इंदिरा गांधी के चेहरे पर गम था, आंखों पर काला चश्मा था और सिर शॉल से ढका हुआ था. बगल में उनकी बुआ वियज लक्ष्मी पंडित बैठी थीं. दिन था 28 मई 1964. पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू के अंतिम संस्कार में इंदिरा गांधी के चेहरे पर कुछ यही भाव थे. इस दिन देशभर में शोक की लहर थी. भारत के पहले प्रथानमंत्री नहीं रहे थे. जवाहरलाल नेहरू की 27 मई, 1964 को हृदय गति रुकने से मृत्यु हो गई थी. दूसरे दिन 28 मई को दिल्ली में यमुना के तट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया. नेहरू की अंतिम यात्रा में हजारों लोग शामिल हुए थे. यह दृश्य कंगना रनौत की आगामी फिल्म 'इमरजेंसी' में भी देखने को मिलेगा, जिसकी कहानी आपातकाल के इर्दगिर्द बुनी गई है.
इंदिरा के चेहरे पर गम और आंखों में आंसू
पंडित जवाहरलाल नेहरू की अंतिम यात्रा में बेटी इंदिरा गांधी, बहन विजय लक्ष्मी पंडित, कांग्रेस पार्टी के समस्त दिग्गज नेता समेत हजारों लोग शामिल हुए थे. लोगों के चेहरे पर गम और आंखों में आंसू थे. पंडित नेहरू की अंतिम यात्रा में इंदिरा गांधी अपनी बुआ विजय लक्ष्मी पंडित के साथ एक ओपन कार में बैठी नजर आई थीं. इस गाड़ी के पीछे-पीछे कई लोग चल रहे थे. इंदिरा गांधी, पंडित नेहरू के देहांत के लगभग डेढ़ साल बाद देश की प्रधानमंत्री बनी थीं. इसके बाद भारत की राजनीति में काफी उथल-पुथल हुई. भारत के इतिहास में इमरजेंसी की घटना को लेकर इंदिरा गांधी की हमेशा आलोचना की जाती रही है. इसी घटना पर अब कंगना रनौत ने फिल्म 'इमरजेंसी' बनाई है.
भतीजी इंदिरा गांधी के खिलाफ हो गई थीं विजय लक्ष्मी पंडित
विजय लक्ष्मी पंडित ने अपनी ही भतीजी इंदिरा गांधी के लगाए आपातकाल का विरोध किया था. इसके बाद वह सुर्खियों में आ गई थीं. इस विरोध में कांग्रेस पार्टी को भी छोड़ दिया था और खुले मंच पर इमरजेंसी का विरोध किया था. पंडित नेहरू का जब देहांत हुआ, तब विजय लक्ष्मी (1962 से 1964 तक) भारत में महाराष्ट्र की राज्यपाल रही थीं.
विजय लक्ष्मी पंडित ने इमरजेंसी के विरोध में क्या कहा था?
'मैं पिछले काफी समय से असहज और व्यथित महसूस कर रही थी. देश में जो हो रहा है, उसे देखकर मुझे अच्छा नहीं लग रहा है. मैं बहुत समय तक चुपचाप सबकुछ देखती रही, लेकिन अब मैं शांत नहीं बैठ सकती. जब इमरजेंसी घोषित की गई, और लोकतंत्र का दम घुटने लगा. संस्थाओं के अधिकार छीन लिये गए, तो देश के विकास में बाधा आने लगी. बातचीत कर अपना पक्ष रखना देश के विकास की नींव रखने का लोकतांत्रिक तरीका है. लेकिन आज सरकार का विरोध करने वाली हर आवाज़ को चुप दबा दिया जा रहा है और ये बेहद शर्मनाक है. लोगों को बोलने की आज़ादी नहीं है, वही आज़ादी जिसके लिए सालों तक संघर्ष किया और कितनों ने अपनी जान दे दी. जो कुछ भी मेरे दिल के करीब है, मैं उसे यूं ही बर्बाद होते नहीं देख सकती. मैं यूं ही चुप नहीं बैठी रह सकती. देशसेवा मेरा पहला फ़र्ज़ है.'
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