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This Article is From Dec 16, 2014

मनीष कुमार की कलम से : लोकसभा चुनाव के सदमे से कब उबरेगी कांग्रेस?

Manish Kumar, Vivek Rastogi
  • Election,
  • Updated:
    दिसंबर 16, 2014 20:30 pm IST
    • Published On दिसंबर 16, 2014 20:27 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 16, 2014 20:30 pm IST

झारखंड में पार्टी के उम्मीदवारों के लिए प्रचार करने कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी बुधवार को राज्य में आ रहे हैं, लेकिन पार्टी के नेता और कार्यकर्ता मानकर चल रहे हैं कि चुनावी नतीजों पर इसका कोई खास असर नहीं होने वाला।

कांग्रेस के बड़े नेता भी इन दिनों एक ही दावा करते सुनाई-दिखाई देते हैं कि उनकी पार्टी विधानसभा चुनाव के नतीजों में यूपीए के घटक दलों के बीच सबसे बड़ी पार्टी रहेगी, लेकिन याद रखने वाली बात यह है कि यूपीए के घटक दलों में कांग्रेस के अलावा यहां सिर्फ राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) हैं, जिन्हें इन चुनावों में अगर दो से चार सीटें भी मिल जाएं, तो उनके लिए वह संतोषजनक प्रदर्शन होगा।

कांग्रेस पार्टी की दुर्दशा का आलम यह है कि अगर आप रांची से किसी भी दिशा में 200 किलोमीटर की भी यात्रा कर लेंगे, तो भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के सैकड़ों की तादाद में लगे पोस्टरों-बैनरों की तुलना में कांग्रेस के पोस्टर-बैनर इक्का-दुक्का ही दिखेंगे। गुरुवार को खत्म होने जा रहे पूरे 45 दिन के चुनाव प्रचार अभियान के दौरान कांग्रेस के पास कोई स्टार प्रचारक तक नहीं था।

दरअसल, पार्टी की शुरुआत ही खराब रही थी, और वह कुछ नेताओं की ज़िद की वजह से आरजेडी और झामुमो के साथ 'महागठबंधन' बनाने से चूक गई, क्योंकि अगर झामुमो के साथ गठबंधन होता तो शायद परिणाम कुछ बेहतर हो सकते थे।

दूसरा, पार्टी के नेता अहंकार के चलते बाबूलाल मरांडी को भी साथ नहीं ले पाए, जिसके चलते पार्टी के पास कोई खास चेहरा तक नहीं बचा। पार्टी के भीतर गुटबाजी का आलम यह है कि कोई भी नेता किसी दूसरे के साथ संयुक्त रूप से प्रचार करने तक नहीं जाता। ऊपर से, आलाकमान ने भी चुनाव जीतना तो दूर की बात, संघर्ष करने तक के लिए भी न कोई रणनीति बनाई, न संसाधन उपलब्ध करवाए।

उधर, बीजेपी, जिसके लिए खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह न सिर्फ प्रचार की कमान संभाले रहे, बल्कि हर क्षेत्र में चुनाव जीतने के लिए रणनीति बनाने या संसाधन मुहैया कराने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। सो, ऐसे में कांग्रेस राज्य में कुछ ही सीटों पर सिमटकर रह जाए तो कतई हैरानी नहीं होगी।

लेकिन अब बड़ा सवाल यह है कि आखिर पार्टी लोकसभा चुनाव के नतीजों के सदमे से कब उबरेगी, और कब अपने कार्यकर्ताओं-नेताओं के साथ एक सशक्त विकल्प की भूमिका निभाएगी, या वह झारखंड विधानसभा चुनाव की तरह ही कुछ और राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी हाथ पर हाथ धरे बैठी रहेगी।

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