नीतीश कुमार को सोशल मीडिया पर गुस्सा क्यों आता है?

राजनीतिक कार्यक्रम हो या सरकारी, नीतीश कुमार सब जगह अपनी सरकार की नकारात्मक छवि का ठीकरा सोशल मीडिया पर फोड़ते हैं

नीतीश कुमार को सोशल मीडिया पर गुस्सा क्यों आता है?

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (फाइल फोटो).

इन दिनों सब यही जानना चाहते हैं कि नीतीश कुमार (Nitish Kumar) आख़िर क्यों सोशल मीडिया (Social Media) पर नियंत्रण रखना चाहते हैं. इसका सीधा जवाब है कि  बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सोशल मीडिया से चिढ़ है. ये बात इसलिए किसी से छिपी नहीं क्योंकि वो चाहे राजनीतिक कार्यक्रम हो या सरकारी सब जगह वो अपनी सरकार की नकारात्मक छवि का ठीकरा सोशल मीडिया पर फ़ोड़ते हैं. लेकिन बृहस्पतिवार को जो उनके मातहत पुलिस विभाग ने एक आदेश जारी किया है उसके बाद उनकी आलोचना ना केवल विपक्ष कर रहा है बल्कि मीडिया में भी उनके इस फ़ैसले की भर्त्सना करने की होड़ सी लगी है.

दिक़्क़त हैं चैनल पर चर्चा में कूदे उनके प्रवक्ता इसके पीछे की वजह गिनाने के बजाय एंकर से तू तू मैं मैं पर उतर आए. जनता दल यूनाइटेड के एक प्रवक्ता ने अपने सुप्रीम नेता को शुक्रवार को सांड की संज्ञा दी और शनिवार को भैंस की .

लेकिन सवाल है कि नीतीश कुमार सोशल मीडिया से नाराज़ क्यों चल रहे हैं. क्यों उनकी सरकार के इस आदेश को नकेल कसने की एक क़वायद माना जा रहा है. नीतीश कुमार की नाराज़गी के वजह कई हैं.एक तो जब से उन्होंने अख़बारों में आलोचना के बदले सरकारी विज्ञापन अस्थायी रूप से बंद करने का खेल शुरू किया तब से स्थानीय अख़बारों ने सरकार के ख़िलाफ़ खबरों को जगह धीरे धीरे कम कर दिया. और सबसे हास्यास्पद होता है कि विपक्ष के नेता जब तक सुशील मोदी रहे तो केंद्र में सरकार होने के प्रभाव के कारण उन्हें तो स्थानीय अख़बारों के पन्ने पर जगह मिलने में कठिनाई नहीं हुई लेकिन जैसे ही वो सत्ता में गए तो आप स्थानीय अख़बारों में विपक्ष और सता पक्ष का तुलनात्मक विश्लेषण करेंगे तो शर्म आ जाएगी. बिहार के अख़बारों के संपादकीय और प्रबंधन पर सरकार का ख़ौफ़ साफ़ झलकता है. कोरोना के बार में लोगों ने अख़बार पढ़ना शुरू में बंद किया और बाद में कम किया जिसके कारण सोशल मीडिया का प्रभाव खबरों के स्रोत के रूप में बढ़ा. जहां सरकार की कमियों को उजागर करने पर कोई बंदिश नहीं होती. 

लेकिन नीतीश कुमार अगर सोशल मीडिया से चिढ़ते हैं तो इसके पीछे की कहानी आपको समझनी होगी. एक तो इस मीडियम के प्रभाव के बारे में वो कभी गंभीर नहीं रहे, जिसका मूल्य वो चुका रहे  हैं. उन्होंने इसके महत्व को हमेशा कम कर आंका. वो चाहे भाजपा हो जिसने इस सोशल मीडिया को बहुत आक्रामक रूप से इस्तेमाल अपनी राजनीति और सरकार की उपलब्धि गिनाने में की, उसके विपरीत नीतीश हमेशा इसके प्रभाव को नज़रअंदाज़ करते रहे. जैसे अगर भाजपा से उनके सम्बंध 2013 में ख़राब हुए और उन्होंने अलग चलने का फ़ैसला लिया तो सबसे पहले नीतीश उनके निशाने पर आए. और इसका पहला उदाहरण था नालंदा विश्वविद्यालय जिसे नीतीश को घेरने के चक्कर में बेवजह विवादों में घसीटा गया. बिहार सरकार की एक बिल्डिंग जिसे नालंदा विश्वविद्यालय को अस्थायी रूप से क्लास चलाने के लिए दिया गया था उसके फ़ोटो को वायरल किया जाता था कि देखिए कैसे हज़ारों करोड़ का घोटाला हुआ. इसके कारण नोबेल पुरस्कार से सम्मानित प्रफ़ेसर अमर्त्य सेन पर भी खूब कीचड़ उछाला गया. लेकिन बाद के दिनों में प्रशांत किशोर जब उनकी पार्टी का चुनाव प्रबंधन देखते थे तब सोशल मीडिया में नीतीश का भी फ़ुटप्रिंट बढ़ा. उन्होंने भी खूब ट्विटर हो या फ़ेस्बुक उसका संवाद के लिए जमकर इस्तेमाल किया. वो एक ऐसा दौर था जब राष्ट्रीय चैनल पर नीतीश कुमार का संवाददाता सम्मेलन लाइव एक एक घंटे बिना ब्रेक के दिखाया जाता था. 

लेकिन जब तक नीतीश कुमार भाजपा की शरण में 2017 में वापस नहीं गए राइट विंगर ट्रोल या भाजपा के निशाने पर वो हर घटना के बाद रहे . लेकिन एक बार भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने के बाद उन्हें लगा कि अब तो सब चंगा होगा लेकिन इस बीच उन्हें अंदाज़ा ही नहीं रहा कि राष्ट्रीय जनता दल ने इस माध्यम को गंभीरता से लिया है और उन्होंने अपनी अच्छी ख़ासी फ़ौज तैयार कर रखी है. खासकर लालू हो या तेजस्वी जैसे ट्विटर के माध्यम से वे उन पर हमलावर रहते थे. वो उन्हें नागवार गुजरता था. और नीतीश अभी भी अपना काम काज सरकारी प्रेस विज्ञप्ति से चला रहे थे. उनका अति आत्मविश्वास कहिए या अहंकार वो तो अपने सरकार का वार्षिक रिपोर्ट कार्ड देने की जो परंपरा की शुरुआत खुद उन्होंने की थी उसे भी पिछले पांच वर्षों के दौरान ब्रेक दे दिया. 

लेकिन नीतीश इस सच्चाई को पचा नहीं पा रहे थे कि जब तक बिहार में महागठबंधन सरकार के नीतीश मुखिया रहे तब तक उन्हें देश की राजनीति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में देखा जाता था इसलिए उनकी बातों को टीवी और राष्ट्रीय अखबारों में प्रमुखता मिलती थी. लेकिन जैसे भाजपा शरणम गच्छामी हुए उन्हें भाजपा के सहयोगी बन जाने के कारण मीडिया में भाव मिलना कम हुआ और नीतीश खुद भी अपने इस राजनीतिक फ़ैसले के कारण मीडिया से कन्नी कटाने लगे. और उनकी तुलना में तेजस्वी यादव को कुछ अधिक सोशल मीडिया में उनकी सक्रियता के कारण जगह मिलना शुरू हो गया. नीतीश को ग़ुस्सा तेजस्वी के सोशल मीडिया पर सक्रिय होने से अधिक अपनी सरकार की ख़ामियों के बारे में वायरल वीडियो से होने लगी. जो उनकी सरकार के भ्रष्टाचार के बारे में अधिक होता था. ये एक ऐसा बिखरा हुआ टेक्नालॉजी पर आधारित मीडियम था जिसको चाहते हुए भी नकेल कसने की चाभी उन्हें नहीं मिल रही थी. 

सबसे अधिक नुक़सान कोरोना काल के बाद नीतीश ने अपना खुद का किया जिसमें आप कह सकते हैं कि सोशल मीडिया ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा. लेकिन उन घटनाओं को देखेंगे जैसी कोटा से जब बिहार के बच्चे वापस आना चाहते थे तो नीतीश ने उन्हें वापस लाने के लिए अपने साधन भेजने से मना कर दिया. बाद में जब सोशल मीडिया में फ़ज़ीहत हुई तो विशेष ट्रेन का ख़र्च तो उठाया लेकिन उसके पहले दिल्ली और उत्तर प्रदेश की योगी सरकार सारी वाहवाही लूट ले गई. वैसा ही जब श्रमिकों के वापस आने की बारी आई तो बिहार सरकार का जो ढुलमुल रवैया रहा है उसके कारण भी उनकी ख़ूब आलोचना हुई लेकिन फ़ैसले नीतीश कुमार के होते थे अधिकारियों का रोना था कि वो करें तो क्या करें लेकिन अब नीतीश अपनी गलतियों को स्वीकार करने के बजाए सोशल मीडिया को ढाल बनाकर सारा ठीकरा उसी के ऊपर फोड़ देते थे कि हमारी बातों को सोशल मीडिया ठीक से नहीं रख रही है. लेकिन सच्चाई यही होती थी कि क़रीब छह महीने तक नीतीश कुमार ने संवाददाता सम्मेलन तक नहीं किया. जबकि पटना के पत्रकार उनसे सप्ताह में दो बार इसके लिए गुहार लगाते थे. लेकिन इस बीच सोशल मीडिया, क्योंकि अख़बार तब ऐसे ही बिहार में लोगों का विश्वास कम हो गया था और कोरोना के बहाने उन्होंने पढ़ना भी बंद कर दिया. तब सोशल मीडिया से लोगों का जुड़ना और अधिक संख्या में हुआ और नीतीश कुमार की कई सारी योजनाएं जैसे हर घर नलका जल, शराब बंदी इसकी सच्चाई भी परंपरागत मीडिया से अधिक सोशल मीडिया में आने लगी जो कहीं से नीतीश कुमार को पसंद नहीं था. और अब नीतीश कुमार की दिक़्क़त यह है कि ना तो पार्टी में और ना ही सरकार में उनका पक्ष या अगर कोई उनके बारे में आलोचनात्मक लेख या रिपोर्ट चली है तो आख़िर सच्चाई क्या है या उनका पक्ष क्या है कि यह पहल करने का कोई भी उनका शुभचिंतक सामने नहीं आता. आप कह सकते हैं कि यह नीतीश कुमार की राजनीति की त्रासदी भी है कि वो जिन लोगों पर भी विश्वास करते हैं और जिन अधिकारियों के साथ वो हर दिन अपने जीवन के अधिकांश घंटे बिताते हैं लेकिन बात अगर उनका पक्ष रखने की होती है, आप सरकार के किसी कामकाज के बारे में जानकारी मांगकर थक जाएंगे लेकिन उस जानकारी से नीतीश कुमार का पक्ष अगर जनता के सामने आ जाए लेकिन कोई उनका नज़दीकी मंत्री और न ही कोई अधिकारी उनके प्रति इतनी वफ़ादारी रखता है कि वो आपको वो जानकारी दे देगा. इस बार के विधानसभा चुनाव में तो स्थिति यह थी कि नीतीश कुमार की पार्टी के बारे में पटना में कोई उपलब्ध भी नहीं होता था जबकि BJP और RJD में आप जाते तो हर समय अलग अलग नेता वहां हर जानकारी के साथ उपलब्ध होते थे.

आप विश्वास नहीं करेंगे या माथा पीट कर रह जाएंगे कि बिहार में जो पिछला विधानसभा चुनाव था वो अब तक के चुनावी इतिहास का सबसे शांतिपूर्ण चुनाव था कि जहां एक भी मतदान केंद्र पर पुनः मतदान की नौबत नहीं आई, जिस राज्य में मतदान केंद्रों पर सैकड़ों बूथ पर पुनर्मतदान का इतिहास हर चुनाव में दोहराया जाता हो, चुनाव पूर्व, मतदान के दिन और चुनाव के बाद हिंसा का इतिहास तो वह इतना शांतिपूर्ण चुनाव हो गया निश्चित रूप से इसका श्रेय नीतीश कुमार के नेतृत्व को जाता है क्योंकि उन्होंने 15 साल में बिहार में जो एक सामाजिक शांति क़ायम की है उसी का प्रभाव अब मतदान के दिन देखने को मिलता है. लेकिन आप इस सचाई पर हतप्रभ रह जाएंगे जब आपको इस बात का पता चलेगा कि सहयोगी या विपक्ष अगर इतनी बड़ी उपलब्धि का श्रेय, या इसके बारे में बातचीत नहीं करते हैं तो वो उनकी राजनीतिक मजबूरी हो सकती है लेकिन जनता दल यूनाइटेड का भी कोई नेता इसके बारे में चर्चा नहीं करता या इसका श्रेय सार्वजनिक रूप से नीतीश कुमार को नहीं देता है. और तो और जनता दल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राज्य कार्यकारिणी की बैठक हुई उसमें भी इतनी बड़ी उपलब्धि की कोई चर्चा नहीं हुई और ना उनके किसी प्रस्ताव में इसका ज़िक्र था. लेकिन यही नीतीश कुमार की राजनीति और सरकार की त्रासदी है जो उनकी असल उपलब्धि है उसके बारे में कोई बात नहीं करता है या ख़ुद नीतीश कुमार ने अपने सलाहकारों की मंडली को ऐसे सच से अवगत कराते  हैं. और जो उनकी सरकार की नाकामियां होती हैं तो विपक्ष अब सोशल मीडिया के माध्यम से इतना उजागर कर देता है कि नीतीश कुमार की परेशानी छिपाए नहीं छिप रही.

लेकिन सवाल यह है कि जो फ़रमान उनकी सरकार ने जारी किया है उसका नफ़ा नुक़सान क्या होगा. निश्चित रूप से इसका पहला सीधा लाभ  भ्रष्टाचार के आरोप जिन अधिकारियों पर लग रहे हैं वो इस नए आदेश की आड़ में अपने बचाव का रास्ता तो ढूंढ लिया है. लेकिन हां नीतीश कुमार की पूरे देश में छवि को धक्का ज़रूर लगा है. ये वही नीतीश कुमार हैं जो 1982 में उस समय के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा की सरकार द्वारा लाए गए प्रेस बिल के विरोध में पैतालीस से अधिक दिन पटना के फुलवारी शरीफ़ जेल में रहे.

हां एक बात सही है कि जिस लालू और नरेंद्र मोदी का विरोध कर वो अपने राजनीतिक जीवन के शीर्ष तक गए और जैसे ही उन्होंने पहले लालू यादव से समझौता किया तो भ्रष्टाचार का अपना मुद्दा खोया और बाद में नरेंद्र मोदी की शरण में गए तो अपने जीवन के एक और बड़े दावे कि संप्रदायिकता से कभी समझौता नहीं करूंगा, उसे भी अपनी कुर्सी बचाने के चक्कर में तिलांजलि दी. उसी तरह सोशल मीडिया पर ग़लत ख़बर चलाने पर कार्रवाई करने का जो नया आदेश आया है उसे प्रेस की स्वतंत्रता के संबंध में नीतीश कुमार जो भी दावे अब तक करते थे वो सब अब उन्होंने ख़ुद से मिट्टी में मिला दिए.

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(मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...)