आसमान पर क्या अब केवल धूल और धुएं का ही राज रहेगा...

आसमान पर क्या अब केवल धूल और धुएं का ही राज रहेगा...

गत तीन दिनों से उज्जयनी सुबक रही है. सूरज नहीं निकला. बादल नहीं दिखे. इंद्रधनुष तो छोड़ ही दो! वह तो लड़कपन में ही दिखा था. उज्जयनी में यूं भी इंद्रधनुष कहां दिखते हैं! बराहमिहिर ने इंद्रधनुष देखा था! मेघों के जलकणों पर जब सूर्य छितराता हो, तो इंद्रधनुष बन जाता है.

'सूर्यस्य विविधा वर्णा पवनेन विघट्टीतकरःसाभ्रे
वियति धनुःसंस्थानः ये दृश्यन्ते तदिन्द्र धनुः।'


पर उज्जयनी केवल नगर कहां है? उज्जयनी राजधानी है. राजधानी में इंद्रधनुष नहीं बनते. मैं यह असंभाव्य आशा क्यों करूं, परंतु आकाश का एक स्वच्छ टुकड़ा तो मेरा हक़ है. एक छोटा सा टुकड़ा भर! क्या उज्जयनी इतनी निर्बल है जो अपने नागरिक को एक स्वच्छ टुकड़ा आकाश न दे सके? संगो-खिस्त के इस शहर में बादलों का तसब्बुर ही बचा था! वह भी जाता रहा. सीना खोलकर 'धूप पिए' बहता हुआ पानी क्या अब केवल कविताओं में ही बहता हुआ मिलेगा!
'धूप पिए पानी लेटा है सीना खोले.'

उड़ते-उमड़ते मेघ क्या केवल 'मेघदूत' में ही पढ़ने को मिलेंगे? उज्जयनी के आसमान पर क्या अब केवल धूल और धुएं का ही राज रहेगा? कालिदास के यक्ष ने विकल होकर पूछा था - 'धूम्रज्योति: सलिलमरुतां सन्निपात: क्व मेघ:'. 'धुएं, पानी, धूप और हवा का जमघट बादल कहां.'

कालिदास के मेघों में यही चार अवयव थे. धुआं, पानी, धूप और कुछ हवा. यही थे कालिदास के बादल जिनको दूत बनाकर उसने अपनी प्रिया को बिरह-संदेश भेजा था. अब उज्जयनी बदल गई है. आसमान धुंध में खो गया है. मेघों से पानी धूप और हवा तिरोहित हो गए हैं. धूल बची है. आसमान काला पड़ गया है. उज्जयनी मैली हो गई है.

हमारे हृदय का ही मैल विस्तार पा गया है. यह अपारदर्शिता जो धूल और धुएं के रूप में उज्जयनी के नभ को घेरे हुए है, हमारी ही प्रति-रचना है. यह हमें अधिक सुहाती है, लुभाती है. इस अपारदर्शी धुंध में हम वह सब कर लेते हैं, जो इसकी विपरीत अवस्था में नहीं कर पाते. यह अपारदर्शिता हमें सूट करती है. शाहों को, नौकरशाहों को, नागरिकों को, कलाकारों को, बौद्धिकों को, दार्शनिकों को, यह अपारदर्शिता हम सभी को अच्छी लगने लगी है. हमारे गुरुत्व-बल ने इसे रोक लिया है. हमने इसे उज्जयनी में शरण दे दी है. धुएं और धुंध की यह अपारदर्शिता ही हमारे युग के मेघों की घटक है. पानी, हवा और धूप तो पुराने पड़ गए. यह धुंध हम सबने मिलकर बनाई है. इसमें सबका योगदान है. चूल्हों का भी, चिमनियों का भी.

एक टुकड़ा साफ़ आसमान हम सबकी तलाश है. इस प्रभूत धुंध में जो घनीभूत ही हुई जा रही है, एक और बड़ी खोज अपरिहार्य है. एक आदमी की ख़ोज जो उज्जयनी की धुंध में खो गया है.

'मैं उसे खोजता हूं
जो आदमी है
और अब भी आदमी है
तबाह होकर भी आदमी है
चरित्र पर खड़ा
देवदार की तरह बड़ा'

(केदार नाथ अग्रवाल: मैं उसे खोजता हूं)


धर्मेंद्र सिंह भारतीय पुलिस सेवा के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं...

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