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    कुर्सी बचाने के चक्कर में क्या अपनी राजनीतिक साख पर बट्टा लगा रहे हैं नीतीश कुमार?

    बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार गठबंधन की राजनीति और विधानसभा के अंदर अपने फैसलों के कारण आजकल चर्चा में हैं. नीतीश शायद देश के ऐसे गिने चुने नेताओं में से होंगे जिन्होंने अपने सहयोगी से रूठकर, सहयोगियों के साथ जहां संयुक्त विधायक दल की बैठक ना बुलाने की ज़रूरत समझी, बल्कि मंगलवार को तो विधानसभा अध्यक्ष से रूठकर अपनी पार्टी के मंत्रियों और विधायकों के साथ सदन में अनुपस्थित रहे. जबकि इसी मानसून सत्र के लिए जनता दल विधायक दल की बैठक में उन्होंने न केवल उपस्थिति बल्कि सतर्क और मुस्तैद रहने का मंत्र दिया था, जो कि अख़बारों में छपा भी था. 

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    'अग्निपथ' ने नीतीश और उनके सुशासन की पोल खोलकर कैसे रख दी...

    भाजपा नेताओं के अनुसार नीतीश कितनी भी शिष्टाचार की बात कर लें, लेकिन उनमें इतना दंभ भरा है कि वो अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझते. फिलहाल नीतीश को साथ रखना इन अपमानजनक घटनाओं के बाद भी भाजपा की मजबूरी है और इस कड़वे सत्य के सामने सब चुप हो जाते हैं.

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    नीतीश कुमार का शासन इतना लुंजपुंज क्यों है ?

    नीतीश के शराबबंदी का सच यह है कि सर्वोच्च न्यायालय बार-बार उनके क़ानून पर असंतोष ज़ाहिर कर चुका है. इसको विफल कराने में जो माफिया सक्रिय हैं उसमें पुलिस की भी सक्रिय भूमिका भी किसी से छिपी नहीं है और उसके मुखिया पिछले सोलह वर्षों से अधिक समय से नीतीश कुमार खुद हैं.

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    बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मीडिया के सवालों से क्यों भाग रहे?

    नीतीश मीडिया के सवालों से भाग रहे हैं तो उन्होंने अपने ब्रांड नीतीश या सुशासन बाबू की इमेज को खुद से मिट्टी में मिला रहे हैं, वो एक तरह से मान रहे हैं कि जिन अंतर्विरोधों के बीच वो आज सरकार चला रहे हैं उसके बाद उनके पास जवाब देने को तर्क नहीं हैं.

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    नीतीश कुमार CM रहेंगे या नहीं, BJP में इस पर एक राय क्यों नहीं?

    भाजपा नेता ये भी तर्क देते हैं कि नीतीश अगर कुर्सी पर ना रहे तो उनके विधायकों में भी असंतोष बढ़ेगा और उनका दोतरफा विभाजन होगा. एक भाजपा की तरफ़ और दूसरा राजद के पक्ष में हो सकता है.

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    लुधियाना से लखनऊ तक, नीतीश कुमार का सफ़र क्यों उनके राजनीतिक पतन की कहानी बयां करता है...

    नीतीश को इस बात का आभास है कि भाजपा देर सवेर उनका वही हश्र करेगी जो यूपी की राजनीति में बसपा का हुआ. नीतीश के समर्थकों की शिकायत या रोना है कि उनके नेता जिन चीज़ों के लिए भारतीय राजनीति में जाने जाते थे जैसे एक अच्छे वक्ता के रूप में, सुशासन बाबू के तौर पर वो सब अब खोते जा रहे हैं.

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    समाज सुधारक बनने के चक्कर में नीतीश कुमार ने अपनी छवि को ही धक्का पहुंचाया

    बिहार में शराबबंदी सफल नहीं हुई तो नीतीश के ऊपर ही इसकी ज़िम्मेवारी इसलिए बनती है क्योंकि चाहे नालंदा में उनकी पार्टी के नेताओं की गिरफ़्तारी का मामला रहा हो या उनके मंत्रिमंडल सहयोगी रामसूरत राय के भाई के विद्यालय से शराब की ज़ब्ती का, नीतीश की कथनी और करनी में उन जगहों पर फ़र्क साफ दिखता रहा.

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    चिराग पासवान : खुद को सियासत में सबसे होशियार समझने की भूल पड़ी भारी

    नीतीश कुमार- जिन पर चिराग पासवान ने बिहार चुनाव के दौरान हर रैली में हमले किए-उन्होंने अपना बदला ले लिया है.हमेशा की तरह बीजेपी ने भी एक बड़ी बढ़त हासिल की है. उसके नेताओं का कहना है कि चिराग का कद छोटा होने के साथ पार्टी ने बिहार में पासवान समुदाय की 6 फीसदी आबादी को सीधे अपने पाले में लाने की कवायद तेज कर दी है. ऐसे में लंबे वक्त में पार्टी को ऐसे किसी सहयोगी की दरकार नहीं होगी, जो उस समुदाय का वोट उसके लिए जुटाए. 

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    प्रशांत किशोर के 'संन्यास की घोषणा' के बाद अब आगे क्या? नयी चुनौती के क्या होंगे मायने?

    2 मई को, जब पांच राज्यों के परिणाम घोषित किए गए, तो प्रशांत किशोर को न केवल बंगाल की जीत, बल्कि तमिलनाडु की जीत के लिए भी क्रेडिट मिला, जहां उन्होंने एमके स्टालिन के साथ काम किया था, जो 68 साल की उम्र में पहली बार मुख्यमंत्री बने हैं. उनके करीबी सूत्र बताते हैं कि अभियान को अंजाम देना मुश्किल था क्योंकि प्रशांत किशोर ने खुद को बंगाल में ट्रांसप्लांट कर लिया था;

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    आप पसंद करें या नापसंद लेकिन देश की राजनीति में प्रशांत किशोर को नज़रअंदाज करना मुश्किल

    प्रशांत किशोर जिन्हें लोग PK के नाम से अधिक जानते या बुलाते हैं, ने बंगाल की जीत के बाद घोषणा कर दी है कि वे अब अपने वर्तमान काम को जारी नहीं रखना चाहते. लेकिन पीके के घोर विरोधी, जिनकी संख्या उनके चाहने वालों से कहीं अधिक हैं, की इस बात पर यही प्रतिक्रिया होती हैं कि आप पानी से मछली निकाल सकते हैं लेकिन राजनीति से प्रशांत का फ़ोकस शायद ख़त्म होने वाला नहीं.

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    बिहार में शराबबंदी के प्रति नीतीश कुमार की 'गंभीरता' कैसे मंत्री रामसूरत राय के कारण दांव पर लगी है?

    बिहार में आप मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के समर्थक हों या आलोचक, शराबबंदी के प्रति उनकी प्रतिबद्दता पर सवाल नहीं कर सकते. लेकिन उनके समर्थक हों या विरोधी वो साथ-साथ इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि शराबबंदी को लागू कराने में नीतीश सरकार विफल रही है जिसके कारण पूरे राज्य में एक समानांतर आर्थिक व्यवस्था कायम हुई है और जिसके सबसे अधिक लाभान्वित बिहार पुलिस के जवान, अधिकारी और अपराधी रहे हैं.

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    नीतीश कुमार को सोशल मीडिया पर गुस्सा क्यों आता है?

    इन दिनों सब यही जानना चाहते हैं कि नीतीश कुमार (Nitish Kumar) आख़िर क्यों सोशल मीडिया (Social Media) पर नियंत्रण रखना चाहते हैं. इसका सीधा जवाब है कि  बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सोशल मीडिया से चिढ़ है. ये बात इसलिए किसी से छिपी नहीं क्योंकि वो चाहे राजनीतिक कार्यक्रम हो या सरकारी सब जगह वो अपनी सरकार की नकारात्मक छवि का ठीकरा सोशल मीडिया पर फ़ोड़ते हैं. लेकिन बृहस्पतिवार को जो उनके मातहत पुलिस विभाग ने एक आदेश जारी किया है उसके बाद उनकी आलोचना ना केवल विपक्ष कर रहा है बल्कि मीडिया में भी उनके इस फ़ैसले की भर्त्सना करने की होड़ सी लगी है.

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    नीतीश कुमार के गुस्से के लिए उनकी आलोचना नहीं, उनके प्रति सहानुभूति की जरूरत

    इंडिगो एयरलाइंस के स्टेशन मैनेजर रूपेश कुमार की हत्या के सम्बंध में शुक्रवार को जब सवाल पूछा गया तो नीतीश कुमार आग बबूला हो गए. उनके जवाब से साफ़ था कि आपत्ति सवाल और सवाल पूछने वाले दोनों से है. कमोबेश पत्रकारों से दूरी बनाए रखने वाले नीतीश कुमार चुनाव में अपने निराशाजनक प्रदर्शन के बाद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कृपा से मुख्यमंत्री बनने के बाद मीडिया से अपने सम्बंध फिर पुराने दिनों की तरह सामान्य रखने लगे थे.

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    नीतीश कुमार के राजनीतिक पतन के लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहराना कितना सही

    बिहार में एनडीए के नेता के रूप में नीतीश कुमार एक बार फिर मुख्यमंत्री हैं. लेकिन ये भी सच है कि नीतीश कुमार के नाम और काम पर जो एनडीए चुनाव में गई उसमें सबका प्रदर्शन उम्मीदों के विपरीत निराशाजनक रहा. खासकर जनता दल यूनाइटेड का जो अब बिहार में तीसरे नंबर की पार्टी है. इस बात से भी कोई इनकार नहीं कर सकता कि नीतीश कुमार आज जनता से अधिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिन्हें पिछले चुनाव तक वो सामने से चुनौती देते थे, की कृपा से आज मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे हैं. साथ ही ये भी एक कड़वा सच है कि भाजपा ने उन्हें हाशिये पर ले जाने का जो भी प्रयास किया उसमें उसको आंशिक सफलता तो मिली. लेकिन जैसा अधिकांश राज्यों में अपने सहयोगियों को निपटा कर सत्ता में अपनी पकड़ मज़बूत करने का उनका लक्ष्य कामयाब होता रहा है, वो बिहार में अभी तक अधूरा है.

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    क्या शराबबंदी की विफलता के कारण नीतीश कुमार बिहार की विधि व्यवस्था सुधार नहीं सकते?

    ये बात किसी से छुपी नहीं है कि बिहार की विधि व्यवस्था दिनोंदिन खराब हो रही है. अपराध चाहे हत्या हो या डकैती, अपराधी शहर के बीचोंबीच दिन में ही वारदात को अंजाम दे देते हैं. दिक्कत यह नहीं है कि घटनाओं में वृद्धि हो रही है बल्कि समस्या यह है कि हाई प्रोफ़ाइल मामले भी महीनों अनसुलझे रह जाते हैं. और इसका सीधा असर नीतीश कुमार सरकार और उनकी अपनी व्यक्तिगत छवि पर पड़ता है. अब तो नीतीश कुमार के कट्टर समर्थक भी मानने लगे हैं कि करीब चार साल आठ महीने पूर्व जो राज्य में शराबबंदी उन्होंने की उसके कारण विधि व्यवस्था चौपट होती जा रही है. राज्य में अपराधियों और पुलिस के गठज़ोड ने जो एक समानांतर शासन कायम किया है उसने नीतीश कुमार के सुशासन की हवा निकाल दी है.

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    कैसे नरेंद्र मोदी ने बिहार चुनाव में नीतीश को निपटाने के चक्कर में तेजस्वी और चिराग को नेता बना दिया

    बिहार के चुनाव परिणाम की हर जगह, हर व्यक्ति अपने तरह से विवेचना कर रहा है. लेकिन इस चुनाव का सबसे बड़ा संदेश यही है कि नीतीश कुमार इस बार अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी तेजस्वी यादव, चिराग पासवान, उपेन्द्र कुशवाहा को पराजित कर कुर्सी पर नहीं बैठे हैं बल्कि एक बार फिर वे अपने सहयोगी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के रचे चक्रव्यूह को भेदकर निकले हैं.

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    चिराग पासवान- भाजपा की बी-टीम बनकर भी नीतीश कुमार को हरा नहीं सकते

    विपक्षी गठबंधन, जिसने 30 वर्षीय तेजस्वी यादव को अपना मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया है और इसमें कांग्रेस और वाम दल शामिल हैं, के प्रति आकर्षण बहुत कम है. और अगर, तीन हफ्ते पहले तक, चुनाव एक सौदा लग रहा था, तो 36 वर्षीय चिराग पासवान ने अब उसमें बहुत धार दे दी है.

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    मेरे रोल मॉडल पीएम मोदी हैं जिन्हें नीतीश कुमार ने धोखा द‍िया : चिराग पासवान

    मैं राजनीति में हूं औरा मेरा सपना एक अलग बिहार का भी है. मैं एक बात स्पष्ट कर दूं कि में नीतीश कुमार से मेरा कोई निजी अलगाव नहीं हैं जो कि इस चुनाव में एनडीए का चेहरा भी हैं. बिहार में एनडीए से अलग होकर मेरा अकेले चुनाव में जाने का फैसला मेरे उस यकीन की वजह से था कि अगर मेरे राज्य को विकास करना है तो इसे एक डबल इंजन की सरकार चाह‍िए जिसमें कोई बीजेपी नेता राज्य की कमान संभाले और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विजन आत्मनिर्भर भारत के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सके.

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    नीतीश को फिर CM बनाने की 'साजिश', PM मोदी से लेकर तेजस्वी, चिराग पासवान तक शामिल

    बिहार में दो से तीन महीने के दौरान विधानसभा चुनाव होंगे. इस बार मुक़ाबला निवर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए बनाम विपक्ष के नेता और राष्ट्रीय जनता दल में सुप्रीमो लालू यादव के राजनीतिक उतराधिकारी तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले महागठबंधन के बीच होगा. अभी तक के जो भी रुझान हैं उससे नीतीश कुमार अपने साथ चुनावी अंकगणित और सामाजिक समीकरण दोनो में तेजस्वी यादव पर भारी पड़ रहे हैं. लेकिन अगर नीतीश कुमार की पंद्रह वर्षों के बाद सत्ता में वापसी तय है तो इसके पीछे आपको प्रधानमंत्री , नरेंद्र मोदी , विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव और कुछ हद तक लोजपा नेता चिराग़ पासवान की साज़िश को समझना होगा कि कैसे इन्होंने अपने अलग-अलग निर्णय से नीतीश कुमार की वापसी तय कर दी है. 

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    'क्यों पहले से ही तय लग रहे हैं बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे?'

    बिहार में कोरोना का क़हर जारी है कोई नहीं जानता कि आने वाले दिनो में , हफ़्ते में या कुछ महीने में इस बीमारी का क्या स्वरूप होगा. लेकिन चुनाव की तैयारी में एनडीए सुनियोजित तरीक़े से लग गया है.  क्योंकि इस बात का भरोसा है कि चुनाव आयोग सही समय पर चुनाव कराएगा. वहीं विपक्ष में भी सरगर्मी तो दिख रही हैं लेकिन सब कुछ फीका फीका है. अगर आप बारीकी से देखेंगे तो चुनाव के नतीजे साफ़ दिख रहे है कि जो जहां हैं वो वहीं रहेगा. मतलब मुख्यमंत्री का ताज नीतीश कुमार के सर पर तो विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव को और इंतज़ार करना होगा. 

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