कहते हैं कि राजनीति संभावनाओं का खेल है. संभावनाओं के हकीकत में बदल जाने पर कई बार चौंकाने वाले नतीजे निकलते देखे गए हैं. वैसे ही, जैसे क्रिकेट में कब, कौन-सा मोड़ आ जाए, कहना मुश्किल है. दोनों जगह भारी अनिश्चितता रहती है, इसलिए अटकलें भी चलती रहती हैं. इन अटकलों का भी अपना मोल होता है. इन्हें हल्के में लेना भारी भूल साबित हो सकती है.
अटकलों का बाजार
इन अटकलों का भी अपना बाजार होता है. बिलकुल शेयर मार्केट की तरह. कभी अचानक ऊपर चढ़ जाता है, कभी गोते लगाता है. लेकिन दोनों के अपने-अपने मायने हैं. दोनों की अपनी वैल्यू है. चाहे लिवाली हो या बिकवाली, अटकलबाजों को अपने घर से कभी कोई घाटा नहीं होता. इतना सोच-समझकर ही ये बाजार से खेलते हैं.
नया नहीं, एकदम स्थापित कारोबार है. यहां पब्लिक भरोसे के साथ अपना टाइम इन्वेस्ट करती है. चाहे-अनचाहे, बारहों मास खोपड़ी चलाती है. हाथ क्या आता है, इसको लेकर यहां अटकल लगाना ठीक नहीं. बस, बाजार की बारीकियां देखते चलिए.
रहिमन पानी राखिए...
साहित्य में रस लेने वाले कहते हैं कि बिहारी या रहीम जैसे कवियों के एक-एक दोहे के कई-कई अर्थ निकाले जाते हैं. आप किसी भी अर्थ को खारिज नहीं कर सकते. यही तो महान कवियों की रचनाओं की खूबसूरती होती है. लेकिन अगर आज बिहारी या रहीम होते, तो इस दौर की राजनीति देखकर उनका भी दिमाग चकरा जाता.
सियासी गलियारों से निकली एक-एक फोटो के इतने सारे मतलब निकाले जा रहे! कई तो एक-दूसरे को 90 डिग्री पर काटने वाले. समीकरण तो इतने सारे, जितने में मैथ्स की नई किताब तैयार हो जाए. एक-एक क्लिप की इतनी घिसाई हो रही कि शोला भड़के न भड़के, चिंगारी निकलने में हैरत की क्या बात? सबका अपना-अपना मत है. सबको अटकल लगाने की आजादी है. यही तो डेमोक्रेसी की खूबसूरती है!
संक्रांति या क्रांति?
वैसे तो ज्यादातर इफ्तार पार्टी की ओर सबकी नजरें टिकी होती हैं, लेकिन कई बार मकर संक्रांति भी रिश्तों में घोर-मट्ठा कर डालती है. कौन, किस-किस के घर चूड़ा-दही खाने गया. क्या खाया, कितना खाया. किस-किस को देखकर इग्नोर किया. किसे देखकर मुस्कुराया. किससे हाथ मिलाया. कितने सेकंड की स्माइल थी. बत्तीसी झलकी या नहीं. कितने मिनट बात हुई. किसकी कुर्सी ज्यादा चौड़ी थी...
अगर इतना ठीक-ठीक पता चल जाए, तो सरकारों के बारे में अटकलबाजी करने में क्या परेशानी है भाई? कई लाल बुझक्कड़ तो यहां तक बता देंगे कि आगे कौन-कौन किचन कैबिनेट में शामिल होगा, कौन-कौन लार टपकाता रह जाएगा. कौन-कौन हाथ धोएगा, कौन खड़े होकर हाथ धुलवाएगा. क्या पता 'तिल का ताड़' वाली कहावत मकर-संक्रांति के भोज से ही निकली हो! वैसे भी, इस पर्व पर आसमान में पेच लड़ाने का चलन यूं ही नहीं चल पड़ा होगा!
मैदान-ए-जंग
क्रिकेट के मैदान का हाल भी इससे जुदा नहीं. कोई भी क्रिकेटर इन बातों से थोड़े ना परेशान होता है कि प्रतिद्वंद्वी टीम का गेंदबाज कैसी बॉल डालेगा, बल्लेबाज कैसी धुनाई करेगा. या कि पिच का मिजाज कैसा होगा. इतनी बातों का अंदाजा उन्हें पहले से होता है. विपक्षी टीम का दिमाग पढ़ना वे खूब जानते हैं. बस, क्रिकेटरों के लिए सबसे मुश्किल काम होता है, अटकलबाजों के बाउंसर झेलना. उनकी पल-पल टर्न लेती पैंतरेबाजी से निपटना.
ये अटकलबाज ही हैं, जो सबसे पहले बता देते हैं कि कौन प्लेइंग इलेवन से बाहर बैठने वाला है, कौन संन्यास लेने वाला है. ग्राउंड पर पानी की बोतल के साथ किसने, किसको, क्या मैसेज भिजवाया. ड्रेसिंग रूम के भीतर किसने, किसको डांटा, किसको पुचकारा, इसकी पूरी स्क्रिप्ट अटकलबाजों के पास होती है. इनका वश चले, तो ये खिलाड़ियों को संन्यास के ऐलान वाले मैसेज भी ड्राफ्ट करके दे दें... अब देखते क्या हो, फटाफट कॉपी-पेस्ट मारो और एक्स पर डाल दो!
परस्पर उपकार का भाव
ऐसा नहीं कि हर बात के लिए अटकलबाज ही जिम्मेदार होते हैं. कई बार सहोपकारिता के भाव से भी काम होते हैं. इन हुनरमंदों तक सूत-कपास पहुंचा दीजिए, ये मिनटों में पूरी की पूरी चादर बुन देंगे. माचिस पकड़ा दीजिए, ये अच्छे-अच्छों के पलीते सुलगा देंगे. इन्हें कैलकुलेटर दे दीजिए, ये अपने ख्वाबों-खयालों में सरकार बनवा देंगे. फिर थोड़ा-बहुत रायता फैला देना इनके लिए कौन-सी कमाल की बात है?
अटकलबाजों के इस हुनर को कई बार चतुर-सुजान नेता भी खूब भुनाते हैं. ज्यादा कुछ करना नहीं है. अगर अपने सहयोगी से मनमुटाव हो, तो जान-बूझकर, मुंह अंधेरे विरोधियों की गली से गुजर जाइए. कोई पूछे, तो चुप्पी लगा जाइए. रहिमन चुप हो बैठिए... या फिर 'मौनं सर्वार्थ साधनम्' मंत्र का ध्यान कीजिए. क्या अपने, क्या पराए, सबके पेट में मरोड़े उठेंगे. आखिर माजरा क्या है?
दूसरों को इतना मजबूर कर दीजिए कि वे खुद अपने पेट की बात उगलना चालू कर दें. जब सबका पेट खाली हो जाए, तब आप मुस्कुराते हुए चुप्पी तोड़िए. मन ही मन शुक्रिया अदा कीजिए उन अटकलबाजों का, जिन्होंने बात-बेबात आपके दिमाग की बत्ती जलाई. बताया कि आज की तारीख में आप अंडरवेट हैं या ओवरवेट या एकदम परफेक्ट!
ड्रेसिंग रूम पॉलिटिक्स
चाहे राजनीति हो या क्रिकेट, यहां हर बात का कुछ न कुछ मतलब जरूर है. हर शिगूफे का कोई न कोई निशाना है. हर इकरार या इनकार का कोई आसान शिकार है. गुगली और बाउंसर छोड़िए, यहां तो हर 'नो बॉल' की भी अहमियत है. इनसे भी मैच बनते और बिगड़ते हैं.
कई बार शब्द खुद ही अपना मतलब साफ कर देते हैं. सफाई खुद ही चुगली कर बैठती है. क्या पता, कहने वाले ज्यादा नादान होते हैं या अटकल लगाने वाले. बयानवीरों के भोलेपन की सीमा देखिए... "यहां कोई विवाद नहीं..." "सभी एकजुट हैं..." "झगड़े की बात महज अफवाह है..." "ड्रेसिंग रूम की बातें बाहर नहीं आनी चाहिए..." क्यों? क्योंकि यहां कोई विवाद नहीं है! लीजिए, मिल गया मसाला.
ऐसे ही रॉ मेटेरियल से तो अटकलों का बाजार गर्म है. सूत-कपास, माचिस, कैलकुलेटर, रायता... अटकलबाजों के लिए इतना काफी है. बस, ध्यान रहे कि ये चीजें उन्हें दे कौन रहा है?
अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...
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