प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लालकिले से भाषण में सेक्युलर सिविल कोड को लागू करने पर ज़ोर दिया था. संविधान के अनुच्छेद-44 के तहत यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड को पारित करने वाला उत्तराखंड देश का पहला राज्य बन गया, लेकिन इससे जुड़े नियम अभी लागू नहीं हुए. मुस्लिम शादियों के रजिस्ट्रेशन को ज़रूरी बनाने के लिए असम का नया क़ानून, लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र 18 से 21 करने के लिए हिमाचल प्रदेश का प्रस्तावित क़ानून, इन सभी क़ानूनों पर बहस से देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में सहमति का माहौल बढ़ेगा. इन मामलों से जुड़े 9 क़ानूनी पहलुओं को समझना ज़रूरी है...
- शादी से जुड़े विषयों पर केंद्रीय क़ानून - Constitution की सातवीं अनुसूची की तीसरी लिस्ट के इंट्री 5 में शादी और तलाक से जुड़े विषयों पर केंद्र और राज्य दोनों को क़ानून बनाने का अधिकार है. इस बारे में केंद्रीय स्तर पर क्रिश्चियन मैरिज एक्ट-1872, पारसी मैरिज एण्ड डायवोर्स एक्ट-1936, मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एक्ट-1937, स्पेशल मैरिज एक्ट-1954, हिन्दू मैरिज एक्ट-1955 आदि बनाए गए हैं. बाल-विवाह रोकने के लिए संसद ने 2006 में क़ानून बनाया था, जिसमें हिमाचल प्रदेश की विधानसभा ने बदलाव किया है.
- लड़की और लड़के की शादी की बराबर उम्र के लिए विधेयक - लड़की और लड़के की शादी की उम्र एक समान करने के लिए साल-2011 में केंद्रीय कैबिनेट ने प्रस्ताव पारित किया था. इस बारे में जून, 2020 में जया जेटली की अध्यक्षता वाली टास्क फ़ोर्स का गठन हुआ. साल 2020 में लालकिले से प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाने के लिए क़ानून में बदलाव की ज़रूरत पर ज़ोर दिया था. Task Force रिपोर्ट के अनुसार सरकार ने क़ानून में बदलाव के लिए 2021 में विधेयक पेश किया था, लेकिन विरोध के बाद इसे संसद की स्थायी समिति के पास विचार के लिए भेज दिया गया, इसलिए केंद्रीय स्तर पर लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र अब भी 18 साल है.
- हिमाचल के नए विधेयक को राष्ट्रपति की मंज़ूरी ज़रूरी - हिमाचल सरकार ने पिछले साल कमेटी गठित की थी, जिसकी रिपोर्ट के आधार पर नया विधेयक विधानसभा में पारित हुआ है. शादी की न्यूनतम उम्र 21 साल करने वाला हिमाचल प्रदेश देश का पहला राज्य बन गया है. इससे लड़के और लड़की दोनों की शादी की न्यूनतम उम्र एक समान हो जाएगी. सरकार के अनुसार, इससे बच्चों और महिलाओं के स्वास्थ्य और आर्थिक, सामाजिक प्रगति पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. बाल-विवाह के बाद उसे रद्द कराने के लिए पीड़ित लड़का या लड़की 5 साल तक अदालत में मामला दायर कर सकता है. Article 200 के तहत विधानसभा से पारित होने के बाद राज्यपाल के पास विधेयक को भेजा जाएगा, क्योंकि हिमाचल प्रदेश के नए क़ानून से केंद्रीय क़ानून में बदलाव हुए हैं, इसलिए अनुच्छेद 254 के तहत राज्यपाल इस विधेयक को राष्ट्रपति की मंज़ूरी के लिए भेज सकते हैं.
- शादी के अनिवार्य रजिस्ट्रेशन के लिए सुप्रीम कोर्ट का आदेश - संविधान की सातवीं अनुसूची में समवर्ती सूची में इंट्री 30 के तहत ज़रूरी आंकड़ों के लिए प्रावधान है. सुप्रीम कोर्ट के अनेक फ़ैसलों और अन्य क़ानूनों के अनुसार भारत में जन्म, मृत्यु, शादी और तलाक का रजिस्ट्रेशन ज़रूरी है. कोर्ट के अनुसार Marriage Registration का मतलब शादी की वैधता का निर्धारण करना नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने साल 2006 में सीमा बनाम अश्विनी कुमार मामले में अहम फ़ैसला दिया था. उसके अनुसार राज्यों और केंद्र सरकार को शादी के रजिस्ट्रेशन के लिए ज़रूरी क़ानून बनाने थे. Law Commission की 270वीं रिपोर्ट के अनुसार शादी का रजिस्ट्रेशन नहीं कराने पर दंड की व्यवस्था नहीं होने से राज्यों के नियम अधकचरे हो गए हैं.
- बाल-विवाह पर रोक के लिए केंद्रीय क़ानून - आज़ादी से पहले राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारकों ने Child Marriage के खिलाफ मुहिम छेड़ी थी. उसके बाद 1929 में बाल-विवाह रोकने के लिए अंग्रेज़ों ने सारदा क़ानून बनाया. उसके बाद 1978 में लड़कियों के लिए 18 साल और लड़कों के लिए 21 साल शादी की न्यूनतम उम्र तय की गई. बाल-विवाह को रोकने के लिए संसद ने 2006 में क़ानून बनाया. सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसलों के अनुसार यह क़ानून सभी धर्मों के लोगों पर लागू होता है. पिछले महीने केरल हाईकोर्ट के अहम फैसले के अनुसार बाल-विवाह उन्मूलन अधिनियम 2006 सभी धर्मों के लोगों पर लागू होता है, इसलिए असम का नया क़ानून संविधान सम्मत होने के साथ सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के अनुरूप है.
- असम के नए क़ानून से शादियों का अनिवार्य रजिस्ट्रेशन - अंग्रेज़ों के समय के 89 साल पुराने क़ानून को रद्द करने से मुस्लिमों के विवाह और तलाक का सरकारी पंजीकरण अनिवार्य हो गया है. क़ाज़ियों द्वारा किए गए पुराने रजिस्ट्रेशन वैध रहेंगे. इस क़ानून से कई बड़े बदलाव आएंगे. पुराने क़ानून में क़ाज़ियों को निकाह के रजिस्ट्रेशन के लिए क़ानूनी अधिकार दिए गए थे, जिनके अनुसार सरकारी खर्च पर लगभग 95 क़ाज़ियों की नियुक्ति की गई. अब रजिस्ट्रेशन का काम क्षेत्रीय सब-रजिस्ट्रार कार्यालय में होगा.
- बाल और बहु-विवाह पर रोक - पुराने क़ानून में रजिस्ट्रेशन ऐच्छिक था, जिसे अब ज़रूरी कर दिया गया है. इससे बहु-विवाह पर रोक लगने के साथ महिलाओं के भरण-पोषण का क़ानूनी अधिकार सशक्त होगा. पुराने क़ानून के अनुसार 15 साल से ऊपर की नाबालिग लड़कियों की शादी का रजिस्ट्रेशन भी हो रहा था. नए क़ानून से बाल-विवाह और महिलाओं का शोषण रुकने के साथ विधवा महिलाओं को क़ानूनी अधिकार हासिल होंगे. रजिस्ट्रेशन की एप्लीकेशन 30 दिन पहले देनी होगी और उन दस्तावेज़ का वेरिफ़िकेशन होगा. लड़की या लड़के के पक्ष में से एक का उस जिले में निवास करना ज़रूरी है, इससे अवैध घुसपैठ पर रोक लगेगी.
- कट्टरपंथी संगठनों का बेवजह विरोध - कुछ कट्टरपंथी नेताओं के अनुसार असम के नए क़ानून में स्पेशल मैरिज एक्ट के अनेक प्रावधानों को शामिल किया गया है, जो दो अलग-अलग धर्मों के लोगों की शादी के लिए बनाया गया था. आलोचकों के अनुसार अन्य धर्मों की शादियों के रजिस्ट्रेशन को ज़रूरी करने के लिए क़ानून नहीं है, इसलिए यह क़ानून भेदभावपूर्ण है. असम सरकार के अनुसार नए क़ानून से इस्लामी रीति-रिवाज से होने वाली शादियों में कोई हस्तक्षेप नहीं होगा. नए क़ानून में एकमात्र शर्त यह है कि इस्लाम द्वारा निषिद्ध शादियों का नए क़ानून में रजिस्ट्रेशन नहीं होगा. नए क़ानून का बेवजह विरोध करने वाले नेताओं को समझना चाहिए कि मुस्लिम पर्सनल लॉ की आड़ में बाल-विवाह को जायज़ ठहराने से संसद के क़ानून का उल्लंघन होता है. बच्चों और महिलाओं के बेहतर स्वास्थ, उनकी आर्थिक और सामाजिक प्रगति के लिए शादी की न्यूनतम उम्र के क़ानून और रजिस्ट्रेशन के नियम का पालन करना सभी नागरिकों का संवैधानिक उत्तरदायित्व है.
- क़ानूनी विसंगतियों को खत्म करना ज़रूरी - पॉक्सो क़ानून में 2012 में बदलाव से सहमति के साथ रिश्तों की उम्र को घटाकर 18 से 16 साल कर दिया गया है, इससे अनेक क़ानूनी विसंगतियां हो रही हैं. राष्ट्रीय परिवार कल्याण सर्वेक्षण (NHFS)-5 के आंकड़ों के अनुसार 2021 तक देश में 23.3 फ़ीसदी लड़कियों का विवाह 18 साल से पहले हो गया. उसी तरह 17.7 फ़ीसदी लड़कों की शादी 21 साल से पहले हो गई. ऐसे सभी मामलों में क़ानून के अनिवार्य पालन पर ज्यादा ज़ोर देने से परिवार टूटने के साथ मुकदमेबाज़ी बढ़ सकती है. शादियों के अनिवार्य रजिस्ट्रेशन के दूसरे पहलू भी हैं. राजस्थान में शादियों के अनिवार्य रजिस्ट्रेशन के लिए 2021 में विधेयक पेश हुआ था. तत्कालीन गवर्नर ने उसका विरोध करते हुए कहा था कि इससे बाल-विवाह को वैधता मिलती है. उत्तराखंड में Uniform Civil Code का क़ानून राष्ट्रपति की मंज़ूरी के बाद अमल में आ गया है, लेकिन राज्य हाईकोर्ट के हालिया फ़ैसले से यह साफ़ है कि नियमों को फ़ाइनल करके लागू किए बगैर, UCC के क़ानून को उत्तराखंड में लागू करना मुश्किल है.
विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं... साइबर, संविधान और गवर्नेंस जैसे अहम विषयों पर नियमित कॉलम लेखन के साथ इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं...
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