अगर आप छतों पर चढ़कर सर्वे करना चाहते हैं तो आपको मेरठ के गांव किनानगर जाना चाहिए। इस गांव में सभी जातियों ने अपनी-अपनी पसंद की पार्टियों के झंडे छतों पर टांग दिए हैं। आप इन झंडों को गिनकर बता सकते हैं कि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को कितने वोट आएंगे और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) या समाजवादी पार्टी (सपा) को कितने। छतों पर लहरातें ये रंगीन झंडे बता रहे हैं कि किसी एक पार्टी के पक्ष में लहर नहीं है।
इस गांव में आबादी के हिसाब से सभी जातियां हैं, मगर बहुलता के हिसाब से जाटव समाज पहले नंबर पर है। यहां जाटवों के छह हज़ार वोट हैं। जाटव बसपा के समर्थक माने जाते हैं और उत्तर प्रदेश में दलित बिरादरी का 70 फीसदी हिस्सा जाटवों का ही है। गांव में घुसते ही जाटवों का मोहल्ला पड़ता है। सबकी छतों पर बसपा का नीला झंडा लगा हुआ है। जाटवों के मोहल्ले में किसी दूसरी पार्टी का झंडा है ही नहीं। यहीं के लोगों का कहना है कि वे सिर्फ बसपा को वोट करते हैं, मगर उन्हें इस बात का दुख भी है कि दूसरी पार्टी के उम्मीदवार औपचारिकता निभाने के लिए भी वोट मांगने नहीं आते। आते तो एक वोट तो मिलता।
यह हमने भी देखा। उस गांव में सपा उम्मीदवार की छोटी सभा थी, बाल्मीकि बस्ती में। उम्मीदवार का काफिला छह हज़ार के वोट वाले मोहल्ले की तरफ रुका भी नहीं। सीधा मात्र साढ़े तीन सौ वोट वाली बाल्मीकि बस्ती में चला गया। जाटव समाज के लोगों ने कहा कि बीजेपी के उम्मीदवार भी बिना वोट मांगे चले गए। ज़ाहिर है, सब पार्टी का अपना वोट बैंक है। जिसकी संख्या कम है और जिसकी अपनी कोई पार्टी नहीं है, उसी को लेकर सारी पार्टियों में मारा-मारी है।
खैर, मैं जब जाटवों के मोहल्ले से निकलकर सवर्णों की तरफ गया तो उनकी छतों पर सिर्फ बीजेपी के झंडे लहरा रहे थे। ठाकुरों और ब्राह्मणों के घरों पर बीजेपी का झंडा। साफ-साफ दिख रहा था कि बीजेपी की तरफ किस जाति का झुकाव है। जैसे ही हम वहां से निकलकर मुसलमानों के मोहल्ले में गए, उनकी छतों पर सिर्फ समाजवादी पार्टी के झंडे लहरा रहे थे।
यानि, इन झंडों को गिनकर आप बता सकते हैं कि इस गांव में किस पार्टी के साथ कौन जाति है और कितना वोट है। जाति संबंध बेहतर तो हुए हैं, मगर राजनीतिक संबंधों में अभी भी बदलाव नहीं है। क्रिकेट पर जान लुटाने वाले ठाकुरों को इस बात का गर्व भी नहीं कि उनके गांव का कोई दलित क्रिकेट की गेंद बनाता है और दूसरी तरफ शोषित जाटव समाज बाल्मीकि समुदाय को अपने से कम समझता है। इस चुनाव में किसी दल ने जात-पात के खिलाफ संघर्ष नहीं किया। जिन दलों और नेताओं ने बात भी की, वे जाति के हिसाब से उम्मीदवार उतारने लगे और जाति के वोट के लिए दलों से समझौता करने लगे।
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