ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से दुनिया भर में तापमान के रिकॉर्ड टूट रहे हैं लेकिन दुनिया के सबसे गर्म देशों में से एक कुवैत जल्द रहने लायक नहीं बचेगा. कुवैत में 2016 में तापमान 54 डिग्री सेल्सियस पहुंच गया था. यह पिछले 76 सालों में धरती पर मापा गया सबसे अधिक तापमान रहा. आम तौर पर कुवैत में सबसे गर्म रहने वाले दिनों से पहले ही पिछली बार जून में पारा 50 डिग्री से पार चला गया. कुवैत में पर्यावरण की पब्लिक अथॉरिटी के अनुसार अगर अब तक मौजूद औसत से तुलना की जाए तो 2071 से 2100 के बीच कुवैत के कुछ हिस्सों के तापमान में 4.5 सेल्सियस तक की बढ़ोतरी हो सकती है. इससे कुवैत के अधिकतर हिस्से रहने लायक नहीं रहेंगे.
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जंगली जीव जंतुओं के लिए कुवैत अब भी रहने लायक नहीं है. भीषण गर्मी वाले महीनों में छत पर मरी हुई चिड़िया दिखती हैं. इन्हें कहीं छाया या पानी नहीं मिल पाता. जानवरों के डॉक्टरों के पास लगभग मरी हालत में आवारा बिल्लियों के पहुंचने के मामले बढ़ जाते हैं. जंगली भेड़ियों का भी रेगिस्तान में रहना मुहाल हो गया है.
ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के मुताबिक कुवैती जू में जंगली जानवरों की जानकार तमारा क़ाबाज़ार्ड कहती हैं, "इस लिए कुवैत में जंगली जानवर दिखना और कम होता जा रहा है क्योंकि उनमें से अधिकतर गर्मियों में बच ही नहीं पाते. पिछले साल तीन-चार दिन तक जुलाई के आखिर में बहुत गर्मी और उमस थी. अपने घर से बाहर कदम रखना मुश्किल था. हवा भी नहीं चल रही थी. बहुत से जानवरों को सांस लेने में दिक्कत होने लगी.
बांग्लादेश या ब्राज़ील जैसे देशों से अलग जो पर्यावरण की चुनौतियों का सामना जनसंख्या और ग़रीबी के साथ कर रहे हैं, कुवैत OPEC देशों में तेल निर्यात में चौथे स्थान पर है. केवल 4.5 मिलियन लोगों की जनसंख्या वाले कुवैत के पास दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा सॉवरेन वेल्थ फंड है. ऐसे में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने में संसाधन आड़े नहीं आ रहे बल्कि इसके पीछे राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी लगती है.
कुवैत में अधिकतर लोग अमीर हैं और उनकी गाड़ियां, घर, दफ्तर, मॉल सब एयरकन्डीश होता है, इनमें से अधिकतर यूरोप में अपनी गर्मियां बिताते हैं. कोका-कोला की बॉटल से सस्ता जहां पेट्रोल मिलता है, ऐसे देश के स्थानीय नागरिकों के पास मंहगी गाड़ियां हैं और वो पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग नहीं करते हैं.
कुवैत के पब्लिक ट्रांसपोर्ट में अधिकतर लेबर क्लास सफर करती है. दूसरे देशों से कुवैत आकर काम करने वालों के लिए इस गर्मी से बच पाना नामुमकिन हो जाता है. हालांकि सरकार अधिक गर्मी के दिनों में दोपहर में बाहर काम करने पर पाबंदी लगाती है लेकिन पिछले साल साइंस डायरेक्ट में छपी एक स्टडी बाती है कि कुवैत में गर्मी के दिनों में मौतों की संख्या दुगनी हो जाती है. लेकिन यह ग़ैर कुवैती पुरुषों के लिए तिगुनी हो जाती है, जो अधिकतर कम तनख्वाह पर काम करते हैं.
कुवैत के पड़ोसी देश भी कच्चे तेल के निर्यात पर निर्भर करते हैं, उन्होंने भी पर्यावरण को बचाने लिए मजूबत क्लाइमेट एक्शन पर हस्ताक्षर किए हैं. सऊदी अरब ने पिछले साल घोषणा की है कि वो 2060 तक नेट ज़ीरो का टार्गेट पा लेगा. यूनाइटेड अरब अमीरात ने 2050 तक नेट ज़ीरो का लक्ष्य रखा है. यह दोनों ही देश कच्चे तेल के बड़े उत्पादक हैं लेकिन दोनों ने ही घोषणा की है कि उनकी अर्थव्यवस्था केवल तेल पर ही निर्भर नहीं रहेगी. यह देश नवीकरणीय और साफ ऊर्जा में निवेश कर रहे हैं. मध्य-पूर्व की सरकारों ने यह माना है कि बढ़ते तापमान और बढ़ते समुद्री स्तर से उन्हें भी नुकसान है और संयुक्त राष्ट्र की अगली दो क्लाइमेट कॉन्फ्रेंस मिस्त्र और यूएई में होनी हैं.
लेकिन इससे अलग कुवैत ने पिछले साल नवंबर में हुए COP26 समिट में 2035 तक ग्रीन गाउस गैस उत्सर्जन को घटाने का लक्ष्य केवल 7.4% का रखा है. 2030 तक 1.5 डिग्री सेल्सियत तापमान की बढ़ोतरी को रोकने के लिए किए पेरिस एग्रीमेंट के लक्ष्यों के अनुसार यह 45% कम था.
खाड़ी देश से निकल ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले मनाल शेहाबी के अनुसार अगर हम बाकी मध्य-पूर्वी देशों से तुलना करें तो कुवैत पिछड़ता दिखता है. शेख अब्दुल्लाह अल-अहमद अल साबाह, ईपीए के हेड ने COP26 को बताया था कि उनका देश पर्यावरण को स्थिर करने के अंतरराष्ट्रीय प्रयासों के साथ है और कुवैत ने सदी के मध्य तक राष्ट्रीय स्तर पर कम कार्बन उत्सर्जन का वादा भी किया था लेकिन इसके लिए ज़मीनी स्तर पर क्या उपाय किए जाएंगे, इस बारे में स्पष्टता नहीं है.
कुवैत में द स्कूल ऑफ इकॉनमिक्स के क्लाइमेट ओपीनियन्स पर सर्वे में पता चला कि कुवैत में उम्रदराज़ नागरिक पर्यावरण को लेकर तुरंत एक्शन लेने से बहुत सहमत नहीं है. कुछ को लगता है कि यह उनकी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने की कोशिश है. 50 साल से अधिक उम्र के सभी लोगों ने रियाद या दुबई की तरह कुवैत में मेट्रो नेटवर्क बनाने की खिलाफत की. जबकि प्राइवेट सेक्टर को यह लगता है कि क्लाइमेट चेंज एक परेशानी है और सरकारी नेतृत्व को इसे हल करना चाहिए.
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