा अकाल’ हमें बताता है कि अकाल कैसे व्यवस्था और सरकार के लिए कमाल का अवसर है. (ओडिशा : पत्नी का शव कंधे पर लादे 10 किलोमीटर तक पैदल चलने को मजबूर हुआ शख्स)
तो ऐसे कई अकालों और राहतों का मर्सिया है कालाहांडी और उसका ताजा प्रतिनिधि है दाना माझी. माझी से हमें दशरथ माझी भी याद आ गया. वही दशरथ माझी जिसने अपनी पत्नी का इलाज नहीं होने देने के लिए दोषी पहाड़ को काटकर गिरा दिया था, बिना किसी सरकार के, बिना किसी स्मार्ट योजना के. उसने अपने हौसले से पहाड़ को मनुष्य की शक्ति का बोध कराया था. दोनों माझी में एक बात यह साझी है कि दोनों अपने-अपने प्रेम में कितने कोमल और अपने निश्चयों के धनी हैं. दाना माझी क्या सोच रहे होंगे... अमंग देई के शव को कंधों पर लादे हुए! कंधे पर अमंग को लेकर चलते हुए उसे क्या कुछ याद आ रहा होगा? उसके साथ दौड़ रही बेटी के आंसू और पत्नी का शव मिलकर दाना की मनोस्थिति को कितना व्याकुल कर रहे होंगे. उसे शायद प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के सपने और भाषण भी याद आ रहे होंगे. उसे लोकतंत्र की उन रस्मों की याद नहीं आ रही होगी.. जिसकी हर पांच साल बाद उसे कसम दिलाई जाती है!
दाना को ओडिशा सरकार की उस योजना की भी याद आई होगी, जिसे नवीन पटनायक सरकार ने फरवरी में शुरू किया था.. ‘महापरायण’ योजना. जिसके तहत शव को सरकारी अस्पताल से मृतक के घर तक पहुंचाने के लिए मुफ्त परिवहन की सुविधा दी जाती है. तो यह दाना को क्यों नहीं मिली. क्या यह योजना उस जिला मुख्यालय के अस्पताल तक पहुंचने से पहले विकलांग हो गई, जहां टीबी से अमंग की मौत हुई. माझी ने बहुत कोशिश की लेकिन इस देश में सब कुछ आपकी हैसियत से तय होता है. यहां तक कि निजी अस्पताल में आपका इलाज भी. इसी जून में विकसित एनसीआर, गाजियाबाद में मुझे अपने सभी मित्रों की मदद इस बात के लिए लेनी पड़ी कि एक अन्य मित्र को सड़क दुर्घटना के बाद एक निजी अस्पताल में भर्ती करवाया जा सके, जेब में पूरे पैसे और मेडीक्लेम के बाद भी. तो माझी की विवशता हम कैसे लिख सकते हैं. उसके मन में हम लोकतंत्र के लिए सम्मान कैसे हासिल कर पाएंगे...(ओडिशा फिर शर्मसार : कंधे पर उठाने के लिए अस्पताल कर्मचारी ने शव का कूल्हा तोड़ा)
माझी को मदद उसी मीडिया से मिली जो इन दिनों सबके निशाने पर है. जब उन्हें अस्पताल के अधिकारियों से किसी तरह की मदद नहीं मिली तो उन्होंने पत्नी के शव को एक कपड़े में लपेटा और कंधे पर लादकर भवानीपटना से करीब 60 किलोमीटर दूर रामपुर ब्लॉक के मेलघारा गांव के लिए पैदल चलना शुरू कर दिया. इसके बाद कुछ स्थानीय संवाददाताओं ने उन्हें देखा. जिला कलेक्टर को फोन किया और फिर शेष 50 किलोमीटर की यात्रा के लिए एक एम्बुलेंस की व्यवस्था की गई.
देश में टीबी से बड़ी तादाद में मौतों के आंकड़े नए नहीं हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के आंकड़ों के मुताबिक 2015 में तकरीबन 22 लाख टीबी के मामले भारत में पाए गए. जबकि इसी अवधि में कुल 96 लाख वैश्विक मामले देखने को मिले. डब्ल्यूएचओ के मुताबिक पूरे विश्व में सबसे ज्यादा टीबी के मामले भारत में हैं. हर साल देश में इससे करीब 2.20 लाख मौतें होती हैं. इसके आधार पर यह समझा जा सकता है कि दुनिया भर के टीबी के कुल मामलों में भारत की बड़ी हिस्सेदारी है. यानी देश में यह बीमारी एक बड़ी समस्या है. इससे मानव संसाधन की क्षति के साथ अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान हो रहा है. पिछले एक दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था को इससे करीब 340 अरब डॉलर का नुकसान हुआ.
जब हर बरस टीबी से हजारों मौतें हो रही हैं और सब ओर विकास की बहस छिड़ी है, तो दाना माझी के दीवानेपन पर इतना हंगामा क्यों? दाना डर गया होगा कि कहीं उसकी प्रिय अमंग देई का शव अंतिम विदा से पहले सड़ न जाए. उसके जीते जी भले कोई नागरिक अधिकार नसीब न हुए हो, लेकिन कम से कम मरने के बाद तो सम्मानजनक अंतिम विदाई दी जाए. इस नाते मुझे दो माझी एक जैसे लग रहे हैं. दोनों सरकार से लड़े, अपनी जिद पर जिए. दोनों की पत्नी व्यवस्था से हारीं.
हर छोड़ी बड़ी बात में निराश, मरने-मारने को आतुर शहरी समाज को दाना माझी से सब्र, प्रेम का सबक सीखना चाहिए, और जिद का भी. लाश को कंधे पर लादे यह जो दाना जा रहा है, वह अपनी जीवन संगिनी नहीं हमारी व्यवस्था की लाश ढो रहा है.
कहने को मुल्क बदल रहा है, परिवर्तन के नारों से आकाश तक आतंकित हो रहा है, लेकिन दाना माझी और उसके जैसे अनगिनत नागरिक जीवन के समंदर में लाशों को उठाए दौड़ रहे हैं.
कुछ जिंदा, कुछ मुर्दा. अलविदा अमंग... तुम्हें दाना पर गर्व होना चाहिए...
दयाशंकर मिश्र khabar.ndtv.com के संपादक हैं.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.
इस लेख से जुड़े सर्वाधिकार NDTV के पास हैं. इस लेख के किसी भी हिस्से को NDTV की लिखित पूर्वानुमति के बिना प्रकाशित नहीं किया जा सकता. इस लेख या उसके किसी हिस्से को अनधिकृत तरीके से उद्धृत किए जाने पर कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाएगी.
This Article is From Aug 25, 2016
पत्नी नहीं, व्यवस्था की लाश ढो रहा है दाना माझी
Dayashankar Mishra
- ब्लॉग,
-
Updated:अगस्त 26, 2016 12:07 pm IST
-
Published On अगस्त 25, 2016 18:54 pm IST
-
Last Updated On अगस्त 26, 2016 12:07 pm IST
-
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं