
- चोल साम्राज्य में दसवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच कुदावोलाई अमाइप्पु नामक लोकतांत्रिक मतदान प्रणाली प्रचलित थी
- कुदावोलाई प्रणाली में मतदान के लिए पात्रों की सख्त योग्यता और निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया सुनिश्चित की जाती थी.
- इस प्रणाली के तहत सभा और उर नामक दो प्रशासनिक इकाइयां थीं, जिनके पास राजस्व और न्याय व्यवस्था के अधिकार थे.
चोल शासक, सत्ता और शासन में भागीदारी के लिए कुदावोलाई अमाइप्पु सिस्टम अपनाते थे, जो एक प्रेरणादायक उदाहरण है कि भारत में लोकतंत्र का बीज पश्चिम से नहीं, अपनी धरती की परंपराओं से फूटा था. प्रधानमंत्री मोदी पहले भी कह चुके हैं कि भारत न केवल दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, बल्कि इसकी जननी भी है. रविवार को भी जब पीएम मोदी तमिलनाडु दौरे पर थे, तो वहां उन्होंने चोल साम्राज्य की लोकतांत्रिक परंपराओं की जमकर सराहना की.
उन्होंने इसे भारत के इतिहास का स्वर्णिम युग बताया और कहा कि चोलों की 'कुदावोलाई प्रणाली' ने दुनिया को बताया कि भारत में लोकतंत्र की जड़ें पश्चिम की कल्पना से कहीं पहले मौजूद थीं.
क्या था कुदावोलाई अमाइप्पु सिस्टम?
कुदावोलाई प्रणाली, दक्षिण भारत में 10वीं और 12वीं शताब्दी के बीच चोल राजवंश के दौरान प्रचलित एक उन्नत चुनावी प्रक्रिया थी. इसे विश्व इतिहास में लोकतांत्रिक शासन के प्रारंभिक उदाहरणों में से एक कहा जाता है.
'कुदावोलाई' का शाब्दिक अर्थ है 'मतदान पात्र', यानी वोट डालने का घड़ा. ये तंत्र या प्रणाली दक्षिण भारत में 10वीं से 12वीं सदी के बीच चोल साम्राज्य के दौरान प्रचलित थी. उत्तरमेरूर गांव (आज के कांचीपुरम जिले में) के शिलालेखों में इस प्रणाली का विस्तृत वर्णन है.
तब शासन की दो प्रमुख इकाइयां हुआ करती थीं- 'सभा', जो कि ब्राह्मण गांवों के लिए थी और 'उर' अन्य गांवों के लिए थी. ये सिर्फ नाममात्र की समितियां नहीं थीं, बल्कि राजस्व, सिंचाई, मंदिर प्रबंधन और न्याय व्यवस्था जैसे क्षेत्रों में पूर्ण अधिकार रखती थीं. इतिहासकार टैनसेन सेन के शब्दों में कहें तो 'चोलों ने सिर्फ तलवार से नहीं, बल्कि रणनीतिक शासन व्यवस्था से भी अपनी ताकत दिखाई थी.'
तब कैसे होते थे चुनाव?
कैंडिडेट के नाम ताड़पत्रों पर लिखे जाते और एक मटके में डाले जाते. फिर एक निष्पक्ष किशोर लड़का सार्वजनिक रूप से उनमें से एक पर्ची निकालता. यही था, मतदान का तरीका, जिसे आज की भाषा में पारदर्शिता और निष्पक्षता की मिसाल कहा जा सकता है.
हालांकि इस मटके और पर्ची सिस्टम के बारे में पढ़ कर आप ये मत समझिएगा कि ये केवल भाग्य का खेल था. ऐसे ही किसी का भी नाम मटके में नहीं डाल दिया जाता था, बल्कि उम्मीदवारों के लिए बेहद सख्त योग्यताएं थीं. जैसे कि
- उनकी उम्र 35 से 70 वर्ष के बीच होनी चाहिए.
- उम्मीदवार को वेदों या प्रशासन का ज्ञान होना चाहिए.
- जमीन पर टैक्स भुगतान क्लियर होना चाहिए यानी राज्य के प्रति कोई बकाया नहीं.
- एक और जरूरी योग्यता साफ साख होना यानी बेदाग छवि थी.
किसी का कर्ज न चुकाने वाले, शराबी, घरेलू हिंसा या अपराध के आरोपी और मौजूदा किसी पद पर कार्यरत अधिकारियों के रिश्तेदार इस चुनाव के लिए अयोग्य माने जाते थे. इतना ही नहीं, वार्षिक लेखा परीक्षण अनिवार्य था और अगर किसी ने भ्रष्टाचार किया, तो उसे न केवल पद से हटाया जाता, बल्कि भविष्य के चुनावों के लिए भी अयोग्य ठहराया जाता.
सिस्टम की कुछ सीमाएं थीं, लेकिन...
हालांकि इस सिस्टम की कुछ सीमाएं भी थीं, जैसे कि ये आधुनिक अर्थों में समावेशी नहीं था. इस व्यवस्था में महिलाओं, श्रमिकों और भूमिहीनों को अधिकार नहीं थे. बावजूद इसके, उस कालखंड में इतनी व्यवस्थित और जवाबदेह प्रशासनिक व्यवस्था विश्व इतिहास में दुर्लभ ही थी.
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यूरोप से भी पहले की लोकतांत्रिक सोच
जब ब्रिटेन में 1215 में मैग्ना कार्टा बना, तब भारत में ये प्रणाली पहले से चली आ रही थी. यूरोप के पुनर्जागरण से सदियों पहले चोलों ने लोकतांत्रिक आदर्शों को पत्थर की शिलाओं में उकेरा था. इसका जिक्र इतिहासकार केए नीलकंठ शास्त्री की पुस्तक 'The Cholas' में मिलता है. उन्होंने लिखा था, 'ये लोकतंत्र जड़ों से जुड़ा हुआ था, तमिल सामाजिक जीवन की आत्मा में रचा-बसा था.' एक अन्य इतिहासकार लिखते हैं कि चोल राजाओं ने व्यापारी गिल्डों (जैसे मणिग्रामम और अय्यवोले) को भी सत्ता में भागीदारी दी. ऐसा करने से प्रशासनिक स्थिरता और व्यापारिक विस्तार दोनों संभव हुए.
पीएम मोदी ने क्या कहा था?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को तमिलनाडु की अपनी यात्रा के दौरान कहा, 'इतिहासकारों का मानना है कि चोल साम्राज्य भारत के स्वर्णिम काल में से एक था. चोल साम्राज्य ने भारत को लोकतंत्र की जननी कहने की परंपरा को भी आगे बढ़ाया. इतिहासकार लोकतंत्र के नाम पर ब्रिटेन के मैग्ना कार्टा की बात करते हैं. लेकिन कई सदियों पहले, चोल साम्राज्य में लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव होते थे.'
उन्होंने कहा, 'हम ऐसे कई राजाओं के बारे में सुनते हैं जो दूसरे स्थानों पर विजय प्राप्त करने के बाद सोना, चांदी या पशुधन लाते थे. लेकिन राजेंद्र चोल गंगाजल लेकर आए थे. ये जल उन्होंने अपनी नई राजधानी गंगैकोंड चोलपुरम में साल 1025 में लाकर 'जयस्तंभ' स्थापित किया था, विजय की वो धार, जो सैन्य शक्ति के साथ सांस्कृतिक और नागरिक विवेक का प्रतीक बनी.'
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