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272 करोड़ का सच उजागर : भोपाल गैस पीड़ितों के नाम पर बने अस्पताल वीरान, योग केंद्र बना शादी घर

भोपाल के गैस पीड़ितों के लिए 272 करोड़ का पुनर्वास प्लान उन इमारतों की तरह है जो दिखती तो नई हैं, लेकिन अंदर से खोखली हैं. अस्पताल हैं, पर डॉक्टर नहीं, उपकरण हैं पर तकनीशियन नहीं, योग केंद्र हैं, पर योग नहीं, सीवर योजना है, लेकिन नालियां नहीं. गैस पीड़ितों की जिंदगी आज भी उसी दर्द और लाचारी में घिरी है, जिसे मिटाने के लिए यह योजना बनाई गई थी.

272 करोड़ का सच उजागर : भोपाल गैस पीड़ितों के नाम पर बने अस्पताल वीरान, योग केंद्र बना शादी घर
  • भोपाल गैस त्रासदी के 40 वर्षों बाद भी पुनर्वास योजना के करोड़ों रुपये सरकारी तिजोरी में पड़े हैं
  • अस्पतालों में आधुनिक उपकरण तो खरीदे गए, लेकिन विशेषज्ञ डॉक्टरों की भारी कमी से इलाज प्रभावित हुआ
  • करोड़ों के मॉड्यूलर ऑपरेशन थिएटरों में सर्जरी न हो पाने का कारण विशेषज्ञों का अभाव है
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भोपाल:

कहते हैं शहर ज़ख्म भूल जाता है, लेकिन ज़ख्म देने वाले कभी नहीं बदलते. भोपाल के गैस पीड़ितों की कहानी भी ऐसी ही है जहां मौत ने 1984 में दस्तक दी थी, वहां आज भी चिंता, बीमारी और सरकारी बेरुख़ी का धुआं उठता है. सरकार ने 2010 में घोषणा की थी 'गैस पीड़ितों के लिए 272.75 करोड़ का नया पुनर्वास प्लान.' आस थी कि अब अस्पताल सुधरेंगे, डॉक्टर्स आएंगे, विधवा कॉलोनियों में पानी और सीवर ठीक होगा, महिलाएं योग से राहत पाएंगी, नौजवानों को काम मिलेगा. आज, 14 साल बाद, दस्तावेज़ बताते हैं इन सपनों का 139 करोड़ अब भी सरकार की तिजोरी में पड़ा है और जो खर्च हुआ उससे सुकून नहीं, शर्म पैदा होती है.

भोपाल गैस त्रासदी को चालीस साल हो चुके हैं, लेकिन सरकारी फाइलों में दर्ज आश्वासन और जमीनी हकीकत के बीच की दूरी आज भी उतनी ही गहरी है. अस्पताल बने, उपकरण आए... लेकिन डॉक्टर नहीं आए. मेडिकल पुनर्वास के तहत 33.55 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे. फाइलों में लिखा है कि अस्पतालों के लिए एमआरआई, सीटी स्कैन, सोनोग्राफी, टीएमटी मशीनें और अन्य जरूरी उपकरण खरीदे गए. लेकिन दस्तावेज बताते हैं कि गैस राहत अस्पतालों में 90 फीसदी विशेषज्ञ डॉक्टरों की पोस्ट खाली हैं और 40 से 50 फीसदी मेडिकल ऑफिसर ही उपलब्ध हैं. नतीजा यह है कि महंगे उपकरण धूल खा रहे हैं और मरीजों को इलाज के लिए दूसरे अस्पतालों के चक्कर काटने पड़ते हैं.

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मॉड्यूलर OT: करोड़ों की इमारतें... जहां एक भी बड़ी सर्जरी नहीं हुई

करीब तीन अस्पतालों में करोड़ों रुपये खर्च कर मॉड्यूलर ऑपरेशन थिएटर बनाए गए, लेकिन इनमें एक भी बड़ी सर्जरी नहीं हुई. वजह है कि अस्पतालों में न एनेस्थीसिया विशेषज्ञ हैं और न ही सर्जन. इंदिरा गांधी गैस राहत अस्पताल के अधिकारी ने अपनी चिट्ठी में साफ लिखा है कि ऑपरेशन थिएटर आज तक चालू नहीं हुआ. यह स्थिति तब है, जब अस्पतालों के निर्माण और मरम्मत के लिए लगातार फंड जारी किए गए.

ऑक्सीजन पाइपलाइन ICU के बिना! लिफ्ट बदली, लेकिन मरीज आज भी सीढ़ियां चढ़ते

सेंट्रल ऑक्सीजन लाइन भी कई अस्पतालों में लगाई गई. शाकिर अली खान अस्पताल, जेएन अस्पताल और पल्मोनरी मेडिसिन सेंटर जैसे संस्थानों में पाइपलाइन तो लग गई, लेकिन वहां आईसीयू ही नहीं है. यानी मरीजों के इलाज पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता. कमला नेहरू और इंदिरा गांधी अस्पताल में लिफ्ट बदलने पर एक करोड़ से अधिक खर्च किए गए, लेकिन आज भी कई लिफ्टें बंद पड़ी हैं और मरीजों को सीढ़ियां चढ़ते उतरते देखा जा सकता है.

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योग केंद्र: 3.63 करोड़ का सपना, आज शादी घर और गोदाम

सामाजिक पुनर्वास में भी हालात बेहतर नहीं हैं. सात योग केंद्र 3.63 करोड़ रुपये में बनाए गए थे, ताकि गैस पीड़ितों को फेफड़ों, हार्मोनल समस्या और जोड़ों के दर्द में राहत मिल सके. लेकिन इनमें एक भी योग प्रशिक्षक नियुक्त नहीं हुआ और आज इनमें से कई केंद्र शादी घर या गोदाम के रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं. यही नहीं, विधवा कॉलोनी करोंद में सीवेज सिस्टम के लिए वर्ष 2014 में पांच करोड़ की मंजूरी दी गई थी, लेकिन आज तक नालियां काम नहीं करतीं और बरसात में सीवर का पानी घरों में भर जाता है.

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आर्थिक पुनर्वास: 18.13 करोड़ ... 94% भुगतान फ़र्ज़ी

आर्थिक पुनर्वास की तस्वीर और चिंताजनक है. 2011 से 2013 के बीच 22 एजेंसियों को 18.13 करोड़ रुपये उस प्रशिक्षण कार्यक्रम के लिए दिए गए जिसमें दावा किया गया कि 12 हजार से अधिक गैस पीड़ितों को रोजगार कौशल सिखाया गया. आरटीआई से मिले दस्तावेज बताते हैं कि लगभग 25 प्रतिशत नाम फर्जी थे, आधे से ज्यादा जॉब ऑफर लेटर नकली थे और सिर्फ छह प्रतिशत लोगों को वाकई में कोई लाभ मिला. करीब 94 फीसदी भुगतान धोखाधड़ी में चला गया. फिर भी किसी अधिकारी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई.

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सीवर ट्रीटमेंट प्लांट कभी बनाया ही नहीं गया

पर्यावरण पुनर्वास में सरकार ने दावा किया कि 50 करोड़ रुपये खर्च कर गैस प्रभावित इलाकों में साफ पानी उपलब्ध कराया गया है, लेकिन सर्वे बताते हैं कि 80 प्रतिशत इलाकों में आज भी सीवर मिला हुआ पानी आ रहा है, क्योंकि सीवर ट्रीटमेंट प्लांट कभी बनाया ही नहीं गया. सरकारी वार्षिक रिपोर्टों में सब कुछ सफल बताया गया है. लिखा है कि ओटी तैयार हैं, उपकरण चालू हैं, पाइपलाइन लग चुकी है और प्रभावित समुदायों को सुरक्षित पानी मिल रहा है. लेकिन दूसरी तरफ अस्पतालों के पत्र, मैदान स्तर की रिपोर्ट, आरटीआई दस्तावेज और प्रभावितों की आवाजें बताती हैं कि असल काम या तो अधूरा है या हुआ ही नहीं.

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गैस पीड़ितों के चार बड़े संगठनों जिसमें रशिदा बी, नसरीन बी, बलकृष्ण नामदेव और रचना डिंगरा शामिल हैं, उन्होंने मुख्यमंत्री से तत्काल उच्चस्तरीय जांच और राज्य सलाहकार समिति की बैठक बुलाने की मांग की है. संगठनों का कहना है कि विभाग ने वर्षों तक ठेकेदारों और अधिकारियों को फायदा पहुंचाया, जबकि पीड़ितों को उनके हक की सुविधाएं नहीं मिलीं. उनका कहना है कि यह विभाग राहत नहीं दे रहा, बल्कि पीड़ितों की बदकिस्मती का फायदा उठाकर खुद को समृद्ध कर रहा है.

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सच यही है कि 272 करोड़ का यह पुनर्वास प्लान उन इमारतों की तरह है जो दिखती तो नई हैं, लेकिन अंदर से खोखली हैं. अस्पताल हैं, पर डॉक्टर नहीं, उपकरण हैं पर तकनीशियन नहीं, योग केंद्र हैं, पर योग नहीं, सीवर योजना है, लेकिन नालियां नहीं. गैस पीड़ितों की जिंदगी आज भी उसी दर्द और लाचारी में घिरी है, जिसे मिटाने के लिए यह योजना बनाई गई थी. 272.75 करोड़ में से 139 करोड़ अब भी बिना खर्च के. जो खर्च हुआ वह टूटी लिफ्टों, बंद OTs, खाली योग केंद्रों और फ़र्ज़ी ट्रेनिंग पर हुआ. गैस पीड़ित जो दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी के बाद चार दशक से दर्द ढो रहे हैं, आज भी उस सिस्टम के भरोसे हैं, जो उन पर खर्च हुए पैसे से इमारतें तो खड़ी कर लेता है, पर ज़िंदगी नहीं बदलता.

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