इन हस्तियों ने ऐसे बयानों पर आक्रामक होने और महिलाओं के प्रति संवदेनशीलता को इसलिए अनदेखा कर दिया, क्योंकि न जाने किस सदन में मुलायम की जरूरत पड़ जाए? इन दिनों आक्रामक होने का टैग लिए चल रहे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी अब तक इस पर बात नहीं की है।
और कौन। वामपंथी लापता हैं। बीजेपी की ओर से भी किसी को फिलहाल फुर्सत नहीं है। सबको राज्यसभा की चिंता है। सुषमा-जया-रेखा और हेमा, चुप हैं। यह कैसा समाजवाद है। कैसे नेता हैं, जो अपनी ही मां और बेटियों पर ऐसी गालीनुमा टिप्पणी पर खामोश हैं, बस घोटालों पर हंगामा करते हैं। सोशल मीडिया पर उड़ने वाले नेताओं और वंशवाद की बेल को सेक्युलरिज्म के नाम पर ढकने वालों को कब तक हम 'इग्नोर' करेंगे।
क्या डिंपल यादव में आयशा टाकिया जितनी हिम्मत भी नहीं है? निश्चित रूप से नहीं। हमें याद होना चाहिए कि सुपरिचत अभिनेत्री आयशा ने अपने पति के पिता और सपा के ही नेता अबू आजमी के महिला विरोधी बयान की सरेआम निंदा की थी। एक महिला सांसद में अगर इतनी भी सामान्य चेतना नहीं है, तो और हम क्या अपेक्षा करेंगे।
उप्र में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों और बलात्कार के मामलों की जड़ में मुलायम सिंह जैसे बयानों की अहम भूमिका से किसी को इंकार नहीं होगा, क्योंकि उनके लाखों कार्यकर्ता नेताजी के ' मार्गदर्शन ' में ही काम करते हैं। आप समझ सकते हैं कि एक ऐसे प्रदेश में जहां सरकार का असली 'मुख्यमंत्री' सरेआम जनता और कार्यकर्ताओं को बलात्कार जैसे विषयों पर यह ज्ञान दे रहा है। उसका समाज और खासकर दबंगों पर क्या असर पड़ेगा?
क्यों हमें ऐसे नेताओं को संसद और विधानसभाओं में भेजना चाहिए। भेजा हमने ही है, तो सोचना भी हमें ही पड़ेगा और इसके साथ ही उनके बच्चों और परिवार के बारे में भी। ऐसे आज्ञाकारी बच्चों और उनके पिता को जो मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पदों का मजाक बनाकर गंगा में बहा रहे हैं, हम हर बार अनदेखा नहीं कर सकते हैं।
दिल्ली से जो सत्ता परिवर्तन की लहर उठी है, उप्र उससे बहुत दूर नहीं है। समाजवाद के चिंतकों तक यह संदेश जितनी शीघ्रता से पहुंचेगा, उतना ही इसका सामाजिक असर होगा। तब तक गली मोहल्ले या टिवटर- फेसबुक या जहां कहीं आप हैं, मुलायम सिंह की इस शर्मिंदा करने वाली टिप्पणी की निंदा करें और इसे बहस और संवाद का हिस्सा बनाएं। चीजें इग्नोर करने से ही तबाही का रूप लेती हैं, बहस और बात करने से नहीं।
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