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This Article is From May 07, 2021

आप पसंद करें या नापसंद लेकिन देश की राजनीति में प्रशांत किशोर को नज़रअंदाज करना मुश्किल

Manish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 07, 2021 21:35 pm IST
    • Published On मई 07, 2021 20:44 pm IST
    • Last Updated On मई 07, 2021 21:35 pm IST

चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर, बंगाल में ममता बनर्जी और तमिलनाडु में डीएमके की जीत के कारण एक बार फिर चर्चा में हैं. निश्चित रूप से इन दोनों राज्यों में एक साथ जीत के कारण उनके आलोचक, जिनकी संख्या उनके प्रशंसकों से कई गुना अधिक हैं, शांत रहने पर मजबूर हैं क्योंकि प्रशांत किशोर के बारे में दो सच्‍चाई हैं. एक, आज तक उन्होंने अभी तक पंचायत का चुनाव भी नहीं लड़ा लेकिन उसके बावजूद देश में एक क़ाबिल राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में उनकी छवि इस जीत के बाद और भी मज़बूत हुई हैं. दूसरी आप सत्ता में हो या विपक्ष में, अगर आपके सामने प्रशांत किशोर हैं भले ही आप विश्व के सबसे बड़े और मज़बूत साधन-संसाधन वाली भारतीय जनता पार्टी के नेता हो या कार्यकर्ता और चुनाव के मैदान में देश की संस्‍था और एजेंसियां आपकी मदद में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लगीं हो, इस रविवार की जीत के बाद अब धारणा ये बनती जा रही है कि आपकी जीत मुश्किल है और हार तय है.

प्रशांत किशोर, जिन्हें लोग PK के नाम से अधिक जानते या बुलाते हैं, ने हालांकि बंगाल की जीत के बाद घोषणा कर दी है कि वे अब अपने वर्तमान काम को जारी नहीं रखना चाहते. लेकिन पीके के घोर विरोधी की इस बात पर यही प्रतिक्रिया होती हैं कि आप पानी से मछली निकाल सकते हैं लेकिन राजनीति से प्रशांत का फ़ोकस शायद ख़त्म होने वाला नहीं. ऐसा कहा जाने लगा है कि प्रशांत किशोर बिना खाना खाये तो रह सकते हैं लेकिन राजनीति या राजनीतिक अभियान से उनको दूर रखना मतलब आज के समय के परिप्रेक्ष्य में ऑक्‍सीजन की सप्लाई बंद .

लेकिन आज के तारीख़ में सब यह जानना चाहते हैं कि आख़िर प्रशांत किशोर में ऐसा क्या गुण हैं कि सब मतलब वो चाहे नीतीश हो या उद्धव या जगन या ममता या कैप्टन अमरिंदर या अरविंद केजरीवाल, विधानसभा में जीत का लक्ष्य पाने के लिए अपनी पार्टी की रणनीति, नीति और उसे लागू करने के लिए सबसे बेहतर मानते हैं ? इसका जवाब अगर आप पीके से पूछेंगे तो वो यही कहते हैं कि वो अपने सामने वाले को कभी कम आंकने की गलती नहीं करते और जब भी किसी के साथ उनके प्रचार अभियान का काम संभालते हैं तो उसकी शक्ति से अधिक विरोधी के गुण-दोष का बारीकी से अध्ययन करते हैं. हर नेता के साथ उनका रवैया अलग-अलग होता हैं लेकिन वो 'मिड कोर्स करेक्शन' की गुंजाइश भी रखते हैं. जैसे 2015 के बिहार चुनाव के समय उन्‍होंने लालू यादव से तालमेल करने में शुरू के दिनो में अधिक दिलचस्पी नहीं दिखायी लेकिन जैसे ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली सभा मुज़फ़्फ़रपुर में हुई, उसी रात वो लालू यादव से मिलने पहुँच गये क्योंकि उस रैली से उन्हें अंदाज़ा हो गया था कि बिहार में नरेंद्र मोदी को मात देने के लिए लालू यादव के बिना इस चुनाव में बात नहीं बनने वाली. एक बार लालू यादव के साथ बातचीत का रास्ता खुल जाने के बाद प्रशांत ने पूरे चुनाव से सरकार बनने तक एक ‘ईमानदार संयोजक' की भूमिका अदा की. कई बार सीटों के नाम और उम्मीदवार को लेकर तालमेल खटाई में पड़ जाता था लेकिन मीडिया को इसकी भनक तक नहीं लगती थी. यही कारण हैं कि एक बार कांग्रेस पार्टी का यूपी में काम संभालने के बाद उन्होंने पटना का वापस रुख नहीं किया जिसका ख़ामियाज़ा उन्हें व्यक्तिगत रूप से उस समय उठाना पड़ा जब नीतीश ने भ्रष्टाचार के बहाने वापस भाजपा के साथ घर वापसी की .

यूपी के चुनाव में करारी हार के बाद ये बात अलग हैं कि पंजाब की जीत की कोई चर्चा नहीं करता.लेकिन ये भी सच हैं कि उस चुनाव में जब वो चंडीगढ़ पहुंचे थे तो उनके कई शुभचिंतकों ने उन्हें इस आधार पर दूर रहने की सलाह दी थी कि अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली सरकार बननी तय है. हर सर्वे में 'आप' को 100 से अधिक सीटें आ रही थीं और कैप्टन के बारे में मशहूर था कि वो गर्मियों में लंदन छुट्टियां मनाने जाते हैं और शायद ही वो प्रचार में जीजान से जुटे.लेकिन ये भी सच हैं कि बंगाल से पूर्व उस चुनाव में भी प्रशांत ने दावा किया था कि 75 से कम सीटें आएंगी तो वो ये काम छोड़ देंगे..हालांकि यूपी के नतीजों के बारे में उनकी यही सफ़ाई रहती हैं कि जो उन्हें कांग्रेस पार्टी के द्वारा वादा किया गया, वैसा हुआ नहीं और कई महीनों तक कैम्पेन ठप रहा था जिसका प्रतिकूल असर हुआ. लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस के नेताओं के साथ कटु अनुभव या यूपी में हुई हार के बाद उन्हें कोई  अधिक भाव नहीं दे रहा था. हालांकि जगन मोहन रेडी के लिए उनकी टीम ने काम करना शुरू कर दिया था. लेकिन यहां पर उन्होंने एक गलती की जिसका एहसास उन्हें पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान हुआ और वह थी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति अपने अंदर के स्नेह और प्रेम के चक्कर में वे फिर उनकी शरण में गये जो उनके राजनीतिक जीवन की एक चूक थी. ये इसलिए नहीं कि नीतीश, जिन्होंने बार बार सार्वजनिक रूप से माना कि उन्‍हें (प्रशांत को) राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अमित शाह के कहने पर बनाया लेकिन उसी भाजपा के दबाव में उन्हें दरकिनार भी कर दिया क्योंकि नीतीश के घर पर बैठकर जो युवाओं में जनता दल यूनाइटेड को पहुंचाने की पीके योजना बना रहे थे वह बिहार भाजपा के नेताओं को रास नहीं आ रही थी.

नीतीश को भी लग रहा था कि प्रशांत किशोर को लेकर भाजपा के साथ संबंधों को और मज़बूत किया जा सकता है इसलिए जनता दल के प्रवक्ताओं ने प्रशांत किशोर पर हमला बोलना शुरू किया तो उनके पास इस बात का प्रमाण था कि पार्टी अब उनको अलग थलग कर रही थी और इसके लिए नीतीश कुमार और BJP के बीच एक अलिखित समझौता हो चुका है लेकिन प्रशांत किशोर को अब इस बात में कोई कन्फ्यूजन नहीं था कि अगर उनको राजनीति और रणनीतिकार के रूप में अपने आपको बचाना है तो भाजपा को सामने से चुनौती दीजिए,  पराजित करने के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं इसीलिए जब लोकसभा चुनाव का परिणाम आ रहा था उस समय अपने पिता की मौत के कुछ दिन बाद भी प्रशांत किशोर हैदराबाद में जगन मोहन रेड्डी के साथ रिज़ल्ट देख रहे थे क्योंकि उनको इस बात का भी आभास हो गया था कि जगनमोहन अपनी ऐतिहासिक जीत के तुरंत बाद ही CBI और ED के मामलों के कारण सार्वजनिक रूप से IPAC के साथ संबंध विच्छेद की घोषणा करेंगे और हुआ भी वैसा ही. लेकिन तब तक बंगाल में जैसे ही BJP के 18 सीटें जीतने की ख़बर आई  ममता बनर्जी ने बिना समय गंवाए प्रशांत किशोर को फ़ोन करके तुरंत कोलकाता आने के लिए कहा. जिस प्रशांत ने 2016 में बिहार चुनावों के बाद भले ही कुछ महीनों के लिए ममता बनर्जी के काम करने के न्योते को बहाना बनाकर टाल दिया था, उन्‍होंने इस बार मौक़ा हाथ से नहीं जाने दिया क्योंकि उन्हें सामने से एक बार फिर नरेंद्र मोदी और अमित शाह से दो-दो हाथ करने का मौक़ा मिल रहा था.साथ ही उनकी टीम को एक नए राज्य और नई चुनौती से निबटने का अवसर भी मिल रहा थ. उन्‍हें मालूम था बंगाल के लिए 'करो या मरो' है और इसलिए दो साल का समय रहने के बावजूद एक भी पल गंवाया नहीं. बंगाल और तमिलनाडु चुनाव की निर्णायक जीत के पीछे प्रशांत किशोर और उनकी पूरी टीम की एक-एक दिन की मेहनत का भी परिणाम है.प्रशांत ने एक अच्छे कप्तान की तरह एक अच्छी टीम भी बनाई है, जिसके कुछ नाम जैसे ऋषि, प्रतीक, विनेष, ईशा और उनके नेतृत्व में काम करने वाले सैकड़ों लोगों की मेहनत का परिणाम होता है किसी चुनाव में जीत. जो लाइमलाइट से दूर रहकर उनके हर लक्ष्य को पाने के लिए जीजान से मेहनत करते हैं.

निश्चित रूप से जिन लोगों ने बंगाल में तृणमूल छोड़कर BJP का दामन थामा, उन्होंने प्रशांत किशोर को इसका एक मुख्य कारण बताया कि वो चाहे बड़े नेता हो या छोटे, वो इस बात को स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं रखते ये प्रशांत किशोर ही थे जिसके कारण चुनाव की पूर्व संध्या पर जब आयाराम गयाराम का दौर चला तो पार्टी में कोई हलचल या लोग उसके कारण पहली बार परेशान नहीं दिखे. उन्होंने मनोवैज्ञानिक रूप से हर एक नेता के बारे में सब कुछ पहले से लोगों को अलर्ट मोड पर रखा था इसलिए जैसे शुभेंदु अधिकारी  के बारे में यह कहा जाता था कि उनके जाने का प्रभाव सौ से अधिक सीटों पर दिखेगा, लेकिन प्रशांत बार बार यही कहते रहे कि उनके साथ 100 ब्लॉक अध्यक्ष भी नहीं गए हैं. जब प्रशांत किशोर ने दावा किया कि BJP सौ से अधिक सीटें अगर लाएगी तो वो अपने काम से संन्यास ले लेंगे तो तृणमूल के नेताओं को भी इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था और सबका कहना था कि प्रशांत अपनी आदत के अनुसार कुछ अधिक बोल  गए है लेकिन वह ट्वीट को करने के पहले ही उन्‍होंने हर विधानसभा का फीडबैक लेकर अपने गणित के हिसाब से ये दावा किया था जो चुनाव परिणाम आने के बाद साफ़ दिखाई दिया .

अब तक के प्रशांत किशोर के काम करने के अंदाज़ से कुछ बातें बिलकुल साफ़ थी. एक तो वो बेहतरीन रणनीतिकार है ज़मीन से जुड़कर या ग्रासरूट लेवल के फ़ीड्बैक को अपनी रणनीति में बहुत ज़्यादा महत्व देते हैं अपनी पहले की गलती नहीं दोहराते. लेकिन दूसरा पक्ष यह भी हैं कि वह बहुत भावनात्मक रूप से किसी के साथ संबंध नहीं रखते और राजनीति में सिद्धांतों के बारे में उनको लेकर लोगों में अभी भी काफ़ी कन्फ्यूजन है. कई लोग जहाँ पीके ने काम किया हैं, उन्हें बहुत अहंकारी मानते हैं लेकिन इसके बारे में प्रशांत किशोर की सफ़ाई होती हैं जब आप टॉप लीडर के साथ सुबह की चाय से दिन शुरू करे तो लोगों को आपसे ईर्ष्‍या होती है और आपका दिमाग़ भी अपने जगह नहीं रहता .

बंगाल के चुनाव परिणाम हों या तमिलनाडु के, चाहे अमित शाह हो या नीतीश कुमार, जिन्होंने बिहार चुनाव में अपनी सीटों की संख्या कम होने पर माना था कि पीके के रहने से उनकी अधिकांश समस्या का निदान हो जाता. दरअसल प्रशांत जो समस्या होती है, उसको बोलने में देरी नहीं करते. सब ये मानकर चल रहे हैं कि फ़िलहाल उनका साथ हो या नहीं, लेकिन सामने वाले को उनका साथ नसीब न हो. अब बड़ा सवाल हैं कि आने वाले समय में वो अपने ब्रांड को कैसे नई चुनौतियों से सामना करने के लायक बनाते हैं क्योंकि उन्हें भी मालूम हैं कि देश की राजनीति में दो राज्यों के परिणाम सबसे अहम माने जाते हैं वो हैं एक उत्तर प्रदेश और दूसरा गुजरात और यहां जब तक वे भाजपा को पराजित करने में कामयाब नहीं होते तब तक राज्यों में उनकी सलाहकार और रणनीतिकार के रूप में दुकान तो चलती रहेगी लेकिन देश की राजनीति में आकर दिल्ली की गद्दी, मनपसंद व्यक्ति को बैठाने की उनकी जो राजनीतिक महत्वकांक्षा है वो पूरी नहीं होने वाली...

(मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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