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This Article is From Feb 14, 2017

वैलेंटाइन-डे से घबराया हुआ मेरा समाज और भारतीय सौंदर्य बोध...

Dharmendra Singh
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    February 14, 2017 14:42 IST
    • Published On February 14, 2017 14:42 IST
    • Last Updated On February 14, 2017 14:42 IST
आज वैलेंटाइन डे है. इसके पक्ष या विपक्ष में लिखने का मेरा कोई उद्देश्य नहीं है. न इसके औचित्य और अनौचित्य पर कोई निर्णायक टिप्पणी करने की मंशा है. इतिहास का छोटा मोटा विद्यार्थी रहे होने की वज़ह से मन को रोकना मुश्किल होता है. इस दिन को लेकर हमारे समाज के कुछ संस्कृतिनिष्ठ लोगों में एक उहापोह रहती है. कुछ इसे 'भारतीय संस्कृति' पर हमला ठहराते हैं तो कुछ नई पीढ़ी के लोग इसकी लोकप्रियता को प्राचीन दैहिक वर्जनाओं के ख़िलाफ़ एक स्वाभाविक आकर्षण का परिणाम मानते हैं. मैं बिना किसी पर कोई निर्णय दिए चुपचाप अपने इसी समाज को टटोलना चाहता हूं. वैलेंटाइन डे से घबराया हुआ मेरा यह समाज ऐसे उत्सवों के प्रति क्या सदा से अनुदार रहा है? क्या यह इतना 'बंद' समाज रहा है जहां कभी भी युवा-युवतियों को खुलकर मिलने जुलने और प्रेम अभिव्यक्ति करने के मौके नहीं उपलब्ध थे. क्या ऐसे मौकों का प्राचीन समाजों में कोई उपलब्ध सामाजिक-सांस्कृतिक फॉर्मेट नहीं था जिसे पूरे समाज ने स्वीकार्यता दे दी हो! या फिर उस दौर में भी ऐसा प्रदर्शन करने पर ठोंक पीट दिया जाता था या फिर समाज उन्हें अनुदार दृष्टि से ही देखता था!

जहां तक इतिहास की मेरी छोटी मोटी समझ है, पुराने भारत देश के साहित्य और इतिहास में मदनोत्सव नाम के उत्सव का उल्लेख  मिलता है. कट्टरता जैसी कोई चीज बिलकुल न रही हो यह तो नहीं दिखाई पड़ता. चार्वाक और अजित केशकंवली जैसे भौतिकवादियों की कोई भी किताब आज तक नहीं मिली है. उनके उद्धरण यत्र तत्र प्राचीन भारतीय दार्शनिकों के ग्रंथों में मिलते हैं. लेकिन उन लोगों और उन जैसे दूसरों की किसी ने अपने विचार प्रस्तुत करने पर पिटाई कर दी हो. यह कहीं नहीं मिलता. इधर कुछ दिनों से एक किताब पढ़ रहा था. डॉ. राम विलास शर्मा की - भारतीय सौन्दर्य बोध और तुलसीदास. संस्कृतिनिष्ठ उग्र युवा पीढ़ी को यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए. हमारे प्राचीन समाज आज से तुलना करने पर कम ही कुंठित लगते हैं. पारिवारिक और गार्हस्थिक प्रेम का आदर्श अभीष्ट था. लोग चाहते थे कि उनका प्यार युवावस्था की चंचलता से आगे जीवन के सांध्य-काल तक पहुंचे-वृद्धावस्थापर्यन्त-भग, अर्यमा, सरिता और पुरन्धि देव उसे स्थिरता दें. ऋग्वेद(10.85.47) लेकिन युवकों और युवतियों के आपसी मेल जोल पर कोई रोक टोक नहीं थी. इसी किताब का एक उद्धरण है-

"वैदिक काल में एक प्रकार के उत्सव में स्त्री-पुरुष दोनों इकट्ठे होते थे, उसे 'समन' कहते थे. उषा की तुलना एक मन्त्र में समन में जाने वाली स्त्री से की गई है-समनगा इव: ...समन शब्द की व्याख्या करते हुए वैदिक इंडेक्स के लेखकों ने पिशेल का यह मत उध्दृत किया है कि 'समन'एक लोकप्रिय उत्सव था जहां स्त्रियां युवकों के साथ आनंद के लिए आती थीं. यह रात भर चलता था.

लेखक ने आगे लिखा है, "युवकों और युवतियों को आपस में मिलने की पूर्ण सुविधा थी. जल देवियों से सोम मिश्रित होता है. कवि को युवकों और युवतियों का मिलना याद आता है" जैसे सोम में जल मिलता है उसी तरह. वेदों में जल देवियों की चर्चा है. आप (देवी) जल देवियां अग्नि को वैसे ही स्वच्छ करती हैं जैसे -अस्मेरा: युवतय: युवानम्-अभिमान से रहित युवतियां युवकों से मिलती हैं". ये जो 'समन'  था, वेदों के युग में-क्या नहीं लगता कि वह अपने समय का वैलेंटाइन ही था. जहां यहां तक मान्य था कि 'अविवाहित तरुण स्त्रियां अपने जीवन का अकेलापन सहन नहीं कर सकतीं (ऋग्वेद;6.67.7).यह अकुंठ ऐंद्रिक बोध, जरा सोचो, ईसा मसीह की पैदाइश से डेढ़ हजार साल पहले से यहीं इस देश में मौजूद था. समाज को स्वीकार्य भी था.

फिर मदनोत्सव तो था ही! जहां 'दोपहर के बाद सारा नगर मदमत्त हो जाता था... नगर की कामिनियां मधुपान करके ऐसी मतवाली हो जाती थीं कि सामने जो कोई पुरुष पड़ता, उस पर पिचकारी (श्रृंगक) से जल की बौछार करने लगतीं. 'क्या ये प्राचीन युवा युवतियां 'संस्कृति-विरोधी' थीं. संभव है रहे हों.. होना भी चाहिए. अंततः संस्कृतियों को बनाया और  मिटाया तो उन्होंने ही है, लेकिन इस बात का उल्लेख ख़ुद हर्षवर्धन की स्व-रचित पुस्तक 'रत्नावली' में भी नहीं मिलता कि उन्मुक्त होकर मिलने जुलने वाले युवा-युवतियों किसी भी रूप में समाज तंग नजरिये से ही देखता हो. हर्षवर्धन ने वस्तुतः रत्नावली में युवक-युवतियों के परस्पर सम्मिलन के कई कई ऐसे ब्योरे दिए हैं जिन्हें पढ़कर यह आश्चर्य होता है कि संस्कृति इस देश और समाज के लिए कितने व्यापक और मुक्त हृदय का विषय रही है. भवभूति के मालती माधव से पता चलता है किसमाज के अभिजन या  इलीट लोग ही नहीं बल्कि समाज के हर वर्ग के लोग इस उत्सव को किस उन्मुक्तता से मनाते थे!

'उत्सव के दिन मदनोद्यान में, जो विशेष रूप से इसी उत्सव का उद्यान होता था और जिसमें कामदेव का मंदिर हुआ करता था, नगर के स्त्री पुरुष एकत्र होते थे और कंदर्प  की पूजा करते थे.

'उद्दामप्रमदाकपोलनिपतत'....
(सन्दर्भ-मदनोत्सव; ह.प्र. द्विवेदी)

हर्ष रचित इसी रत्नावली में वेश्याओं के मुहल्लों में उन 'नागरिकों' के जाने के उल्लेख भी मिल जाते हैं जो ' पिचकारियों में सुगन्धित जल भरकर वेश्याओं के कोमल शरीर पर फेंका करते थे और वे सीत्कार कर के सिहर उठती थीं... वे मदपान से मत्त हो उठतीं थीं. नाचते नाचते उनके केशपाश शिथिल हो जाते थे. कबरी (जूड़ा) को बांधने वाली मालती माला खिसककर न जाने कहां गायब हो जाती थी...

'स्त्रस्त: स्त्रगदामशोभाम त्यजति
विरचितान्यकुलः केशपाश: .
(वही,ह.प्र. द्विवेदी)

इस सबके बीच न कहीं कोई जुगुप्सा दिख पड़ती है और न कोई घृणा. हिंसक तरीके से किसी को रोके जाने के द्रष्टान्त दूर दूर तक नहीं मिलते. इस देश का इतिहास ऐसे अनेक उद्धरणों से अटा पड़ा है जहां दैहिक अनुभूतियों का उद्दाम प्रकटन साहित्य में भी हुआ है और शिल्प में भी. खजुराहो के अनाम शिल्पी को कौन भूल सकता है. मन यह बरबस ही कल्पना कर उठता है कि क्या अपने युग में उस  साहसी शिल्पी को भी सृजन के वह जोखिम उठाने पड़े होंगे जो आज के कथित 'नए' जमाने में लोग उठा रहे हैं? क्या गीतगोविन्द के रचयिता जयदेव ने कृष्ण और राधा के उन्मुक्त रति-चित्रण करते हुए किसी तरह के सामाजिक और सांस्थानिक विरोध उठाए होंगे. क्या वह हमलों के शिकार कलाधर्मी थे! क्या वह ऐसे उन्मुक्त दैहिक विवरणों के चित्रण पर समाज से बहिष्कृत हुए थे. इतिहास में इस तथ्य का कोई समर्थन नहीं है. वह स्वीकृत हुए. खेतों में काम करते हुए किसानों और श्रमिकों को जयदेव के गीतगोविन्द ने उनकी थकान को थामे रखा...

'प्रविश राधे माधवसमीपमिह
विलस कुचकलसतरलहारे .
कुसुमचयरचितशुचिवासगेहे
प्रविश राधे माधव समीपमिह.'

संस्कृति कोई जड़ चीज नहीं है. किसी भी दौर में वह जड़ नहीं रही. हर दौर के इंसान ने अपने समय के 'सौंदर्य बोध' को अपने अपने तरीक़े से हासिल किया है. किसी पर हमलावर होकर संस्कृति की रक्षा करने का कोई उल्लेख उन ग्रंथों में नहीं मिलता जिनसे 'संस्कृति प्रेमी' प्रायः प्रेरणा लिए दिखाई पड़ते हैं. जिस संस्कृति की रक्षा आपका लक्ष्य है उसकी निर्मिति ही अकुंठ उन्मुक्तता से हुई है. उसकी सन्तुलन साधना अप्रतिम है. देह और देहातीत- जीवन के इन दोनों प्रारूपों को इस संस्कृति ने बराबर स्थान दिया है. इसमें ऐहिक और अलौकिक दोनों का  स्थान है. लोगों को खुद चयन करने दो. जो जैसे जीना चाहता है उसे निरापद जीने दो... जीवन के उस बिंदु तक जहां तक वह आपके न्याय-प्रदत्त जीवन-क्षेत्र में अतिक्रमण नहीं कर जाता. इस देश की न्यायपालिका में भले ही न्यायमूर्तियों की संख्या आबादी के लिहाज से कम हो, वह यह निर्णीत करने में दक्ष हैं कि श्लील क्या है, अश्लील क्या? द्रष्टव्य क्या है, अ-द्रष्टव्य क्या... उन पर आस्था रखो. व्यवस्था और संविधान पे भरोसा रखो. क्योंकि जिस संस्कृति की इमारत के आप स्व-नियुक्त द्वारपाल हैं उस संस्कृति के आंगन के सभी दरवाजे बाहर की ओर खुलते हैं. खिड़कियों से इल्म और इंसानियत की बादे-सबा बहती है.

धर्मेंद्र सिंह भारतीय पुलिस सेवा के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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