
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने वाराणसी से जुड़ी एक क्रिमिनल रिवीजन याचिका पर सुनवाई करते हुए अपने फैसले में राज्य के सभी न्यायिक अधिकारियों को निर्देश दिया कि वो मुकदमे के दौरान साक्ष्य और बयानों में अपमानजनक भाषा या अपशब्दों को दर्ज न करें. कोर्ट ने स्पष्ट किया कि न्यायिक अधिकारी आदेश पारित करते समय या गवाहों के बयान दर्ज करते समय शिष्ट और सामान्य भाषा का ही प्रयोग करें. यह आदेश जस्टिस हरवीर सिंह की सिंगल बेंच ने संत्रीपा देवी की आपराधिक पुनरीक्षण (Criminal Revision) याचिका को खारिज करते हुए दिया.
मामले के अनुसार संत्रीपा देवी ने सात अगस्त 2024 को वाराणसी के स्पेशल जज, एससी/एसटी एक्ट द्वारा पारित आदेश के विरुद्ध इलाहाबाद हाईकोर्ट में क्रिमिनल रिवीजन याचिका दायर की थी. वाराणसी कोर्ट ने याची संत्रीपा देवी की शिकायत को सीआरपीसी की धारा 203 के तहत इस आधार पर खारिज कर दिया गया था कि विपक्षी संख्या दो से सात के विरुद्ध कोई ठोस साक्ष्य नहीं था. इस आदेश को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी गई. हाईकोर्ट में पुनरीक्षणकर्ता संत्रीपा देवी के वकील ने दलील दी कि वाराणसी कोर्ट द्वारा पारित आदेश पूरी तरह से अवैध और मनमाना है और इसे रद्द किया जाना चाहिए.

वकील ने कहा कि शिकायतकर्ता का साक्ष्य संपूर्ण था, जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वास्तव में घटना हुई थी लेकिन ट्रायल कोर्ट ने शिकायत में दिए गए कथनों के अलावा उपलब्ध संपूर्ण साक्ष्यों पर विचार किए बिना ही शिकायत को खारिज कर दिया. हाईकोर्ट ने याचिका पर सुनवाई करते हुए पाया कि वाराणसी के स्पेशल जज (एससी/एसटी) के पारित आदेश और एक गवाह के बयान में अपमानजनक और अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया गया है.
कोर्ट ने कहा कि न्यायिक आदेशों में ऐसी भाषा में पद की गरिमा और प्रतिष्ठा परिलक्षित होनी चाहिए. कोर्ट ने यह भी कहा कि यह आदेश सकारात्मक दृष्टिकोण से पारित किया जा रहा है और इसे नकारात्मक दृष्टिकोण से नहीं लिया जाना चाहिए. हालांकि कोर्ट ने संत्रीपा देवी की याचिका को खारिज कर दिया और इस आदेश की एक प्रति रजिस्ट्रार (अनुपालन) को भी आवश्यक अनुपालन के लिए देने का निर्देश दिया.
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