27 जुलाई को मीडिया में तमिलनाडु से संबंधित समाचार छाए रहे. कारण था महान चोल सम्राट राजेंद्र प्रथम का जन्म सहस्राब्दी वर्ष. इसके लिए केंद्र सरकार और तमिलनाडु राज्य सरकार ने अपने-अपने ढंग से आयोजन किए. चोल साम्राज्य की राजधानी और यूनेस्को विश्व धरोहर गंगैकोंडचोलपुरम में आयोजित एक विशेष समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हुए.उन्होंने वहां के शिव मंदिर में पूजा-अर्चना भी की. राजेंद्र चोल की याद में हर साल मनाया जाने वाला यह उत्सव तिरुवथिरई कहलाता है.
चोल राजा की गंगा भक्ति
हालांकि 28 जुलाई किसी अन्य कारण से मेरे लिए तमिलनाडु को याद करने का एक आनंददायक दिवस बना.राजेंद्र प्रथम का समय 1014 से 1044 ईस्वी सन माना जाता है अर्थात 11वीं सदी. इससे ठीक तीन सौ साल पहले आठवीं सदी में तमिल धरा पर एक महान स्त्री संत का जन्म हुआ था, जिनका जन्म नक्षत्र उत्सव इस साल 28 जुलाई को मनाया गया. वह थीं बारह तमिल आलवार वैष्णव संतों में एकमात्र महिला संत आन्डाल या गोदा देवी. उनका जन्म मदुरै के पास श्रीविलीपुत्तुर में हुआ था. हालांकि आन्डाल और राजेंद्र चोल में कोई भी समानता नहीं है, सिवाय इस बात के कि दोनों तमिलभाषी थे. किन्तु एक विशेष कारण से मेरे लिए दोनों महत्वपूर्ण बन जाते हैं. दोनों को ही उत्तर भारत में बहने वाली नदियों से लगाव है. आन्डाल के इष्ट है श्रीविलीपुत्तुर में विराजित वटपत्रशायी अर्थात श्री कृष्ण. इसी कारण आन्डाल को यमुना से प्रेम है. अपनी रचना 'तिरूपववै' में आन्डाल वृंदावन में यमुना के किनारे रहने वाले कृष्ण को पुकारती हैं. उनकी इच्छा थी वृंदावन की यात्रा करने की. उनके जन्म काल में उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी. बाद में महान तमिल दार्शनिक रामानुजाचार्य की धारा के भक्तों ने वृंदावन में एक विशाल गोदा रंगनाथ मंदिर बनवाकर उनकी इस इच्छा को पूरा किया. हालांकि गोदा के जीवन से इस मंदिर के बनने तक कई सदियां बीत गई थीं.

गंगैकोंडचोलपुरम के शिव मंदिर में पूजा-अर्चना करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी.
वहीं दूसरी ओर राजेंद्र चोल एक राजा के नाते राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से भरे थे. किन्तु एक राजा के साथ अपने पिता महान चोल सम्राट राजराज प्रथम की तरह वह एक शिव भक्त भी थे. अपनी उत्तर भारत विजय के संदर्भ में राजेंद्र चोल बंगाल पर आक्रमण करते हैं और गंगा के पवित्र जल को कलश में भरकर अपनी नई राजधानी गंगैकोंडचोलपुरम (ऐसा शहर जिसे गंगा जल लाने के पुण्यस्मरण के तौर पर बनाया गया) में एक सरोवर में स्थापित करते हैं.सरोवर का नामकरण किया जाता है चोल-गंगा. सम्राट राजेंद्र को कहा जाता है गंगैकोंडचोल- ऐसा सम्राट जिन्होंने गंगा के तट को जीता. राजनीतिक संदर्भ में इस जीत के चाहे जो मायने हों, मसलन इससे चोल साम्राज्य की सामरिक शक्ति की जानकारी उत्तर के साम्राज्यों को हुई. किन्तु इसके दूरगामी सांस्कृतिक प्रभाव पड़े.
उत्तर और दक्षिण भारत का संबंध
गंगा तट विजय के उपरांत गंगा जल को लाकर चोल साम्राज्य की राजधानी में स्थापित करना राजेंद्र चोल का भारत बोध था. यही भारत बोध आन्डाल को यमुना की प्रेमी बनाता है. इस संदर्भ में हम तमिल वैष्णव संत आलवारों द्वारा रचित 'दिव्य प्रबंधम' का उदाहरण ले सकते हैं. इस ग्रंथ में विष्णु से संबंधित एक सौ आठ दिव्य प्रदेशों का वर्णन है.करीब 1200 सौ साल पुरानी इस पुस्तक में तमिल संत उत्तर भारत के बद्रीनाथ, वृंदावन, देव प्रयाग, मुक्तिनाथ (वर्तमान नेपाल), अयोध्या और नैमिषारण्य का जिक्र करते हैं. उत्तर भारत के इन वर्तमान स्थानों से तमिलनाडु के किसी भी शहर की दूरी एक हजार किलोमीटर से अधिक होगी. किन्तु आज से एक सजार साल पहले भी उत्तर के इन स्थानों के प्रति उनका लगाव ही भारत बोध है. यह भारत बोध ही काशी को तमिल, मलयाली, तेलेगु और कन्नड भाषी भक्तों के लिए महातीर्थ बनाता है. काशी के विश्वनाथ मंदिर की कई रस्मों को निभाने वाले जंगमबाड़ी मठ की परंपरा उत्तर भारतीय न होकर कर्नाटक की है. इसी प्रकार काशी के प्रसिद्ध गौरीकेदारेश्वर मंदिर में पूजा-पाठ की संपूर्ण विधि तमिल शैव परंपरा से होती आई है.इन स्थानों में बिना किसी भाषाई भेद के सभी समुदायों का जो नैसर्गिक अपनत्व है, वही भारत बोध है. आज से कुछ साल पहले जिस काशी तमिल संगम की स्थापना की गई थी, उसके पीछे यही कारण थे. उत्तर की काशी और तमिल शैव परंपरा अविछेद्य है. इसी प्रकार दक्षिण के रामेश्वरम के साथ उत्तर का संबंध हजारों साल पुराना है. महाराष्ट्र के संत एकनाथ की रामेश्वरम यात्रा तो प्रसिद्ध ही है. चोल राजाओं के उत्तर भारत अभियान के संदर्भ में कुछ ऐतिहासिक तथ्यों का स्मरण भारत बोध के संदर्भ में करना उचित होगा.

गंगैकोंडचोलपुरम के शिव मंदिर में पूजा-अर्चना करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी.
तमिल नगर कुंभकोणम के नागेश्वर मंदिर में एक पाल वंशीय गणेश की प्रतिमा पूजित हो रही है. इतिहासकार नागस्वामी के अनुसार यह प्रतिमा राजेंद्र चोल अपनी बंगाल विजय के बाद वहां से ले आए थे. ध्यान देने वाली बात यह है की एक विजेता राजा अपने विजय अभियान के बाद विजित प्रदेश से देवता लेकर अपने प्रदेश के मंदिर में भाव भक्ति से प्रतिष्ठा करता है. राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के बावजूद दो भिन्न प्रदेश आध्यात्मिक डोर से आपस में बंधे हुए दिखते हैं.यही कारण है कि एक ही देवता दो भिन्न प्रदेशों में जो राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी हैं द्वारा पूजित होते हैं. इतिहासकार मीनाक्षी जैन, नागस्वामी के हवाले से कहती हैं कि कुलोतुंग चोल प्रथम (1070-1122) के समय बंगाल से पाल साम्राज्य के समय बनी हुई नटराज शिव की एक मूर्ति लाई गई,जिसे तमिलनाडु के मेलकदंबूर शिव मंदिर में उत्सव मूर्ति के तौर पर स्थापित किया गया. जैन के मुताबिक यह मूर्ति युद्ध के समय नहीं लाई गई थी, बल्कि कुलोतुंग चोल प्रथम के राजगुरु जो बंगाल से थे, वो अपने निजी पूजा के लिए उस मूर्ति को लाए थे. आज भी इस मंदिर में बंगाल के नटराज शिव की पूजा धूमधाम से हो रही है. जैसा कि हमने पहले कहा था, चोल सम्राट शैव थे. ऐसे में राजनीतिक मुहिम के साथ ही बंगाल के उन्नत शैव परंपरा के साथ भी उनका सामना हुआ होगा. दिलचस्प किन्तु दुखी करने वाली बात यह है की आज के बंगाल में शैव परंपरा विलुप्त प्राय है, किन्तु तमिलनाडु में यह परंपरा न केवल जीवित है बल्कि वहां के सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न अंग है. राजनीतिक अभियान के बाद अन्य प्रदेश से देव विग्रहों को अपने प्रदेश में लाकर प्रतिष्ठित करना इन शासकों का भारत बोध ही था.
चोल राजाओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा
भारत को राजाओं और उनके राजनीतिक सीमाओं के नजरिए से देखना भारी भूल होगी. भारत राष्ट्र आन्डाल के गीतों, नामदेव के अभंगों (नामदेव के पद तो गुरु ग्रंथ साहब में संकलित किए गए हैं) और लाल देद या लल्लेश्वरी के वचनों से बनता है. यहां की राज शक्ति भी इसी परंपरा का हिस्सा रहा है. यही कारण है कि राजनीतिक सीमाओं के बावजूद आदि शंकर से लेकर गुरु नानक तक भारतवर्ष की यात्राएं करते हैं. किन्तु किसी भी राजनीतिक सीमा पर उन्हें रोका नहीं गया. यूरोप और मध्य पूर्वी देशों में ऐसा होना अतिदुर्लभ ही है. पूरे मध्यकाल में यूरोप एक धर्म इसाइयत के होते हुए भी अपास में लड़ता रहा. वहीं भारत में आपस में लड़ते हुए भी यहां का मूल सूत्र एकात्मता का संदेश देता रहा.महान चोल राजाओं के उत्तर भारत विजय को हमें केवल मात्र राजनीतिक दृष्टि से देखने की भूल नहीं करनी चाहिए बल्कि यह चोल सम्राटों के गंगा के प्रति भाव को भी दिखाता है. अन्यथा एक पराजित प्रदेश की नदी का जल उनके लिए इतना महत्वपूर्ण और पवित्र कदापि नहीं होता की वह अपने राजधानी के सरोवर का नामकरण ही उस नदी के नाम पर कर दें. इस राजनीतिक अभियान से चोल राजा बंगाली शैव साधकों के संस्पर्श में आते हैं, जिसका प्रभाव तमिलनाडु के शैव सिद्धांत में दिखता है. चोल राजाओं को भारत के इस अविच्छिन्न परंपरा के बाहर देखने से बड़ी भूल होने की संभावना है. अपने राजनीतिक महत्वाकांक्षा के बावजूद चोल शासकों ने कभी भी धार्मिक प्रतीकों पर हमला नहीं किया बल्कि जब भी मौका मिला अन्य प्रदेशों के देवताओं को अपने प्रदेश में विधि विधान से स्थापित किया और उन प्रदेशों के आध्यात्मिक परंपरा से भी खुद को जोड़ लिया. आज आवश्यकता है भारत के इस वीर सपूत को केवल आंचलिक दृष्टी से न देखकर भारतीयता के आत्मा के एक मुख्य तत्व के रूप में देखना होगा.
अस्वीकरण: डॉक्टर संदीप चटर्जी, दिल्ली विश्विद्यालय के शहीद भगत सिंह कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.