अगर पब्लिक प्लेस पर नहीं हुआ है जातिसूचक दुर्व्यवहार तो SC/ST एक्ट के तहत केस नहीं : हाईकोर्ट

अदालत ने कहा, “स्पष्ट रूप से, सार्वजनिक स्थान पर या सार्वजनिक रूप से अपशब्द नहीं कहे गए जो मौजूदा मामले में अधिनियम को लागू करने के लिए उपलब्ध नहीं हैं.”

अगर पब्लिक प्लेस पर नहीं हुआ है जातिसूचक दुर्व्यवहार तो SC/ST एक्ट के तहत केस नहीं : हाईकोर्ट

अदालत ने एक व्यक्ति के खिलाफ लंबित मामले को खारिज कर दिया. (प्रतीकात्मक)

बेंगलुरु:

कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कहा है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत अपराधों के लिए, जातिसूचक दुर्व्यवहार सार्वजनिक स्थान पर होना चाहिए. अदालत ने एक व्यक्ति के खिलाफ लंबित मामले को खारिज कर दिया क्योंकि यह पाया गया कि कथित दुर्व्यवहार एक इमारत के तहखाने में किया गया था, जहां सिर्फ पीड़ित और उसके सहकर्मी ही मौजूद थे. 

10 जून को कोर्ट ने सुनाया फैसला 

साल 2020 में हुई कथित घटना में, रितेश पायस ने एक इमारत के तहखाने में मोहन को जातिसूचक गाली दी, जहां वह अन्य लोगों के साथ काम करता था. सभी कर्मियों को भवन मालिक जयकुमार आर. नायर ने काम पर रखा था. न्यायमूर्ति एम नागप्रसन्ना ने 10 जून को अपने फैसले में कहा, “उपरोक्त बयानों को पढ़ने से दो कारक सामने आएंगे- एक यह है कि इमारत का तहखाना सार्वजनिक स्थल नहीं था और दूसरा, अन्य व्यक्ति जो वहां मौजूद होने का दावा करते हैं, वे केवल शिकायतकर्ता और जयकुमार आर. नायर के अन्य कर्मचारी या शिकायतकर्ता के मित्र थे."

अदालत ने कहा, “स्पष्ट रूप से, सार्वजनिक स्थान पर या सार्वजनिक रूप से अपशब्द नहीं कहे गए जो मौजूदा मामले में अधिनियम को लागू करने के लिए उपलब्ध नहीं हैं.” अदालत ने कहा कि इसके अलावा मामले में अन्य कारक भी थे. आरोपी रितेश पायस का भवन मालिक जयकुमार नायर से विवाद था और उसने भवन निर्माण के खिलाफ स्थगन ले रखा था.

अदालत ने निकाला ये निष्कर्ष

अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि नायर पायस पर “अपने कर्मचारी (मोहन) के कंधे पर बंदूक रखकर गोली चला रहा था.” अदालत ने कहा कि दोनों के बीच विवाद के मुद्दे को खारिज नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह घटनाओं की श्रृंखला में एक स्पष्ट कड़ी को प्रदर्शित करता है. इसलिए, अपराध का पंजीकरण ही प्रामाणिकता की कमी से ग्रस्त है. 

मंगलुरु में सत्र न्यायालय में जहां मामला लंबित है, अत्याचार अधिनियम के अलावा, पायस पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 323 (चोट पहुंचाने) के तहत भी आरोप लगाया गया है. उच्च न्यायालय ने इन आरोपों को भी यह कहते हुए खारिज कर दिया कि, “आईपीसी की धारा 323 के तहत दंडनीय अपराध के लिए तकरार में चोट लगी होनी चाहिए.”

उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि, इस मामले में हालांकि, मोहन का “घाव प्रमाण-पत्र हाथ के अगले हिस्से पर एक साधारण खरोंच का निशान और छाती पर एक और खरोंच का निशान दिखाता है. रक्तस्राव का संकेत नहीं है. इसलिए, साधारण खरोंच के निशान आईपीसी की धारा 323 के तहत अपराध नहीं हो सकते हैं.”

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