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सुप्रीम कोर्ट की रोक के बाद भी अरावली में खनन जारी, सरिस्का टाइगर रिजर्व को सबसे ज्यादा खतरा

 अवैध खनन से न सिर्फ नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में है, बल्कि पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित एक नई परिभाषा ने पर्यावरण विशेषज्ञों को और भी चिंता में डाल दिया है. 

सुप्रीम कोर्ट की रोक के बाद भी अरावली में खनन जारी, सरिस्का टाइगर रिजर्व को सबसे ज्यादा खतरा
अलवर जिले का सरिस्का बाघ अभयारण्य सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में से एक है.
  • अरावली पर्वतमाला दिल्ली से गुजरात तक फैली है, जिसमें राजस्थान के 15 जिलों का दो-तिहाई हिस्सा शामिल है.
  • सुप्रीम कोर्ट ने 2023 में अरावली के एक किलोमीटर दायरे में खनन पर रोक लगाई थी, लेकिन अवैध खनन जारी है.
  • सरिस्का अभयारण्य सहित अरावली के कई धार्मिक और ऐतिहासिक स्थल खनन से गंभीर नुकसान झेल रहे हैं.
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नई दिल्ली:

अरावली पर्वतमाला दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वत प्रणालियों में से एक है, जो कि उत्तर में दिल्ली से दक्षिण में गुजरात तक फैली हुई है. जिसका लगभग दो-तिहाई हिस्सा राजस्थान के 15 जिलों से होकर गुजरता है. उत्तर भारत के पर्यावरण की सुरक्षा में इसकी भूमिका बहुत ही अहम है. लेकिन लगातार हो रहे खनन और अतिक्रमण से यह प्राचीन पर्वतमाला विनाश की ओर जा रही है. मौसम के साथ ही यहां रहने वाले जीव-जंतु भी प्रभावित हो रहे हैं.

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अरावली की पहाड़ियों में नहीं रुका खनन

एनडीटीवी नेअरावली पहाड़ियों में खनन के हो रहे नुकसान की पड़ताल की. उसे बहुत ही चिंताजनक प्रमाण मिले. सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्रों में अलवर जिले का सरिस्का अभयारण्य शामिल है. यह जगह सिर्फ पर्यावरण ही नहीं बल्कि धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व भी रखती है. धार्मिक मान्यता के मुताबिक, यह जगह सप्तऋषियों की साधना स्थली रही है. दिलचस्प बात यह है कि उपग्रह से देखने पर अरावली पहाड़ियां "ऊं" जैसी दिखाई देती है. भर्तृहरि की तपस्थली और पांडवों के वनवास से जुड़े पवित्र स्थल बेलगाम खनन की वजह से गंभीर रूप से नुकसान झेल रहा है.

सुप्रीम कोर्ट ने खनन पर लगाई थी रोक

सुप्रीम कोर्ट ने 2023 में अरावली के 1 किमी. दायरे में खनन पर रोक लगा दी थी. सरकार ने 2024 में बताया था कि इस दायरे में 110 खदानें थीं, जिनमें से 68 एक्टिव सक्रिय थीं. सरकार ने दावा किया था कि यहां खनन बंद हो चुका है. लेकिन NDTV की टीम जब सरिस्का टहला और अलवर के आसपास पहुंची तो हकीकत देख हैरान रह गई.  टीम को  गुप्त रूप से चल रहे खनन के कई सबूत मिले. पुरानी खदानों के पास भारी मशीनें रखी हुई थीं. 

NDTV ने खोल दी अवैध खनन की पोल

 स्थानीय लोगों ने बताया कि रात में चोरी-छिपे अभी भी यहां अवैध खनन होता है. NDTV की टीम जैसे ही खनन स्थल के पास पहुंची कुछ अज्ञात लोग चिल्लाकर उनको रोकने लगे और कुछ दूर तक उनका पीछा भी किया. अरावली पहाड़ियां वहां साफ दिखाई दे रही थीं.

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नए नियमों से क्यों बढ़ी चिंता?

पर्यावरण मंत्रालय के एक नए प्रस्ताव से पर्यावरण प्रेमी परेशान हैं.  सुप्रीम कोर्ट में ड्राफ्ट के मुताबिक, अब सिर्फ 100 मीटर से ऊंची पहाड़ियां ही अरावली पहाड़ियां कही जाएगी. यह 2010 के फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के उन नियमों को बदल रहा है, जहां 3 डिग्री ढलान 115 मीटर ऊंचाई और 100 मीटर बफर जोन को शामिल किया गया था. अक्टूबर 2024 में FSI के नए सुझाव में 30 मीटर ऊंचाई और 4.57 डिग्री ढलान को मानक बनाकर संरक्षण की बात की गई.

 विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण अरावली के कई हिस्से अब संरक्षित नहीं रह जाएंगे और इससे दिल्ली समेत कई क्षेत्रों को कठोर मौसम और सूखे की स्थिति का सामना करना पड़ सकता है.

क्या कहती है फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट?

फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की आंतरिक रिपोर्ट के मुताबिक, राजस्थान के 15 जिलों में अरावली की 12081 पहाड़ियां 20 मीटर से ऊंची हैं. इनमें से सिर्फ 1048 यानी 8.7 % ही 100 मीटर से ऊंची हैं. मतलब यह कि नए नियम से 90 प्रतिशत पहाड़ियां संरक्षित क्षेत्र से बाहर हो जाएंगी. आंकड़ों के मुताबिक, 1594 पहाड़ियां 80 मीटर ऊंची 2656 60 मीटर और 5009 40 मीटर ऊंची हैं. जबकि करीब 107494 पहाड़ियां 20 मीटर तक की ऊंचाई वाली हैं.

 अवैध खनन से न सिर्फ नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में है, बल्कि पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित एक नई परिभाषा ने पर्यावरण विशेषज्ञों को और भी चिंता में डाल दिया है. 

सतत संपदा क्लाइमेट फाउंडेशन संस्थापक निदेशक हरजीत सिंह ने कहा कि सिर्फ 100 मीटर से अधिक ऊंची पहाड़ियों को 'अरावली' कहना उस भूदृश्य को मिटा देता है, जो उत्तर भारत को श्वास प्रदान करता है और हमारी बावड़ियों- कुओं को जल से भरता है. कागजों पर तो यह 'टिकाऊ खनन' और 'विकास' है, लेकिन लेकिन ज़मीनी हकीकत में यह धमाकों (डायनामाइट) से सड़कों और गड्ढों के ज़रिये तेंदुए के गलियारों, गांव की साझा ज़मीनों और दिल्ली-एनसीआर की आख़िरी हरित ढाल को चीरता हुआ नजर आता है.

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