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This Article is From Nov 24, 2023

राजस्थान में दलित-आदिवासी वोटर इस बार किस पार्टी पर मेहरबान होंगे?

Dharmendra Singh
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 24, 2023 15:07 pm IST
    • Published On नवंबर 24, 2023 15:07 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 24, 2023 15:07 pm IST

राजस्थान में सत्ता का संग्राम परवान पर है. इसकी परीक्षा की घड़ी आ गई है. शनिवार को राज्य के 199 विधानसभा सीटों पर मतदान होने हैं, लेकिन ऐसा कहा जाता है कि राजस्थान में दलित और आदिवासी वोटर सत्ता विरोधी लहर का संकेत है. मतलब दलित और आदिवासी वोटर जिस पार्टी की तरफ झुक जाए, तो उसी पार्टी को सत्ता मिलना तय माना जाता है. राजस्थान में 200 विधानसभा की सीटें हैं, जिसमें दलित और आदिवासी की 59 सीटें रिजर्व(आरक्षित) हैं, जिसमें 34 दलित और 25 आदिवासी सीटें हैं. इनकी आबादी करीब 31 फीसदी है, जिसमें दलित की आबादी 17.85 फीसदी और आदिवासी की आबादी 13.50 फीसदी है. 

दलित और आदिवासी की 59 सीटों पर कांग्रेस और बीजेपी की पैनी नजर है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनाव के दौरान बिरसा मुंडा की जयंती पर आदिवासियों के कल्याण के लिए 24,000 करोड़ रुपये की योजना शुरू की है और दलित और आदिवासी को ये संदेश बराबर देते हैं कि पहली बार देश में दलित रामनाथ कोविंद और आदिवासी दौपद्री मुर्मु को राष्‍ट्रपति उनकी सरकार ने ही बनाने का काम किया है. मोदी सरकार ने आदिवासियों के भगवान कहे जाने वाले बिरसा मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस मनाने का फैसला किया है.   

वहीं, अशोक गहलोत ने अपने मंत्रिमंडल में दलित-आदिवासियों को प्राथमिकता दी है. गहलोत सरकार ने अपने 5 साल के कार्यकाल में एससी आयोग का गठन किया है और साथ ही साथ दलितों के कल्याण के लिए अलग से बजट रखने का फैसला लिया है. यही नहीं सीएम गहलोत ने दलितों को लुभाने के लिए पहली बार दलित आईएएस अधिकारी निरंजन आर्य को राज्य का मुख्य सचिव बनाकर दलितों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश की है. 

लेकिन गौर करने की बात है, दलित और आदिवासी की बात सारी पार्टियां करती हैं, लेकिन 31 फीसदी आबादी वाले दलित और आदिवासी समुदाय से एक बार ही दलित नेता जगन्नाथ पहाड़िया राज्य के मुख्यमंत्री बने, जबकि इनकी वोट पर सबकी नजर रहती है. इनके वोटर शांत होते हैं, लेकिन मतदान करने में आगे होते हैं. राज्य में दलितों की 34 सीटें आरक्षित हैं और कांग्रेस और बीजेपी ने इतने ही उम्मीवदार उतारे हैं, जबकि 25 आदिवासी सीट आरक्षित है, लेकिन कांग्रेस ने 33 और बीजेपी ने 30 उम्मीदवार उतारे हैं, इसकी वजह है आदिवासी में मीणा जाति का वर्चस्व होना.   

राजस्थान में ये देखने को मिला है कि जिस पार्टी को सत्ता मिली है, उसमें दलित और आदिवासी वोटरों का अहम योगदान रहा है. 2018 में कांग्रेस को सत्ता मिली थी, जिसमें रिजर्व दलित और आदिवासी की 59 सीटों में से कांग्रेस को 31 सीटें मिली थी, जबकि बीजेपी को सिर्फ 21 सीटें. दलित की 34 सीटों में से कांग्रेस को 19 और बीजेपी को 12 सीटें मिली थी, जबकि अन्य पार्टी को 3 सीटें मिली थी.  

आदिवासी की 25 सीटों में से कांग्रेस को 12 और बीजेपी को 9 और अन्य को 4 सीटें मिली थीं, जिसमें भारतीय ट्राइवल पार्टी को 2 सीटें मिली थीं. 2018 में भारतीय ट्राइवल पार्टी ने 11 उम्मीदवार उतारे थे, जबकि इसबार 20 उम्मीदवार उतारे हैं. 2018 में कांग्रेस बहुमत से एक सीट पीछे छूट गई थी. कांटे की टक्कर में इस बार भारतीय ट्राइवल पार्टी कांग्रेस और बीजेपी के लिए सिरदर्द बनी हुई है. 2018 में भारतीय ट्राइवल पार्टी को महज .72 फीसदी ही वोट मिले थे, लेकिन पार्टी 2 सीट पर जीती थी, लेकिन 9 सीटों पर खेल खराब की थी.  

कांग्रेस को 2018 में दलित सीटों पर 56 फीसदी की सफलता मिली थी, वहीं आदिवासी सीटों और सामान्य सीटों पर कांग्रेस को 48 फीसदी सफलता मिली थी. सामान्य 141 सीटों पर कांग्रेस को 68 और बीजेपी को 53 सीटें मिली थी.  

गौर करने की बात है, मायावती की पार्टी बीएसपी का दलित सीटों पर खाता भी नहीं खुला था. मायावती सामान्य 6 सीटें जीतने में कामयाब रही हैं. ये कोई एक चुनाव की बात नहीं है, बल्कि 2008, 2013 और 2018 में दलित वोटरों ने मायावती को निराश ही किया है. बीएसपी को 2013 में 3 और 2018 में 5 सामान्य सीटें ही मिली थी, मतलब दलित सीटों पर मायावती का कोई दबदबा राजस्थान में नहीं है. 2018 में बीएसपी 191 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, जिसमें 6 जीते थे जो बाद में विद्रोह करके कांग्रेस में शामिल हो गये. इस बार भी बीएसपी 185 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. 

जहां 2018 में दलित और आदिवासी वोटर कांग्रेस के तरफ झुक गये थे, वहीं 2013 के विधानसभा चुनाव में ये एकतरफा बीजेपी की तरफ मुड़ गये थे. 59 सीटों में बीजेपी को 50 सीटें मिली थी, जबकि कांग्रेस को सिर्फ 4 सीटें मिली थी. गौर करने की बात है कि 34 दलित सीटों पर कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला था, जबकि बीजेपी को 32 सीटों मिली थी और अन्य को 2 सीटें. 

आदिवासी की 25 सीटों पर बीजेपी को 18 और कांग्रेस को 4 जबकि अन्य को 3 सीटें मिली थीं. दलित सीटों पर बीजेपी की सफलता दर 94 फीसदी, आदिवासी सीटें पर 72 फीसदी और सामान्य सीटों पर 80 फीसदी सफलता दर थी. सामान्य 141 सीटों पर बीजेपी को 113 और कांग्रेस को महज 17 सीटें मिली थी.

जैसा कि 2018 में कांग्रेस को सामान्य और आदिवासी की तुलना में दलित ज्यादा वोट दिया थी, उसी तरह 2013 में भी बीजेपी को दलित, आदिवासी और सामान्य वोटरों की तुलना में जमकर वोट दिया था. हालांकि, 2013 में बीजेपी की छप्परफाड़ जीत हुई थी. 200 सीटों में बीजेपी को 163 सीटें जबकि कांग्रेस सिर्फ 21 सीटें ही मिली थीं. 

साल 2008 का विधानसभा चुनाव भी दिलचस्प था. कांग्रेस 2018 में बहुमत से एक सीट पीछे थी, जबकि 2008 में सत्ता से 5 सीट दूर थी. हालांकि, निर्दलीय और अन्य के समर्थन से कांग्रेस की ही सरकार बनी थी, लेकिन इस बार जीत में सामान्य सीट नहीं, दलित सीट नहीं, बल्कि आदिवासी वोटर कांग्रेस की तरफ रुख कर गये थे. 141 सामान्य सीटों पर कांग्रेस और बीजेपी को 62-62 सीटें मिली थी, जबकि दलित की 34 सीटों पर कांग्रेस को 18 और बीजेपी को 14 सीटें मिली थी. जाहिर है कि सामान्य और दलित सीट से कांग्रेस को सत्ता नहीं मिलती, बल्कि आदिवासी वोटर कांग्रेस पर मेहरबान हो गये थे. आदिवासी की 25 सीटों में कांग्रेस को 16, बीजेपी को सिर्फ 2 और अन्य को 7 सीटें मिली थी.  

अब सबकी नजर है इसबार दलित और आदिवासी वोटर किस पार्टी की चुनावी नैय्या पार कराती है.
 

धर्मेन्द्र कुमार सिंह चुनाव और राजनीतिक विश्लेषक हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

(हेडलाइन के अलावा, इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है, यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)

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