नई दिल्ली:
जेनेवा में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) में यदि कोलंबो के खिलाफ मतदान की नौबत आई तो भारत श्रीलंका की आशा के विपरीत अमेरिका समर्थित प्रस्ताव का समर्थन कर सकता है।
भारत का यह फैसला तमिल लड़ाकों के खिलाफ संघर्ष में श्रीलंकाई सेना द्वारा तमिल नागरिकों की हत्या को लेकर तमिलनाडु में उपजे गुस्से से प्रेरित नहीं होगा। नई दिल्ली इस बात से सहमत है कि द्वीप के उत्तर पूर्वी हिस्से में विस्थापितों के पुनर्वास का काम कुछ हद तक हुआ है, लेकिन श्रीलंका राष्ट्रीय सामंजस्य के मामले में गंभीर नहीं दिख रहा है।
जेनेवा में होने जा रही बैठक हर हाल में पिछले वर्ष से भिन्न है। पिछले वर्ष भी अमेरिका ने मानवाधिकार और अन्य मामलों को लेकर श्रीलंका के खिलाफ प्रस्ताव पेश किया था। कोलंबो के लाख प्रयासों के बाद भी अमेरिकी प्रस्ताव पारित हो गया था।
47 सदस्यीय यूएनएचआरसी की सदस्यता बारी-बारी से देशों को मिलती है। रूस, क्यूबा और चीन पिछले वर्ष कोलंबो के समर्थक थे, जो इस समय परिषद में नहीं हैं।
पिछले वर्ष श्रीलंका द्वारा वॉशिंगटन के साथ बातचीत करने से इनकार करने के बाद भारत ने अमेरिकी राजनयिकों से बातचीत कर प्रस्ताव को थोड़ा नरम करवाया। भारत ने प्रस्ताव से हस्तक्षेप करने वाले संदर्भों को हटवा दिया।
अन्य विकासशील देशों की ही तरह भारत भी पश्चिम के उन कदमों के प्रति संवेदनशील रहता है, जिन्हें देश के सम्प्रभु मामलों में हस्तक्षेप के जैसा माना जाता है। इस बार पाकिस्तान और कुछ वैसी ही सोच रखने वाले देश श्रीलंका की तरफ से अमेरिकी राजनयिकों से बातचीत कर रहे हैं।
तमिलनाडु के विभिन्न राजनीतिक धड़ों की तरफ से जोरदार मांग के बावजूद कांग्रेस नीत केंद्र सरकार ने इस वर्ष मतदान के दौरान अपनाए जाने वाले अपने रुख का खुलासा नहीं किया है। इसका एक कारण यह भी है कि अमेरिकी प्रस्ताव संशोधित होना है और भारत उसके अंतिम रूप पर नजर गड़ाए हुए है।
दूसरी एक संभावना यह भी है कि प्रस्ताव मतैक्य से स्वीकार किया जाए। ऐसी स्थिति में इस मोड़ पर अपने पत्ते जाहिर करना भारत के लिए कहीं से भी लाभप्रद नहीं रहेगा।
कोलंबो को लग रहा है कि 2012 के मुकाबले जेनेवा में इस बार बाजी जोरदार बिछी हुई है।
नई दिल्ली की सोच पर जिन बातों का गहरा असर है उनमें लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (लिट्टे) को समूल नष्ट किए जाने के बाद श्रीलंकाई नेतृत्व द्वारा बुरी तरह से किया जा रहा गड़बड़झाला है। भारत महसूस करता है कि राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे यह भलीभांति जानते हैं कि संघर्ष के अंतिम चरण में कई तमिल नागरिक मारे गए थे। ऐसी मौतों के लिए सार्वजनिक पश्चाताप और पर्याप्त मुआवजे की घोषणा की जा सकती है।
इस कदम से तमिलों के मन में सुलग रही आंग मंद पड़ सकती है, क्योंकि कोलंबो और लिट्टे के बीच चले संघर्ष के दौरान कई लोगों को उनकी इच्छा के विरुद्ध घसीटा गया।
इसके बजाय श्रीलंका एक विचित्र रुख अख्तियार किए बैठा है। वह बार-बार दोहरा रहा है कि लिट्टे के खिलाफ सैन्य कार्रवाई के दौरान कोई भी नागरिक नहीं मारा गया और नागरिकों की मौत की जिम्मेदारी वह लिट्टे पर थोप रहा है। राष्ट्रीय सुलह के मुद्दे पर भी कोलंबो अपने पांव पीछे खींच रहा है और संसद में सबसे बड़े तमिल समूह, तमिल नेशनल अलायंस के साथ बातचीत से इंकार कर चुका है।
श्रीलंका के इस कदम से राष्ट्रीय सहमति खटाई में पड़ गई है, जबकि ऐसे उपाय से दस हजार से ज्यादा जिंदगी लीलने वाले चौथाई सदी तक चले संघर्ष के घावों को भरने में मदद मिल सकती है।
भारत का यह फैसला तमिल लड़ाकों के खिलाफ संघर्ष में श्रीलंकाई सेना द्वारा तमिल नागरिकों की हत्या को लेकर तमिलनाडु में उपजे गुस्से से प्रेरित नहीं होगा। नई दिल्ली इस बात से सहमत है कि द्वीप के उत्तर पूर्वी हिस्से में विस्थापितों के पुनर्वास का काम कुछ हद तक हुआ है, लेकिन श्रीलंका राष्ट्रीय सामंजस्य के मामले में गंभीर नहीं दिख रहा है।
जेनेवा में होने जा रही बैठक हर हाल में पिछले वर्ष से भिन्न है। पिछले वर्ष भी अमेरिका ने मानवाधिकार और अन्य मामलों को लेकर श्रीलंका के खिलाफ प्रस्ताव पेश किया था। कोलंबो के लाख प्रयासों के बाद भी अमेरिकी प्रस्ताव पारित हो गया था।
47 सदस्यीय यूएनएचआरसी की सदस्यता बारी-बारी से देशों को मिलती है। रूस, क्यूबा और चीन पिछले वर्ष कोलंबो के समर्थक थे, जो इस समय परिषद में नहीं हैं।
पिछले वर्ष श्रीलंका द्वारा वॉशिंगटन के साथ बातचीत करने से इनकार करने के बाद भारत ने अमेरिकी राजनयिकों से बातचीत कर प्रस्ताव को थोड़ा नरम करवाया। भारत ने प्रस्ताव से हस्तक्षेप करने वाले संदर्भों को हटवा दिया।
अन्य विकासशील देशों की ही तरह भारत भी पश्चिम के उन कदमों के प्रति संवेदनशील रहता है, जिन्हें देश के सम्प्रभु मामलों में हस्तक्षेप के जैसा माना जाता है। इस बार पाकिस्तान और कुछ वैसी ही सोच रखने वाले देश श्रीलंका की तरफ से अमेरिकी राजनयिकों से बातचीत कर रहे हैं।
तमिलनाडु के विभिन्न राजनीतिक धड़ों की तरफ से जोरदार मांग के बावजूद कांग्रेस नीत केंद्र सरकार ने इस वर्ष मतदान के दौरान अपनाए जाने वाले अपने रुख का खुलासा नहीं किया है। इसका एक कारण यह भी है कि अमेरिकी प्रस्ताव संशोधित होना है और भारत उसके अंतिम रूप पर नजर गड़ाए हुए है।
दूसरी एक संभावना यह भी है कि प्रस्ताव मतैक्य से स्वीकार किया जाए। ऐसी स्थिति में इस मोड़ पर अपने पत्ते जाहिर करना भारत के लिए कहीं से भी लाभप्रद नहीं रहेगा।
कोलंबो को लग रहा है कि 2012 के मुकाबले जेनेवा में इस बार बाजी जोरदार बिछी हुई है।
नई दिल्ली की सोच पर जिन बातों का गहरा असर है उनमें लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (लिट्टे) को समूल नष्ट किए जाने के बाद श्रीलंकाई नेतृत्व द्वारा बुरी तरह से किया जा रहा गड़बड़झाला है। भारत महसूस करता है कि राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे यह भलीभांति जानते हैं कि संघर्ष के अंतिम चरण में कई तमिल नागरिक मारे गए थे। ऐसी मौतों के लिए सार्वजनिक पश्चाताप और पर्याप्त मुआवजे की घोषणा की जा सकती है।
इस कदम से तमिलों के मन में सुलग रही आंग मंद पड़ सकती है, क्योंकि कोलंबो और लिट्टे के बीच चले संघर्ष के दौरान कई लोगों को उनकी इच्छा के विरुद्ध घसीटा गया।
इसके बजाय श्रीलंका एक विचित्र रुख अख्तियार किए बैठा है। वह बार-बार दोहरा रहा है कि लिट्टे के खिलाफ सैन्य कार्रवाई के दौरान कोई भी नागरिक नहीं मारा गया और नागरिकों की मौत की जिम्मेदारी वह लिट्टे पर थोप रहा है। राष्ट्रीय सुलह के मुद्दे पर भी कोलंबो अपने पांव पीछे खींच रहा है और संसद में सबसे बड़े तमिल समूह, तमिल नेशनल अलायंस के साथ बातचीत से इंकार कर चुका है।
श्रीलंका के इस कदम से राष्ट्रीय सहमति खटाई में पड़ गई है, जबकि ऐसे उपाय से दस हजार से ज्यादा जिंदगी लीलने वाले चौथाई सदी तक चले संघर्ष के घावों को भरने में मदद मिल सकती है।
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