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    केजरीवाल की गिरफ्तारी से लोकसभा चुनाव में किसे फायदा?

    राजनीति में समय अहम होता है कि एक समय केजरीवाल सारी पार्टियों और नेताओं को भ्रष्ट कहते रहे, जिस पर नेता और पार्टी तिलमिलाते भी रहे, लेकिन समय का चक्र बदला तो केजरीवाल पर ही अब भ्रष्ट होने का आरोप है, लेकिन केजरीवाल जिन विपक्षी नेताओं को भ्रष्ट कहते रहे, वे खुद आज उनके साथ हैं.

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    विदेश में एंटी इनकम्बेंसी, लेकिन देश में प्रो इनकम्बेंसी कैसे?

    बीजेपी दावा करती है कि उनके पास मजबूत नेतृत्व और ठोस इरादे वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं, इसीलिए मोदी का चेहरा पार्टी से बड़ा कर दिया गया है. संदेश यही है कि मोदी मतलब बीजेपी, मोदी मतलब भारत.

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    दुष्यंत कुमार की स्मृति में : साधारण जन-जीवन की असाधारण शायरी

    दुष्यंत की गजलों और कविताओं में भारतीय समाज की अभाव-वेदना और दुर्बल वर्गों की निरुपायता के इतने 'मंजर' भरे पड़े हैं कि लगता है कि खुद दुष्यंत कुमार ने अपने दौर को उन्हीं की नजरों से जिया था. यही कारण है कि सरल हिंदी में कलमबद्ध उनकी गजलें हर उस व्यक्ति और समूह के लिए नारों में तब्दील हो गईं जो परिवर्तनकामी था. अपने परिवेश की बुनियाद को हिलाने की आरजू लिए था.

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    बार-बार, हर बार और कितनी बार होगी चुनाव आयोग की अग्नि परीक्षा

    Lok Sabha Elections: पारंपारिक मीडिया से लेकर डिजिटल मीडिया में आई क्रांति ने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा बदल दी है. डिजिटल युग में खबरें बिजली की रफ्तार से पूरे देश में पहुंच रही हैं. साक्षरता संग जागरूकता भी बढ़ी है, लेकिन ध्रुवीकरण और विद्वेष में भी इजाफा हुआ है.

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    हिन्दी हार्टलैंड में महाभारत : फिर दक्षिण क्यों गए राहुल गांधी...?

    कभी 400 से ज़्यादा सीट हासिल करने वाली कांग्रेस 52 पर सिमट गई है, एक समय ऐसा भी था, जब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की तूती बोलती थी. UP में तूती बोलने वाली कांग्रेस पार्टी को अब अपने गढ़ अमेठी और रायबरेली की शायद परवाह ही नहीं है, लेकिन सवाल है कि क्या राहुल गांधी का फैसला सही है या वोटर के फ़ैसले का इंतज़ार करना चाहिए...?

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    राजस्थान में दलित-आदिवासी वोटर इस बार किस पार्टी पर मेहरबान होंगे?

    राजस्थान में ये देखने को मिला है कि जिस पार्टी को सत्ता मिली है, उसमें दलित और आदिवासी वोटरों का अहम योगदान रहा है. अब सबकी नजर है इसबार दलित और आदिवासी वोटर किस पार्टी की चुनावी नैय्या पार कराती है.

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    ‘रेवड़ी राजनीति’ की गिरफ्त में क्यों हैं वोटर, किस पार्टी का होगा बेड़ा पार?

    इस बार के विधानसभा चुनाव मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में वोटरों को लुभाने के लिए घोषणाओं की बरसात हो गई है. सारी पार्टी की घोषणाओं का लब्बोलुआब है, किसान की कर्ज माफी, धान और गेहूं की खरीदारी की कीमत बढ़ाना, सस्ता सिलेंडर, मुफ्त बिजली, किसान सम्मान निधि बढ़ाने, मुफ्त राशन बढ़ाने का है.

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    MP-राजस्थान में किस जाति पर है ज़ोर, टिकट बंटवारे में क्यों पड़ी कमज़ोर...?

    दरअसल, BJP हिन्दुत्व की राजनीति के ज़रिये इक्का-दुक्का जातियों को छोड़कर कमोबेश सारी जातियों में पैठ बनाने में सफल हुई है. यही वजह रही है कि कांग्रेस लोकसभा चुनाव में दो अंकों में सिमट गई है. कांग्रेस BJP की हिन्दुत्व की राजनीति के वर्चस्व को जाति की राजनीति के सहारे तोड़ना चाहती है...

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    अबकी बारी, बागी कांग्रेस और BJP पर भारी, क्या बिगाड़ेंगे जीत का समीकरण?

    बीजेपी और कांग्रेस की अपनी मजबूरी है. तकनीकी युग में विधायकों के अच्छे कामकाज, उम्मीदवारों की उम्र, विधानसभा के समीकरण और जीतने की उम्मीद को देखकर टिकट का पैमाना चुना जाता है जिसकी वजह से पार्टी में विद्रोह की स्थिति पैदा हो जाती है.

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    कुंवर नारायण : समय होगा, हम अचानक बीत जाएंगे

    कुंवर नारायण को यह पता था- 'घर रहेंगे, हमीं उनमें रह न पाएंगे/ समय होगा,हम अचानक बीत जाएंगे/ अनर्गल जिंदगी ढोते किसी दिन हम/ एक आशय तक पहुंच सहसा बहुत थक जाएंगे..

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    उत्तर प्रदेश पुलिस और देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू

    देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के व्यक्तित्व में वैचारिक स्पष्टता एक ऐसी चीज थी जो उन्हें अपनी समकालीन राजनैतिक पीढ़ी में प्रबुद्ध रूप से अलग करती थी. उत्तर प्रदेश से उनका लगाव एक सुविदित तथ्य है. उत्तर प्रदेश पुलिस से भी नेहरू जी का गहरा लगाव था.

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    मैं और मेरा प्रिय रंग

    रंगों का प्रबल आकर्षण मनुष्य के लिए कितनी सहज परिघटना है. उसकी सौन्दर्यानुभूति का स्थूल प्रकटन रंगों में उसकी रुचि से अभिन्न है. हर रंग एक मनोदशा है. आशा-निराशा, उल्लास-अवसाद, पराक्रम-पराजय, करुणा-क्रूरता, राग-विराग, सबका एक रंग है. प्रेम में होना दरसअल किसी रंग में होना है. घृणा और युयुत्सा में होना भी किसी रंग में होना है. शायद तभी कलाविदों ने अभिव्यक्ति के अभिनय-रूप को रंगमंच कहा होगा.

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    केपीएस गिल को एक आईपीएस अफसर की श्रद्धांजलि...

    गिल सर को अक्सर उन घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में याद किया जाता है, जिन्होंने एक दौर में पंजाब की धरती को लहूलुहान कर दिया था. यह सही भी है.

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    बाणभट्ट के सरकारी मुलाज़िम.....

    बाणभट्ट ने अपने दौर के सरकारी मुलाजिमों पर जो कटाक्ष किया है वह भारतीय साहित्य में ही नहीं, किसी भी युग में उस तीखेपन के साथ अन्यत्र भाषाओं में भी नहीं मिलता.

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    अकीरा कुरोसावा की फिल्‍म 'इकीरू' जो सिखाती है नौकरशाह होने का मतलब

    'इकीरू' सिनेमा मात्र नहीं है. लगा कि कोई पाठशाला है जहां बैठकर बहुत कुछ पाया जा सकता है. सिनेमा के फॉर्मेट में इस पाठशाला को अकीरा कुरोसावा ने 1952 में बनाया था. जापान के इस महान फिल्मकार ने पर्दे पर जिस संवेदनशील कथ्य को गढ़ा है, वह जापानी समाज और सत्ता तंत्र के शीर्ष पे बैठे हुए एक बड़े ओहदे के नौकरशाह के जीवन-उद्देश्य के पुनराविष्कार की करुण-कथा है.

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    चुनौती देती है 'आरा की अनारकली' - लहंगा भी मेरा, देह भी, 'बिलौज' भी मेरा, हाथ रखने देने का हक भी...

    'आरा की अनारकली' तो क्या, आरी है, जिसकी अपनी भाषा है, परिवेश है, जीविका है, रंगीला नौटंकी कंपनी है. पूरा साज़-बाज है. गाती है, बजाती है, गालियां खाती है, और गरियाती भी है. अपनी मर्ज़ी की अनारकली है... 'आरा की अनारकली' सत्ताओं के आसपास घूमती है, लेकिन अनारकली ही बने रहना चाहती है. अपनी मर्ज़ी से... अपनी देह के साथ...

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    वैलेंटाइन-डे से घबराया हुआ मेरा समाज और भारतीय सौंदर्य बोध...

    आज वैलेंटाइन डे है. इसके पक्ष या विपक्ष में लिखने का मेरा कोई उद्देश्य नहीं है. न इसके औचित्य और अनौचित्य पर कोई निर्णायक टिप्पणी करने की मंशा है. इतिहास का छोटा मोटा विद्यार्थी रहे होने की वज़ह से मन को रोकना मुश्किल होता है. मैं बिना किसी पर कोई निर्णय दिए चुपचाप अपने इसी समाज को टटोलना चाहता हूं. वैलेंटाइन डे से घबराया हुआ मेरा यह समाज ऐसे उत्सवों के प्रति क्या सदा से अनुदार रहा है? क्या यह इतना 'बंद' समाज रहा है जहां कभी भी युवा-युवतियों को खुलकर मिलने जुलने और प्रेम अभिव्यक्ति करने के मौके नहीं उपलब्ध थे...

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    वसंत आता नहीं, ले आया जाता है...जो चाहे- जब चाहे अपने पर ले आ सकता है…

    जैसे कालिदास के युग की वासंतिक हवा आम के बौर हिला धमाचौकड़ी मचाती थी. नटखट और शैतान बच्चे की तरह. ठीक उसी तरह वह आज के कवि के यहां भी आम और महुआ के पेड़ों पर चढ़कर थपाथप मचाती है - कितना अदभुत साम्य है...!

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    गण, गणतंत्र और भविष्‍य...'जो भीष्म ने युधि‍ष्‍ठि‍र से और बुद्ध ने आनंद से कहा था'

    'गणतंत्र' की अवधारणा भारतीय समाज की प्राचीन राजनीतिक परंपराओं का ही एक वैचारिक उत्कर्ष था. भले भी वह आज के आधुनिक गणतंत्रों के विपरीत, वयस्‍क मताधिकार पर आधारित नहीं था.

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    आसमान पर क्या अब केवल धूल और धुएं का ही राज रहेगा...

    हमारे हृदय का ही मैल विस्तार पा गया है. यह अपारदर्शिता जो धूल और धुएं के रूप में उज्जयनी के नभ को घेरे हुए है, हमारी ही प्रति-रचना है. यह हमें अधिक सुहाती है, लुभाती है. इस अपारदर्शी धुंध में हम वह सब कर लेते हैं, जो इसकी विपरीत अवस्था में नहीं कर पाते.

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