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ग्राउंड रिपोर्ट : सड़क से संसद तक 'मनरेगा' पर संग्राम.. क्या वादे के मुताबिक मिल रहा काम? जानिए योजना का सच

केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 5 सालों में मनरेगा के तहत ग्रामीण मजदूरों को औसतन सिर्फ 50.35 दिन का ही रोजगार मिल पाया है. यानी कागजों में 100 दिन की गारंटी. लेकिन जमीन पर हकीकत उससे आधी भी नहीं है.

ग्राउंड रिपोर्ट :  सड़क से संसद तक 'मनरेगा' पर संग्राम.. क्या वादे के मुताबिक मिल रहा काम? जानिए योजना का सच
  • 5 वर्षों में मनरेगा के तहत ग्रामीण मजदूरों को औसतन 50 दिन रोजगार ही मिल पाया है, जो गारंटी से आधा है.
  • भुगतान में देरी और पारदर्शिता की कमी के कारण मजदूरों को समस्याओं का सामना करना पड़ता है.
  • कई गांवों में मनरेगा के लिए मंजूर काम कागजों में होने के बावजूद जमीन पर कार्य शुरू नहीं हो पा रहा है.
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सोनीपत:

एक तरफ मनरेगा का नाम बदलकर ‘विकसित भारत-जी राम जी विधेयक, 2025'  किए जाने को लेकर देशभर में चर्चा तेज है. वहीं, दूसरी तरफ जमीनी सवाल जस के तस बने हुए हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय निवासियों को साल में 100 दिन रोजगार की गारंटी देने वाली मनरेगा योजना के मुकाबले नई प्रस्तावित योजना में 125 दिन रोजगार का दावा किया जा रहा है. सुनने में यह बदलाव आकर्षक जरूर लगता है. लेकिन असली सवाल यही है कि क्या मौजूदा 100 दिन का रोजगार भी गांवों तक सही मायनों में पहुंच पा रहा है.

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इसी सवाल का जवाब तलाशने NDTV की टीम दिल्ली से सटे हरियाणा के सोनीपत पहुंची. सोनीपत जिले में आठ ब्लॉक हैं और हर ब्लॉक में औसतन 45 गांव आते हैं. हमने गांवों में जाकर मनरेगा की जमीनी हकीकत को करीब से देखने की कोशिश की.

50.35 दिन का ही रोजगार मिल पाया

केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 5 सालों में मनरेगा के तहत ग्रामीण मजदूरों को औसतन सिर्फ 50.35 दिन का ही रोजगार मिल पाया है. यानी कागजों में 100 दिन की गारंटी. लेकिन जमीन पर हकीकत उससे आधी भी नहीं है.

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मनरेगा भले ही केंद्र सरकार की योजना हो, लेकिन इसमें ‘एक देश, एक मजदूरी' जैसी व्यवस्था नहीं है. हरियाणा उन राज्यों में गिना जाता है जहां मनरेगा के तहत मजदूरी अपेक्षाकृत ज़्यादा है-यहां मज़दूरों को 400 रुपये प्रतिदिन दिहाड़ी मिलती है. लेकिन समस्या सिर्फ मजदूरी की रकम नहीं, भुगतान में देरी भी है. काम पूरा होने के बाद मस्टर रोल, पैमाइश और जांच की प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही भुगतान होता है, जो कई बार 21 दिन तक लग जाता है. सवाल यह है कि रोज कमाने-खाने वाला दिहाड़ी मजदूर इतने दिनों तक बिना पैसे के अपने परिवार का गुजारा कैसे करे?

कागजों में मजूरी, जमीन पर आज तक काम शुरू नहीं हुआ

गांवों में मनरेगा के तहत किस तरह के काम होते हैं. यह जानने के लिए हमने स्थानीय पार्षद संजय बड़वासनीया से बात की. वह NDTV की टीम को सोनीपत के किलोहड़ गांव लेकर पहुंचे. यहां खेतों की ओर जाने वाले रास्ते को 6 महीने पहले कागजों में मजूरी मिल चुकी है. लेकिन जमीन पर आज तक काम शुरू नहीं हुआ. रास्ता अधूरा पड़ा है और काम रुकने की वजह साफ नहीं है.

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पार्षद का आरोप है कि मनरेगा में पारदर्शिता की भारी कमी है. करोड़ों रुपये का फंड आता है. लेकिन वह कहां जाता है, यह स्पष्ट नहीं. मंजूरी मिलने के बावजूद काम क्यों नहीं शुरू होता. इसका जवाब स्थानीय स्तर पर किसी के पास नहीं है. उनका कहना है कि काम शुरू भी हो जाए तो ठेकेदारों को 6–7 महीने तक भुगतान नहीं मिलता, जिससे लोग मनरेगा के काम से दूरी बनाने लगते हैं. मटेरियल पेमेंट में देरी भी एक बड़ी समस्या है.

लोग शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर

काम न होने का सीधा असर गांवों पर दिखता है. रोजगार की तलाश में लोग शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर हैं. एक वजह मज़दूरी का अंतर भी है-जहां मनरेगा में 400 रुपये मिलते हैं, वहीं शहरों में 700–800 रुपये रोज कमाए जा सकते हैं. किलोहड़ गांव के लोगों का कहना है कि सड़क की मंज़ूरी मिलने के बावजूद काम न होने से खेतों तक पहुँचना मुश्किल हो गया है, ख़ासकर बरसात के मौसम में. ग्रामीण जगदेव सिंह कहते हैं, “इस रास्ते पर साइकिल तक नहीं चल सकती. खेत इसी तरफ़ हैं, लेकिन इतनी दिक्कत के बाद भी काम क्यों नहीं होता, हमें नहीं पता.”

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काग़ज़ पूरे. लेकिन अभी तक नहीं हुआ काम

इसके बाद NDTV की टीम पहुंची सोनीपत के म्हारा गांव. यहां ब्लॉक समिति के सदस्य विकास शर्मा ने बताया कि गांव में 1 से 1.5 किलोमीटर सड़क निर्माण की मंज़ूरी है. सभी काग़ज़ पूरे हैं और साल की शुरुआत में अप्रूवल भी मिला, लेकिन कभी बजट की कमी तो कभी दूसरी वजह बताकर काम रोक दिया जाता है.

गांव की महिलाओं ने बताया कि उन्हें पूरे साल में अब तक सिर्फ़ 16 दिन का ही मनरेगा काम मिला है. कुछ महिलाओं का कहना है कि 400 रुपये की दिहाड़ी में आने-जाने का खर्च निकालना भी मुश्किल हो जाता है. “इतनी मज़दूरी हो कि बच्चों का पालन-पोषण हो सके”-यह मांग लगभग हर मज़दूर की है.

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योजना का नाम बदलने से क्या बदलेगा? 

हमने उस जगह को भी देखा जहां म्हारा गांव में मनरेगा के तहत काम हुआ था. मेड़ के पास झाड़ियों की सफ़ाई. लेकिन गांव वालों का सवाल साफ़ है: योजना का नाम बदलने से क्या बदलेगा, जब ज़मीन पर काम ही नहीं मिल रहा. जमीनी हकीकत को समझने NDTV की टीम ADC कार्यालय भी पहुंची, जहां से मनरेगा के काम की निगरानी और क्रियान्वयन होता है. ADC लक्षित सरीन ने पहले मुलाक़ात के लिए हामी भरी, लेकिन बाद में व्यस्तता का हवाला देकर बातचीत से इनकार कर दिया.

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