बिहार में दो से तीन महीने के दौरान विधानसभा चुनाव होंगे. इस बार मुक़ाबला मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए बनाम विपक्ष के नेता और राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू यादव के राजनीतिक उत्तराधिकारी तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले महागठबंधन के बीच है. अभी तक के जो भी रुझान हैं उससे नीतीश कुमार अपने साथ चुनावी अंकगणित और सामाजिक समीकरण दोनों में तेजस्वी यादव पर भारी पड़ रहे हैं. लेकिन अगर नीतीश कुमार की पंद्रह वर्षों के बाद सत्ता में वापसी तय है तो इसके पीछे आपको प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी , विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव और कुछ हद तक लोजपा नेता चिराग़ पासवान को समझना होगा कि कैसे इन्होंने अपने अलग-अलग निर्णय से नीतीश कुमार की वापसी तय कर दी है.
हालांकि इस बार एनडीए समर्थक वोटरों में नीतीश को लेकर वो उत्साह नहीं दिख रहा है जो पिछले दो विधानसभा चुनावों में दिखा था. लेकिन चुनाव के सभी पैमाने पर जब तैयारी की बात हो या हर वर्ग के लोगों के लिए उनकी मांग मानने की बात हो तो नीतीश सजग और सतर्क दिखते हैं. हालांकि उनकी लोकप्रियता अब वैसी नहीं रही क्योंकि पहले वो किसी को चुनौती देते थे लेकिन अब वो जीत कर एक मुख्यमंत्री से ज़्यादा कोई महत्वाकांक्षा नहीं रखते. लेकिन उन्हें ये मालूम है कि बिहार की राजनीति में विकल्प का अभाव है. तेजस्वी के सामने उनकी अपनी कुछ चुनौतियां जिनसे वो घिरे हुए हैं. बिना इनसे पार पाए तेजस्वी के लिए नीतीश को टक्कर देना आसान नहीं दिख रहा है. इसके अलावा जो अन्य दल चुनावी मैदान में हैं उनके पास जोड़ने के लिए ना तो आधारभूत वोट हैं न कार्यकर्ताओं की फ़ौज.
बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 'साजिश' ...
भले पिछले एक साल से बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व में बैठे लोग बार-बार नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव मैदान में जाने की बात दोहराते हैं लेकिन निजी बातचीत में दिल्ली से लेकर पटना तक वो आपको ये भी कहेंगे कि उनके ख़िलाफ़ नाराज़गी है. बीजेपी समर्थित एक वर्ग हमेशा नीतीश के बिना चुनाव में जाने का खयाली पुलाव पकाता रहता है. ख़ासकर वो कोरोना का उदाहरण देते हैं, या कैसे श्रमिकों की वापसी का मुद्दा नीतीश ने ठीक से हैंडल नहीं किया. लेकिन ये भी सच है कि जिस मामले में नीतीश सरकार की सबसे अधिक फ़ज़ीहत होती है उस विभाग में बीजेपी का का कोई वरिष्ठ नेता ही होता है. यही हाल स्वास्थ्य विभाग का भी है जहां BJP के वरिष्ठ नेता मंगल पांडे मंत्री हैं. लेकिन बिहार देश में एकमात्र राज्य होगा जिसके कोरोना वायरस के आंकड़ों पर कोई विश्वास नहीं करता. डबल इंजन की सरकार होने के बावजूद RTPCR मशीनों के अभाव में 90% से अधिक जांच एंटीजेन से होती हैं. हालांकि BJP के नेताओं का कहना है कि नीतीश के शासन में मंगल पांडे की औक़ात का पता आप इसी से लगा सकते हैं कि उनके विभाग के प्रधान सचिव की नियुक्ति या नाम की जानकारी उन्हें स्थानीय चैनल के माध्यम से होती है.
लेकिन यह भी सच है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के छह वर्ष बाद जिस पटना शहर में दानापुर से पटना सिटी तक बीजेपी के एक नहीं पांच-पांच विधायक पिछले बीस वर्षों से लगातार जनता द्वारा चुने जा रहे हों , दो-दो सांसद बीजेपी के हैं, नगर विकास मंत्री बीजेपी का , मेयर बीजेपी की उस पटना का यह हाल है कि केंद्र सरकार के स्वच्छता सूचकांक में सबसे फिसड्डी या सबसे अंतिम पायदान पर है. यह किसी भी पक्ष का आरोप नहीं है बल्कि केंद्र सरकार द्वारा जारी पिछले सप्ताह की रैंकिंग का सच है.
जबकि केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद पटना साहिब क्षेत्र से चुने गए हैं. लेकिन ये रैंकिंग न केवल बीजेपी विधायक, सांसदों , मंत्री की सामूहिक विफलता है बल्कि यह इस बात का भी प्रमाण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के प्रबंधन और नेतृत्व के बावजूद बीजेपी क्यों आज तक नीतीश का विकल्प नहीं बन पायी है. ख़ुद BJP के नेता स्वीकार करते हैं कि प्रधानमंत्री ने तो नीतीश कुमार के बार-बार आग्रह करने के बावजूद पटना विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा न देकर एक तरह से संदेश दे दिया कि वो बिहार में राजनीतिक आधार बढ़ाने के बहुत ज़्यादा दिलचस्पी नहीं रखते हैं और उनका कहना है कि भले लोगों को लगे कि नीतीश कुमार की बेइज़्ज़ती हुई. बल्कि उसका संदेश बिहार के लोगों को यही गया कि शायद नरेंद्र मोदी बहुत ज़्यादा बिहार के लोगों को सम्मान देने में विश्वास नहीं करते.
इसके अलावा 5 साल पूर्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के लिए एक पैकेज की घोषणा की थी लेकिन सच्चाई यही है कि इस पैकेज के अधिकांश प्रोजेक्ट पर अभी भी काम ज़मीन पर शुरू नहीं हो पाया है और गांधी सेतु के एक हिस्से का रिपेयर कर शायद आप बिहार में नीतीश कुमार का विकल्प नहीं बन सकते. इस पुल के समानांतर एक और प्रस्तावित पुल का टेंडर पांच वर्षों में अब जाकर पूरा हो पाया है और शायद चुनाव की घोषणा के ठीक पहले इसका शिलान्यास किया जाए.
बाढ़ हो या सूखा कभी भी पिछले कुछ सालों में नहीं लगा कि केंद्र की मोदी सरकार राज्य पर मेहरबान है. जैसे बाढ़ की समस्या के निदान की नीतीश ने बात की तो केंद्र ने उनके सुझाव को ठंडे बस्ते में डाल दिया. जिससे लगा कि डबल इंजन की सरकार नाम मात्र के लिए है. अब तो बीजेपी के नेता भी मानते हैं कि ये सारे घटनाक्रम ऐसे हैं जिससे यही लगता है कि अगर नीतीश कुमार को एक बार फिर मुख्यमंत्री बनाने की कोई 'साजिश' रची गई हो तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इन सब सुस्त रवैए से उसमें शामिल रहे हैं.
तेजस्वी की 'साजिश'
विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव जो लोकसभा चुनावों तक महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद की संयुक्त उम्मीदवार थे उनकी दिक़्क़त यह है कि लोकसभा चुनाव के बाद उन्होंने जिस प्रकार से लंबा दिल्ली में प्रवास किया उससे बिहार की राजनीति में उनकी गंभीरता ना केवल कम हुई बल्कि उनके बारे में तरह तरह के सवाल भी किए जाने लगे कि कोरोना के बाद भी तेजस्वी पटना में नहीं थे लेकिन बाद में वो आए और सक्रिय हुए. बाढ़ के दौरान भी वो पटना से निकलें तो ज़रूर लेकिन जैसी परिस्थिति बनी थी और उसमें जैसा विपक्ष को आक्रामक होना चाहिए था वैसा कुछ नहीं हुआ. ये बात तेजस्वी के कट्टर समर्थक भी मानते हैं. एक दिन के विधानसभा के पिछले सत्र के दौरान अपने भाषण में तेजस्वी यादव ने सरकार को जमकर घेरा लेकिन बिहार की राजनीति का ये भी सच है कि दौरा, भाषण , सोशल मीडिया में सक्रियता से बिहार में वोट नहीं बढ़ता. ये सच उप मुख्यमंत्री के रूप में तेजस्वी के बदले उस कुर्सी पर बैठे सुशील मोदी से बेहतर कोई नहीं जानता.
तेजस्वी के साथ सबसे बड़ी दिक़्क़त यह है कि चुनाव सर पर है लेकिन अभी तक वो विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार नहीं बन पाये हैं. जो सहयोगी हैं वो संवादहीनता की शिकायत करते हैं. उनके लिए सीटों का तालमेल करना उतना आसान होगा क्योंकि ये गठबंधन में जितने अधिक दल होते हैं उतनी ज़्यादा माथापच्ची इन सभी चीजों पर करनी होती है. हालांकि पार्टी का काम वरिष्ठ नेता जगदानंद सिंह बखूबी निभा रहे हैं. लेकिन देखना यह है कि जब टिकट देने की बारी आयेगी तो उनकी कितना चलेगी. इस पर चुनाव का परिणाम तय हो जायेगा. अगर टिकट में लालू यादव के परिवार का दबदबा रहा तो आप समझ लीजिए कि चुनाव में नीतीश कुमार को वॉक ओवर मिल जाएगा. लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेता जैसे रघुवंश प्रसाद सिंह या शिवानंद तिवारी की तरफ से चुनाव से पहले मिल रहे संकेत तेजस्वी के लिए शुभ नहीं है. इसके अलावा तेजस्वी की सबसे बड़ी चुनौती अपना घर ठीक रखना है क्योंकि उनके घर में जितने राजनीतिक रूप से सक्रिय सदस्य हैं वो उनके लिए मुश्किलें पैदा करते रहते हैं. जैसे उनक बड़े भाई तेज प्रताप यादव जब भी राजनीतिक रूप से सक्रिय होते हैं , बयान देते हैं, तो लोगों को यही लगता है कि इनसे अच्छी तो नीतीश कुमार की सरकार ही है.
लेकिन इन सबसे बड़ी बात तेजस्वी यादव के हाव भाव से नहीं लगता कि उनमें फ़िलहाल सता की भूख है. इसलिए वो अगर इस चुनाव में पिछली चुनाव में मिली सीटों में से पचास प्रतिशत भी जीत लें तो एक बड़ी उपलब्धि होगी. इस आधार पर आप कह सकते हैं कि तेजस्वी भी जानबूझकर नहीं लेकिन अपने आलसपन से नीतीश कुमार को फिर सत्ता में बैठाने की 'साजिश' में शामिल हैं.
चिराग़ पासवान की 'साजिश'
लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष चिराग पासवान का बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से 36 का आंकड़ा है ये बात किसी से छिपी नहीं. पिछले आठ महीनों के दौरान चिराग कोई एक ऐसा मौक़ा नहीं चूकते जहां नीतीश कुमार की आलोचना करने का गुंजाइश न हो. लेकिन हर बार पत्र लिखकर और उसे सार्वजनिक कर चिराग पासवान ने कहीं न कहीं नीतीश कुमार को दलित वोटरों पर अपनी पकड़ और मज़बूत करने के लिए इस बार मौक़ा दिया. इसका परिणाम है कि हर दूसरे तीसरे दिन अपनी पार्टी में नीतीश या पर किसी दलित नेता या अधिकारी को शामिल करते हैं. हालांकि NDA में चिराग पासवान और उनके पिता रामविलास पासवान को अलग-थलग करने की नीतीश कुमार की सोची समझी रणनीति रही है क्योंकि उनको मालूम है कि ये लोग उनको उनके ख़िलाफ़ जितना बयानबाजी करेंगे उससे महादलित वोटरों में एक संदेश जाएगा. सब जानते हैं कि नीतीश कुमार को इस बात का भलीभांति आभास है कि बिहार की ऊंची जाति के वोट उनको मजबूरी में वोट देते हैं और जब तक उनके पास अति पिछड़ा महादलित और गैर-यादवों का समर्थन है तो उनको सत्ता से कोई हटा नहीं सकता.
नीतीश कुमार क्यों हैं अपनी जीत को लेकर इतना आश्वस्त
पूरे देश में कोरोना महामारी के बीच अभी तक दो कारणों से बिहार की चर्चा होती है. एक नीतीश कुमार एक मात्र मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने पिछले साढ़े पांच महीने में एक भी बार इस मुद्दे पर पत्रकारों से रूबरू नहीं हुए और न ही कभी अपने राज्य की जनता को संबोधित किया. लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि कोरोना संकट को आधार बनाकर लोगों के खाते में वो अभी तक 10, हज़ार करोड़ से अधिक पैसे ट्रांसफर कर चुके हैं. जिससे कम से कम उनकी सीधी पहुंच दो करोड़ से अधिक परिवार में हुई है. वो चाहे बच्चों के खाते में पैसा हो या हर राशनकार्ड धारियों के खाते में 1 -1 हज़ार रुपया हो, या एक साथ तीन महीने का पेंशनधारियों को पेंशन की राशि ट्रांसफर की गई हो, या छात्रों को छात्रवृत्ति की पाई-पाई उनके खाते में भेजना हो... चुनावी वर्ष में नीतीश कुमार के लिए यह सब तुरुप का पत्ता जैसे काम कर रहे हैं. यह भी सच है केंद्र द्वारा भी जनधन खाते में पैसा हो या मुफ़्त राशन, लोगों की नौकरियां जाने के बावजूद अगर ग्रामीण इलाकों में लोगों में असंतोष नहीं दिख रहा है. लोग नीतीश सरकार की लाख कमियां गिना रहे हैं लेकिन जनता उन्हें फिर से वोट देने की बात कर रही है. आज की बिहार की राजनीति का यही सच है. नीतीश को लेकर सबसे ज़्यादा बहस मुस्लिम समुदाय में हैं. क्योंकि अधिकांश के इस वर्ग के लोगों को यही लगता है कि वो भले ही BJP के साथ हैं लेकिन नीतीश ने कभी भी इस समुदाय के लोगों से भेदभाव नहीं किया और वो जब तक सत्ता में ही तब तक BJP का बिहार की सत्ता में आने का मंसूबा धरा का धरा रहेगा. इसलिए कम से कम उनके ख़िलाफ़ आक्रामक बैटिंग न की जाए और जहां भी उनका उम्मीदवार हो तब उसे वोट देने में हिचक भी नहीं बरतनी चाहिए.
बार-बार BJP के साथ सरकार बनाने के बाद भी भागलपुर में रामनवमी के जुलूस के दौरान हुई हिंसा के आरोप में केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के पुत्र को जेल भेजने की घटना का ज़िक्र मुस्लिम समुदाय के लोग करना नहीं भूलते. वो ग़ुस्साए नीतीश कुमार ही थे जो ऐसे क़दम उठाने से भी नहीं हिचके. यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी के अंदर ऐसे उपद्रव कराने की मानसिकता के लोग सहमे रहते हैं. लेकिन बिहार के चुनाव में एनडीए की चुनौती 2010 के परिणाम से बेहतर करने की होगी. जब 243 में 206 सीटें नीतीश के नेतृत्व में एनडीए को मिली थी. इसके अलावा देखना यह भी है कि किस पार्टी का स्ट्राइक रेट एक दूसरे से बेहतर रहता है.
(मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...)
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