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अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस : अपनी मातृभाषा से जुड़े रहना हर किसी के लिए क्यों जरूरी है?

Amaresh Saurabh
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 20, 2025 14:57 pm IST
    • Published On फ़रवरी 21, 2025 00:00 am IST
    • Last Updated On फ़रवरी 20, 2025 14:57 pm IST
अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस : अपनी मातृभाषा से जुड़े रहना हर किसी के लिए क्यों जरूरी है?

दुनियाभर में 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस (International Mother Language Day) मनाया जाता है. आज के दौर में ज्यादातर लोगों का झुकाव किसी ऐसी 'ग्लोबल लैंग्वेज' की ओर होता जा रहा है, जो उन्हें कामयाबी के रास्ते की ओर ले जाती हो. ऐसे में यह देखना दिलचस्प है कि अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का मकसद क्या है. इंसान के लिए अपनी मातृभाषा से जुड़े रहना क्यों जरूरी है?

मकसद क्या है?
यूनेस्को (UNESCO) ने साल 1999 में 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाए जाने का ऐलान किया. साल 2000 से यह दिवस दुनियाभर में मनाया जाने लगा. इस तरह, 2025 में इस दिवस पर रजत जयंती समारोह आयोजित किए जा रहे हैं. इसका मकसद है- दुनियाभर में भाषाओं की विविधता को संजोए रखना, मातृभाषाओं के ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल को बढ़ावा देना.

अगर एक बड़े फलक पर देखा जाए, तो समाज में एक-दूसरे की मातृभाषाओं को सम्मान देने का मतलब है, एक-दूसरे की संस्कृतियों को सम्मान देना. इस भावना में पूरी दुनिया का हित छुपा है. जहां तक मातृभाषा दिवस का सवाल है, इसकी उपयोगिता आज इसलिए भी बढ़ गई है, क्योंकि दुनिया की कई भाषाएं और बोलियां तेजी से लुप्त होती जा रही हैं. अगर ऐसा होता रहा, तो दुनिया इन भाषाओं से होने वाले फायदों से वंचित रह जाएगी.

भाषाओं के लोप का मतलब
यूनेस्को का अनुमान है कि दुनियाभर में बोली या लिखी जाने वाली 8,324 भाषाएं हैं. इनमें से करीब 7,000 भाषाएं अभी भी इस्तेमाल में हैं. चिंता की बात यह है कि भाषाओं और बोलियों के लुप्त होने की रफ्तार तेज है. संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि हर दो सप्ताह में दुनिया की एक भाषा विलुप्त हो जाती है. यह गंभीर स्थिति है.

भाषाओं और बोलियों का लोप होते जाना इंसान के लिए कितने बड़े नुकसान की बात है, इसका अनुमान आंकड़ों में लगा पाना मुश्किल है. सीधी-सी बात है. दुनियाभर की मातृभाषाओं में कुछ न कुछ खास तरह के पारंपरिक ज्ञान के भंडार छुपे होते हैं. किसी भाषा या बोली के लुप्त होने का मतलब है, परंपरागत ज्ञान के भंडार में कमी. बौद्धिक संपदा के साथ-साथ सांस्कृतिक विविधता के लिए भी भाषाओं को बचाना जरूरी है.  

मातृभाषा की अहमियत
दुनियाभर के भाषा-विज्ञानी इस तथ्य पर पहले ही एकमत हैं कि किसी भी इंसान के भीतर, उसकी मातृभाषा के जरिए चीजों को सीखने-समझने की क्षमता सबसे ज्यादा होती है. लेकिन आज हालात ऐसे हैं कि दुनिया की 40 फीसदी आबादी को उसकी मातृभाषा में शिक्षा नहीं मिल पा रही है. यह एक बड़ी विसंगति की ओर साफ इशारा है.

दरअसल, अपनी मातृभाषा में पढ़ाई-लिखाई होने से स्वाभाविक तौर पर किसी भी बात को समझना ज्यादा आसान हो जाता है. समझ बढ़ने से सीखी गई बातों को याद रखने में भी सहूलियत होती है और सब्जेक्ट-मैटर पर पकड़ बढ़ती चली जाती है. साथ-साथ अपने नजरिए से सोच-विचार करने की क्षमता भी बढ़ती है. जाहिर है कि ऊपर से थोपी गई कोई भी भाषा उतनी असरदार नहीं होती, जितनी मातृभाषा.

मातृभाषा केवल पढ़ाई-लिखाई के लिए ही कारगर हो, ऐसी भी बात नहीं. यह इंसान के अपने समुदाय को एक अलग पहचान देती है. यह पहचान अक्सर उसके भीतर के मनोबल को बढ़ाती चली जाती है.

भारत की स्थिति
मातृभाषा और भाषायी विविधता की चर्चा के बीच अपने देश की स्थिति देखे जाने लायक है. साल 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 122 प्रमुख भाषाएं और 544 अन्य भाषाएं हैं. इनमें से 22 भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में जगह दी गई है. अपना देश भाषायी तौर पर कितना समृद्ध है, इन तथ्यों से समझा जा सकता है.

हमारे संविधान में हर वर्ग को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को संरक्षित करने का अधिकार दिया गया है. शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 में साफ कहा गया है कि जहां तक संभव हो, बच्चों को उनकी मातृभाषा में ही शिक्षा दी जानी चाहिए.

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP), 2020 में इस पर पूरा ध्यान दिया गया है. इसमें पांचवीं तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा के जरिए पढ़ाई की बात कही गई है. इसे आठवीं या उससे आगे भी बढ़ाया जा सकता है. कुल मिलाकर, इसमें शुरुआती फेज से लेकर उच्च शिक्षा तक मातृभाषा के जरिए शिक्षा को प्रोत्साहन दिया गया है. हालांकि इसमें कोई भी भाषा किसी पर थोपे जाने की मनाही है.

विविधता क्यों जरूरी है?
जिस तरह पृथ्वी के तरह-तरह के जीव-जंतु, तरह-तरह की वनस्पतियां सृष्टि के संतुलन के लिए जरूरी हैं. उसी तरह, अलग-अलग भौगोलिक इलाकों में रहने वाले 8 अरब लोगों के लिए भाषायी विविधता का होना स्वाभाविक भी है और जरूरी भी. कुछेक 'ग्लोबल लैंग्वेज' से पूरी दुनिया का कामकाज नहीं चल सकता. वैसे भी हर क्षेत्रीय भाषा या मातृभाषा आज जिस मुकाम पर है, वहां एक लंबा सफर तय करने के बाद पहुंची है. इसलिए किसी एक भाषा का दम तोड़ देना बड़े सांस्कृतिक नुकसान जैसा है.

यह सोचकर किसी को अचरज हो सकता है कि एक ही चीज के लिए अलग-अलग मातृभाषाओं में कितने तरह के शब्द पाए जाते हैं. उदाहरण के तौर पर, पांव के नीचे दबाकर सब्जी काटने वाले औजार को एक ही प्रदेश में कितने नामों से जाना जाता है- हंसुआ, हंसुली, हांसुल, फांसुल, पिरदांय, बैठी आदि. इन सारे शब्दों के गढ़न के पीछे लंबा इतिहास छुपा है. इसी तरह, भाषायी अशुद्धि की वजह से भी कई नए शब्द मातृभाषाओं में चलन में आ जाते हैं. मसलन, टॉर्च को हिंदी-पट्टी की देहाती बोलियों में टौच, टौस, टॉर्स या टौंच भी कहते हैं. सुनने वाले भी इनका वास्तविक मतलब ठीक-ठीक समझ लेते हैं.

सबसे मजेदार बात ये कि स्थानीय भाषाओं के कई शब्द तो अपने से एकदम अलग मन-मिजाज की भाषा के शब्दों के गठजोड़ से बने हैं. उदाहरण के लिए, एजगर (उम्रदराज), रसगर (रसीला), चलेबल (चलने लायक), खर्चेबल (खर्चीला) आदि. भले ही इनका इस्तेमाल औपचारिक तौर पर न होता हो, पर बोलचाल में ये सही शब्दों जितना ही असर छोड़ते हैं. यही स्थानीय बोलियों या मातृभाषाओं की आजादी की सीमा है. इन्हीं बातों में मातृभाषाओं की खूबसूरती छुपी है.

ये होती है मातृभाषा...
किसी इंसान के जीवन में मातृभाषा की क्या भूमिका होती है, इसे समझाने के लिए एक कहानी सुनाई जाती है. पता नहीं, सच्ची है या गढ़ी हुई, लेकिन इसका सार है अर्थपूर्ण.

एक सज्जन थे. कई भाषाओं के विद्वान. हिंदीभाषियों के बीच बैठते, तो हिंदी बोलकर समां बांध देते. अंग्रेजी वालों के बीच अंग्रेजी भाषा का कौशल दिखलाते. इसी तरह, बांग्ला, कन्नड़, तमिल, तेलुगू आदि कई भाषा धाराप्रवाह बोल लेते. खुद कभी ये जाहिर होने नहीं देते कि उनकी मातृभाषा है क्या. लोग पूरी तरह कन्फ्यूज.

आखिरकार लोगों ने उन सज्जन की मातृभाषा का पता लगाने के लिए एक तरकीब अपनाई. एक रात जब वे सो रहे थे, तो उनकी खिड़की पर जोर से एक पत्थर मार दिया. अचानक तेज आवाज सुनकर वे आधी नींद में ही खिड़की के पास आकर चिल्लाने लगे, "के ह, काहे पगला रहल बानी, भोर में सबके देख लेब..." बस, लोगों के लिए इतना क्लू काफी था.

इसमें काम की बात ये है कि इंसान ऊपर से चाहे जितनी भाषाओं का लबादा ओढ़ ले, पर मातृभाषा वह होती है, जो उसके हृदय की गहराइयों में, अवचेतन मन में बैठी होती है. वह भाषा, जो उसने पालने में झूलते वक्त, मां की गोद में या पिता के कंधे पर बैठकर सीखी होती है.

कुल मिलाकर, कह सकते हैं कि चाहे रोजी-रोजगार के लिए दुनिया की कितनी ही भाषाएं सीख ली जाएं, 'ग्लोबल लैंग्वेज' के जरिए कितनी ही ऊंची उड़ान भर ली जाए, पर वह मातृभाषा ही है, जो हमारे बौद्धिक विकास की जमीन तैयार करती है. खासकर, शुरुआती दिनों में मातृभाषा की घुट्टी इंसान के लिए टॉनिक का काम करती है. अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की शुभकामनाएं!

अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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