वसंत आता नहीं, ले आया जाता है...जो चाहे- जब चाहे अपने पर ले आ सकता है…

वसंत आता नहीं, ले आया जाता है...जो चाहे- जब चाहे अपने पर ले आ सकता है…

वसंत आ गया है. मैं अक्सर सोचता हूं कि वसंत को जितना अनुराग और प्रेम साहित्यकारों से मिला है, उसे देखकर क्या दूसरी ऋतुओं को रश्क़ नहीं होता होगा...! काव्यात्मक अभिव्यक्तियों के अति प्राचीन युगों से ही वसंत को सभी ने सराहा है. इस वसंत ने किसी को भी नहीं छोड़ा. कालिदास से लेकर महाप्राण निराला तक. टैगोर से लेकर शैली तक. सब वसंत के दीवाने...! तभी तो कालिदास ने इसे 'वसंतयोद्धा' कहा है - वसंतयोद्धा समुपागतः प्रिये...
 
वसंत का यह 'योद्धा' हर्ष और नवोत्कर्ष लाता है. दैहिक उमंगों और प्रकृति के बीच एक अजीब सा साम्य बैठ जाता है. निराला के यहां भी और कालिदास के यहां भी...

'सखि, वसंत आया...
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया...'

- निराला
 
कालिदास के काव्य में भी वसंत जिसे छू जाए, वही सुगंध से भर उठता है - क्या फूल, क्या लताएं, क्या हवा और क्या हृदय - सभी वसंत के प्रहार से विकल हो उठते हैं...
 
'द्रुमा: सपुष्पा: सलिलं स्पद्मं
स्त्रियः सकामः पवनः सुगंधि:,
सुखा: प्रदोषा दिवसाश्च रम्या:
सर्वमम् प्रियम् चारुतरम् वसंते...'
 

'पवनः सुगंधि:' कालिदास के यहां विकलता का उत्स है. वह चंचल भी कम नहीं. आम के पेड़ों को हिलाकर भाग जाती है...
 
'आकम्पयन कुसुमिता: सहकारशाखा'... कोयल की कूक को सभी दिशाओं में फैला देती है... 'विस्तारयन परभ्रतस्य वचांसि दिक्षु...' कोई भी तो ऐसा नहीं, जिसके हृदय को वसंत की यह हवा विचिलित न कर देती हो...! 'वायुर्विवाति हृदयानि हरंन्नराणाम, नीहारपानविगमात्सुभगो वसंते...'
 
यह 'वसंती हवा' चली ही आ रही है. आज के जन-कवि तक पहुंचते-पहुंचते भी न इसका रूप बदला है, न चंचलता. हां, कालिदास का अपना युग था. राजाओं, सामंतों और कुलीन वर्गों की रुचियां शेष समाज पर भारी थीं. इतिहास और काव्य लिखने वाले राज्याश्रित होते थे. राजाओं और कुलीनों का गुणगान उनका युगीन-बोध था और एक यथार्थ भी, लेकिन ऋतुराज ने अपने प्रभाव में भेदभाव नहीं किया...
 
आज के कवि को शायद इसीलिए वसंत उतना ही जंचता है. उसकी 'वसंती हवा' भी कम 'मस्तमौला' नहीं...
 
'हवा हूं, हवा हूं, मैं वसंती हवा हूं...
वही हां, वही, जो युगों से गगन को,
बिना कष्ट-श्रम के संभाले हुए हूं...
 

वही हां, वही, जो सभी प्राणियों को,
पिला प्रेम-आसव जिलाये हुए हूं...'

 
जैसे कालिदास के युग की वासंतिक हवा आम के बौर हिला धमाचौकड़ी मचाती थी. नटखट और शैतान बच्चे की तरह. ठीक उसी तरह वह आज के कवि के यहां भी आम और महुआ के पेड़ों पर चढ़कर थपाथप मचाती है - कितना अदभुत साम्य है...!
 
'चढ़ी पेड़ महुआ थपाथप मचाया,
गिरी धम्म से फिर, चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा, किया कान में 'कू',
उतर के भगी मैं, हरे खेत पहुंची,
वहां गेहुओं में लहर खूब मारी,
पहर दो पहर क्या, अनेकों पहर तक,
इसी में रही मैं...'

'बसंती हवा' - केदारनाथ अग्रवाल
 
मैं सोचता हूं कि यह वसंत, जो प्रकृति में, पेड़-पौधों पर, और कभी-कभी हृदय में आ धमकता है, क्या इस धरा पर सभी के हृदयों को समान रूप से आनंदित ही करता है...? क्या वसंत उद्विग्न नहीं करता...! क्या वसंत कालिदास के युग के दरिद्र को भी उसी तरह रुचिकर लगता रहा होगा, जैसा उस युग के भद्र-पुरुषों और कुलीनों को लगता होगा...! इस बात का कोई ऐतिहासिक प्रमाण तो मिलता नहीं. शायद मिले भी नहीं. संभव है, इस तरह का कोई समूह-बोध रहा ही न हो, लेकिन वसंत ने लोगों को अलग-अलग तो स्पर्श किया ही है. कुछ ने उसे अभिव्यक्तिमय कर दिया तो कोई उसे मौन भोगकर शांत बना रहा. जिसे अपने प्रिय का स्नेह मिले, वह वसंत में भला क्यों खुश न होता...!
 
'समीपवर्तिषवधुना प्रियेषु,
समुत्सुका एव भवन्ति नार्य:'

 
लेकिन वसंत में शोक न हो, दुःख न रहे, यह भी कैसे हो सकता है. कोई है, जो अपनी कांता, अपनी पत्नी से दूर है. उसे पुष्प नहीं सुहाते. वह फूलों से लदे वृक्ष देखता है, फिर अपनी प्रिय का स्मरण कर रो उठता है...
 
'नेत्रे निमीलियति रोदिति याति शोकं...
कांतावियोगपरिखेदितचित्तवृति-द्रष्टाध्वग: कुसुमितानि सहकारबृक्षान...'

- ऋतुसंहार
 
मनुष्य ही क्यों, प्रकृति में भी वसंत का प्रभाव समरूपी ही हो, यह भी अत्युक्ति ही है. 'वसंत आ गया है' हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का छोटा-सा ललित निबंध है, लेकिन है बहुत अर्थगर्भी. उसकी कुछ पंक्तियों का स्मरण आ रहा है...
 
"सारी दुनिया में हल्ला हो गया कि वसंत आ गया. पर इन कम्बख्तों को खबर ही नहीं... महुआ बदनाम है कि उसे सबके बाद वसंत का अनुभव होता है. पर जामुन कौन अच्छा है. वह तो और भी बाद में फूलता है. और कालिदास का लाडला यह कर्णिकार...? आप जेठ में मौज में आते हैं... मौजी है अमरुद. बारह महीने इसका वसंत ही वसंत है... थोड़ी दूर पर वह पलाश ऐसा फूला है कि ईर्ष्या होती है. मगर उसे किसने बताया कि वसंत आ गया है...? वसंत आता नहीं है, ले आया जाता है. जो चाहे, जब चाहे, अपने पर ले आ सकता है..."
'वसंत आ गया है' - हजारी प्रसाद द्विवेदी
 
सबका अपना-अपना वसंत है. और जैसा कुंवर नारायण ने लिखा है कि...
 
"ये मकान भी अजीब आदमी...!
बने-ठने,
तने-तने,
न फूल हैं, न पत्तियां,
बेजुबान मुंह असंख्य,
खिड़कियां खुली हुई पुकारतीं,
'बस, अंत आ, बस, अंत आ...!'

 
'धूल उड़ रही उधर,
जिधर तमाम भीड़ से लदी-फदी सवारियां,
गुजर रहीं,
उधर नहीं...
तू उसी प्रसूनयुक्त छवीलकुंज मार्ग से,
बसंत आ..."

 
पतझर आता है. वसंत को आना ही है. शैली ने भी अपनी कविता में यही कहा था. लोग कहते ही रहेंगे. अपने-अपने युगों में, अलग-अलग वक्त, अलग-अलग हालात में. कालिदास से पूर्व भी, कवियों से होता हुआ, अदृष्ट काल तक... आम जन-मन में
 
'शहर, गांव, बस्ती,
नदी रेत निर्जन, हरे खेत पोखर'...

 
धर्मेंद्र सिंह भारतीय पुलिस सेवा के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं...
 
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