'गणतंत्र' की अवधारणा भारतीय समाज की प्राचीन राजनीतिक परंपराओं का ही एक वैचारिक उत्कर्ष था. भले भी वह आज के आधुनिक गणतंत्रों के विपरीत, वयस्क मताधिकार पर आधारित नहीं था. न ही उसमें आज के लोकतंत्र जैसी हू-ब-हू खूबियां थीं लेकिन वह अपने युग में 'विशुद्ध राजतंत्र' का राजनैतिक और सामाजिक विकल्प था. विकल्पों की बहुलता चाहे वह किसी भी संदर्भ में हो, हमारे समाज की सर्वाधिक दुर्लभ विशिष्टता रही है. गणतंत्र में 'गण' समाज है. 'तंत्र' उसकी नियामक चेतना है. नियमबद्धता से गतिशील समाज. आज भले ही हम 68 वां गणतंत्र दिवस मना रहे हों, एक समाज के रूप में यह शब्द हजारों वर्षों से हमारी राजनैतिक और सांस्कृतिक चेतना का भाग रहा है. कभी मुखरित रूप में जैसा कि वह बुद्ध के युग में था और कभी क्षरित रूप में जैसा वह 'राजतंत्रों' के उदय के बाद धूमिल पड़ गया.
एक लंबे समय तक पश्चिम के साम्राज्यवादी इतिहासकारों का हित यह कहने और दोहराने से सधता था कि भारत एक राजनैतिक इकाई के रूप में सदा 'निरंकुश राजाओं' से शासित रहा है. आम सहमति से निर्णय ले सकने वाले तथा समाज की व्यापक भागीदारी पर आधारित संस्थाओं का अस्तित्व कभी यहां रहा ही नहीं. 'प्राच्य-निरंकुशता' के सिद्धांत को मानकर इस समाज की संकल्पना एक ऐसे 'समुदाय' के रूप में की गई जो अपने में ही खोया हुआ था. हीगल जैसे चिंतक भी इसे 'फैंटेसी में खोए हुए ऐसे समाज' के रूप में चित्रित करते हैं, जहां समाज को न राजा से मतलब था न राजा का समाज से कोई रचनात्मक संपर्क.
रिज डेविड्स जैसे इतिहासकारों ने इस मिथ्या ऐतिहासिक विचार का विरोध आरंभ किया. बाद में केपी जायसवाल जैसे भारतीय इतिहासकारों ने प्रमाणों से साबित कर दिया कि सुदूर अतीत में भी भारतीय समाज में आपसी राजनैतिक सहमतियों के सृजन की परंपरा मौजूद थी. ऐसे निर्णय ले सकने वाली संस्थाएं भी अस्तित्व में थीं.
महापरिनिर्वाणसूत्र में एक कथा आई है. बुद्ध के प्रिय शिष्य आनंद और उनके बीच हुआ एक संवाद बड़ा रोचक है. बुद्ध ने अपने समकालीन लिच्छवि गणतंत्र जो उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली और व्यवस्थित गणतंत्रों में एक था, के भविष्य पर टिप्पणी करते हुए आनंद से कहा, 'जब तक वे अपने अपने 'संस्थागारों' में मिल बैठकर निर्णय लेंगे, परस्पर विमर्श से समस्याओं को सुलझाएंगे, सहमतियों का सृजन करेंगे, अपने वरिष्ठों का सम्मान करेंगे तब तक उनका गणतंत्र जीवित रहेगा.' जो आज के गणतंत्र की संसद है, सीमित और प्राचीन सामाजिक संदर्भों में वह बुद्ध-युगीन समाज में 'संस्थागार' कहलाती थी.
ऐसे कई गणतंत्रों का उल्लेख मिलता है जो आम जन-जीवन को प्रभावित करने वाले राजनैतिक निर्णय 'संसदीय' रूप से लेते थे. कुछ ऐसे ही गणतंत्र थे-कपिलवस्तु के शाक्य जिसमें स्वयं बुद्ध पैदा हुए. सुसुमार के भग्ग, अलकप्प के बुलि, रामगाम के कोलिय, कुशीनारा के मल्ल, पिप्पलवन के मोरिया, वैशाली के लिच्छवि. इन गणतंत्रों का अपना विशाल अधिकारीतंत्र था जो कई प्रकार के प्रशासनिक कार्यों को करने के लिए नियुक्त किया गया था.
रोचक बात यह है कि इन गणों की एक शीर्ष समिति थी जिसका हर सदस्य राजा कहलाता था. लिच्छवियों के यहां तो समिति में हजारों राजाओं के सदस्य होने का उल्लेख मिलता है. इन सभाओं, संस्थागारों में निर्णय आपसी विमर्श और बहुमत से लिए जाते थे. कभी-कभी मतदान की भी नौबत आ जाती थी. मसलन यह उल्लेख आता है कि कौशल के राजतंत्र ने जब शाक्यों के गणतंत्र पर आक्रमण किया तो शाक्यों ने यह तय करने के लिए कि इस आक्रमण का प्रत्युत्तर कैसे दिया जाए, अपने संस्थागार में गण की सभा बुलाई. यहां बहुमत से यह निर्णय हुआ कि चूंकि कौशल सैन्य दृष्टि से ज्यादा शक्तिशाली है, अतः युद्ध-जन्य विनाश का रास्ता अपनाने की जगह आत्म-समर्पण कर दिया जाए.
गणराज्यों को राजतंत्रों से खतरा तो था ही. उनमें आपस के झगड़े भी कम न थे. यह जानना बड़ा रोचक है कि जैसे आज हमारे गणतंत्र के कई राज्य आपस में सिंचाई के पानी को लेकर झगड़ रहे हैं, उसी तरह ईसा से 600 वर्ष पूर्व 'गणतंत्रों' के युग में रामगाम के कोलियों और कपिलवस्तु के शाक्यों में पानी को लेकर जबर्दस्त झगड़ा था. दोनों के बीच में बहने वाली रोहिणी नदी का पानी दोनों गणराज्यों के किसानों द्वारा सिंचाई के लिए इस्तेमाल किया जाता था. जब भी पानी कम पड़ता, दोनों ओर के किसान लड़ जाते और फिर दोनों गणराज्य भी. एक बार तो तनाव इतना बढ़ गया था कि खुद बुद्ध को दोनों गणराज्यों के बीच पंचायत करनी पड़ी.
वज्जि संघ के गणतंत्र में सबसे ताकतवर लिच्छवि थे, जिनकी सांगठनिक एकता के खुद महात्मा बुद्ध कायल थे. लिच्छवियों में नीचे से लेकर ऊपर तक आठ न्यायालयों का जिक्र मिलता है. कोई भी अभियुक्त अंतिम रूप से तभी दण्डित होता था, जब आठों न्यायालय उसे दोषी ठहरा दें. यह बहुत कुछ आज की न्याय-प्रणाली के समान जान पड़ता है, 'व्यक्ति की निजी दैहिक स्वतंत्रता' का ऐसा उदाहरण अप्रतिम है.
पर ऐसे गणतंत्र भी कहां बच सके! अपनी तमाम खूबियों की बावजूद वह रक्त-संबधों पर आधारित थे. रक्त-संबंधों ने हर युग में जीवन और राजनीति दोनों को ही खूब उलझाया है. उन गणतंत्रों में 'समानता' एक संकीर्ण दृष्टि-बोध तक ही फ़ैली हुई थी. 'जात्या च सदृशा: सर्वे कुलेन सदृशास्तथा'. वह समानता को एक सीमित नजरिये से देखते थे, ठीक वैसे जैसे यूनान के नगर राज्य अपने तमाम दार्शनिक उच्चता और निजी स्वतंत्रता के दावों के बावजूद उसमें दासों और श्रमिकों को सम्मिलित नहीं करते थे. हिंदी के मूर्धन्य आलोचक और चिंतक रामविलास शर्मा ने अपनी रचना 'भारतीय संस्कृति और हिंदी-प्रदेश' में गणों के सामंती चरित्र और उनके विघटन के कारणों पर प्रकाश डाला है.
शांति पर्व (महाभारत) में भीष्म उस सुनहरे अतीत को याद करते हैं. युधिष्ठिर को बताते हैं कि गणतंत्र बर्बाद क्यों हुए-"गणों में, राजाओं में बैर की आग दो ही कारणों से पैदा होती है..लोभ और अमर्ष (ईर्ष्या)..आपसी तनाव से वह ख़त्म हो जाते हैं' आश्चर्य है कि बुद्ध ने आनंद से जो कहा था, वही भीष्म ने युधिष्ठर को बताया था.
इन गणराज्यों को हुए सदियां बीत गईं. यह तो सिद्ध है कि एक समाज के तौर पर 'गणराज्यीय चेतना' हमारे मनो-मस्तिष्क में सदा से रही है. उस चेतना का उन्नयन और नूतन परिष्कार हमारी सबसे बड़ी चुनौती है. उन्हें समावेशी बनाए रखना होगा. लोक-जीवन में गणतंत्र की अप्राश्निक स्वीकार्यता तभी तो होगी जब गणतंत्र, गण के हर भूखे को रोटी, अक्षरहीन को किताब और गृह-विहीन को कम से कम एक छोटा सा घर दे. गण के जन स्वस्थ हों, सुरक्षित हों. विभेद न्यूनतम हों. गणतंत्र की सामूहिक संस्थाओं पर सभी को भरोसा रहे. रामगाम के कोलियों और कपिलवस्तु के शाक्यों की तरह पानी के झगड़े लड़कर नहीं, किसी 'संस्थागार' में बैठकर आपसी संवाद और मतैक्य से सुलझा लिए जाएं. लोभ और अमर्ष से तभी तो गणतंत्र दूर रहेगा और तभी हम गणतंत्र को 68 वें वर्ष से बहुत आगे...हजारों वर्ष आगे तक अपनी पीढ़ियों को हस्तांतरित कर सकेंगे.
धर्मेंद्र सिंह भारतीय पुलिस सेवा के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं...
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This Article is From Jan 26, 2017
गण, गणतंत्र और भविष्य...'जो भीष्म ने युधिष्ठिर से और बुद्ध ने आनंद से कहा था'
Dharmendra Singh
- ब्लॉग,
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Updated:जनवरी 26, 2017 16:52 pm IST
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Published On जनवरी 26, 2017 16:47 pm IST
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Last Updated On जनवरी 26, 2017 16:52 pm IST
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