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नए साल पर लिए जाने वाले संकल्प अक्सर 'फ्लॉप' क्यों हो जाते हैं?

Amaresh Saurabh
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 30, 2024 20:07 pm IST
    • Published On दिसंबर 30, 2024 20:07 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 30, 2024 20:07 pm IST

दुनिया नए साल की दहलीज पर खड़ी है. न्यू ईयर से सबको ढेर सारी उम्मीदें रहती हैं. ऐसे में न्यू ईयर रेजॉल्यूशन की सक्सेस-रेट खंगालने वाला टॉपिक थोड़ा निगेटिव लग सकता है. लेकिन बात वैसी है नहीं. हम यहां सिर्फ वे गड्ढे दिखा रहे हैं, जिनसे बचकर चलना हर किसी के लिए जरूरी है. आप बस मन ही मन गड्ढे गिनते चलिए.

नए साल का इंतजार क्यों?
सबसे पहली बात तो ये कि कुछ नया शुरू करने के लिए या कोई खास बुराई छोड़ने के लिए सबको नए साल का ही इंतजार क्यों रहता है? इसीलिए ना कि अगर साल की शुरुआत में वह काम टल जाए, तो फिर पूरे साल उस बारे में सोचने की जहमत न उठानी पड़े! नए साल का क्या है, वह तो फिर आ जाएगा. लेकिन हां, जब भी करेंगे, ठीक से करेंगे, शानदार करेंगे. सिंगल लेने में क्या रखा है? जब लगाएंगे तो सिक्सर ही. सालभर और इंतजार करना पड़े, तो भी कोई बात नहीं.

'अगले वाले' नए साल के इंतजार की भी अपनी वजहें हैं. नया साल आने से पहले, नए साल की जैसी तस्वीर सबके मन में रची-बसी होती है, वैसा वास्तव में कभी नजर आता नहीं. सूरज हर बार की तरह पूरब से ही निकलता है, पश्चिम से नहीं. नए साल पर कभी आसमान से पुष्प-वृष्टि होती नहीं. फूल-पत्ते जमीन पर ही लगते हैं, आसमान में नहीं. आदमी कोयल जैसा बोलना शुरू करता नहीं. भेड़िए अहिंसा का मार्ग अपनाते नहीं. सांप जहर उगलना बंद करते नहीं. हां, दंतहीनों-विषहीनों की बात अलग है. इसी तरह, आदमी रातोंरात इंसान में बदलता नहीं!

नतीजा- 31 दिसंबर के संकल्प और सपने 1 जनवरी की सुबह ही टूटने के हालात बन जाते हैं. और जब सबकुछ पुराना ही मिलना था, तो साल नया कैसा?

मुहूरत की बारात
बातें और भी हैं. हमें अपनी गौरवशाली संस्कृति पर गर्व है, तो है. बाकी दुनिया इससे जलती है, तो जलती रहे. हमें क्या? देखिए, हमारे यहां साल के 365 दिनों में 400 से ज्यादा पर्व-त्योहार-व्रत आदि गिनाए गए हैं. मजाक की बात नहीं, इसकी पूरी लिस्ट है. ऐसे में अगर कोई नया काम 1 जनवरी से शुरू न भी हो पाया, तो कौन-सा पहाड़ टूट पड़ेगा? मौके ही मौके हैं. रेजॉल्यूशन का क्या है, फिर से गढ़ लेंगे. अपने घर से क्या जाता है?

नए साल का शोर-शराबा थमा नहीं कि आ गया उत्तरायणी का पर्व- मकर संक्रांति. हां, ये दिन हर तरह से ठीक रहेगा. अगर 'भूलवश' इसका लाभ उठाने से चूक गए, तो थोड़े ही दिन बाद आ जाती है- वसंत पंचमी. आहाहाहा... सबकुछ वासंती ही वासंती! अगर यह मौका भी हाथ से फिसल गया, तो नया विक्रम संवत् शुरू होने तक रुक जाने में ही क्या दिक्कत है भाई? ये सब तो कुछ नमूने भर हैं. कुछ नया करना है, कुछ अच्छा करना है, तो सोच-विचार करना ही पड़ता है. बिना विचारे जो करे, सो पाछे...

मन के हारे...
मान लीजिए, किसी ने नए साल से रोज कसरत-व्यायाम करने का संकल्प लिया. इधर नए साल के पहले ही दिन हाड़ कंपाती ठिठुरन और बढ़ गई. किसी ने नए साल पर मीठा कम खाने का संकल्प लिया. इधर पहले ही दिन कोई मिठाई का डब्बा पकड़े, दांत निपोड़ते घर में दाखिल हो गया. किसी स्टूडेंट ने रुटीन बनाकर पढ़ाई करने का संकल्प लिया और इधर दोस्त पार्क-पिकनिक पर चलने का नम्र निवेदन कर बैठे!

संभवत: ऐसी ही दुविधाओं से उबरने के लिए साहित्यकार श्रीराम शर्मा ने एक जगह बड़ी अच्छी बात कही है. वे लिखते हैं, "दृढ़ संकल्प से दुविधा की बेड़ियां कट जाती हैं." सही बात है. बेड़ियों का कटना बहुत जरूरी है. लेकिन मुश्किल ये कि संकल्प को मजबूत करने या इसे ढीला छोड़ने का जिम्मा अपने मन पर ही छोड़ दिया गया. और चूंकि पिछले कई साल से 1 जनवरी को अपना मन ही बाजी मारता रहा है, तो इस बार भी डिफेंडिंग चैंपियन की जीत पक्की हो जाती है! गौर से देखिए, तो इस हार में भी अपनी जीत छुपी है. नरम-गरम कंबल हो या मिठाई या कोई पिकनिक स्पॉट, ये सभी अपनी जीत के ही तो प्रतीक हैं.

संकल्पों की मियाद
कई मायने में हमारे संकल्प पटाखों की तरह होते हैं. जब तक संजोकर रखे रहिए, ये बचे रहेंगे. अगर इस्तेमाल कर बैठे, फिर बचेगा ही क्या? संकल्प मन के भीतर बड़े मजबूत और लुभावने दिखते हैं. जैसे ही इन्हें कार्यरूप देने का वक्त आया, इनकी हकीकत सामने आ जाती है. ठीक चायनीज पटाखों की तरह. देखने में चमकीले-भड़कीले, पर आग लगते ही फुस्स...

यों भी कह सकते हैं कि न्यू ईयर रेजॉल्यूशन वो दवा हैं, जिनकी एक्सपायरी डेट बहुत कम होती है. साल के अंतिम दो-तीन महीनों में बनकर तैयार होती है और नए साल के 31 जनवरी से पहले ही एक्सपायरी डेट आ जाती है. नतीजतन, अगर चूक गए, तो फिर अगले साल का इंतजार.

इस तरह के रेजॉल्यूशन को आप खुद के साथ किया गया चुनावी वादा भी कह सकते हैं. 1 जनवरी आने से पहले कुछ और दिखते हैं. कुछ दिन बीतते-बीतते चुनाव के संकल्प-पत्र जैसे हो जाते हैं.

सक्सेस रेट क्या?
न्यू ईयर रेजॉल्यूशन की सक्सेस-रेट क्या होती है, इसको लेकर देश-दुनिया में पहले ही काफी शोध हो चुके हैं. 'फोर्ब्स' ने भी इस पर एक रिपोर्ट छापी थी. इसमें बताया गया है कि ऐसे संकल्पों की सफलता की दर 9% के आसपास रहती है. इसमें ताज्जुब करने लायक कुछ है, तो यह कि वे 9% जांबाज लोग आते कहां से हैं? अपने आसपास तो कहीं-कोई नजर नहीं आता. चलिए आपने कहा, तो हम मान लेते हैं. इस आधार पर कि धरती वीरों से खाली थोड़े ना है!

वैसे जो लोग इस टॉपिक पर और रिसर्च करना चाह रहे हों, उन्हें कुछ सावधानी जरूर बरतनी चाहिए. केवल सोशल मीडिया की तस्वीरें देखकर किसी नतीजे तक पहुंचने की हड़बड़ी नहीं करनी चाहिए. फोटो की खातिर जिम के अंदर वर्जिश करना, हेल्दी फूड खाना, किताबें पढ़ना, मधुर संगीत सुनना या ऑफिस में तल्लीनता से काम करना एक बात है. 9% जांबाजों में सचमुच जगह बना पाना दूसरी बात.

चलते-चलते एक काम की बात. कोई इंसान अगर अपने जीवन के अब तक के सारे संकल्पों को एक जगह लिखकर रख ले, तो उससे एक मोटिवेशनल बुक आसानी से तैयार हो जाए. टाइटल हो सकता है- 'सफल जीवन के 1000 सुनहरे सूत्र' या 'आदतें, जिनसे उबरना जरूरी है'! हमारी ओर से शुभकामनाएं. हैपी न्यू ईयर!

अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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