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भारत का एक उल्लू जो 100 साल तक गुमनामी में जीता रहा, अपने पार्टनर को ऐसे करता है प्रपोज

आकृति ताम्रकार
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 04, 2025 15:09 pm IST
    • Published On अगस्त 04, 2025 14:57 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 04, 2025 15:09 pm IST
भारत का एक उल्लू जो 100 साल तक गुमनामी में जीता रहा, अपने पार्टनर को ऐसे करता है प्रपोज

जब कोई परिंदा कई सालों से उड़ता दिखाई नहीं देता, तो हम मान लेते हैं कि वह गुम हो गया है. लेकिन कुछ परिंदे ऐसे होते हैं, जो वक़्त की गर्द में भी छिपकर जीते रहते हैं, जैसे वन उल्लू (Athene Blewitti). क्या आप सोच सकते हैं कोई पक्षी , जिसे एक सदी तक विलुप्त करार दिया गया था, वो वापस आकर जंगलों में दस्तक दे रहा है, जिसे 1884 के बाद कभी नहीं देखा गया, वह 1997 में आकर शोधकर्ताओं को चकित कर दे रहा है- जी हाँ! वह है वन उल्लू, जंगल का एक ऐसा योद्धा, जिसने मौत के मुंह से वापस आकर भारत के जंगलों को फिर से गुलज़ार कर दिया है. ऐसे में जिज्ञासा इस बात की है कि यह पक्षी 113 साल तक कहां गायब रहा. ऐसे कई सवाल आपके मन में आ रहे होंगे, जो स्वाभाविक भी हैं. बात कुछ ऐसी है कि इस उल्लू की पहली बार पहचान 1873 में एओ ह्यूम (जिन्होंने कांग्रेस की स्थापना की थी) ने की थी. दरअसल उनके सहयोगी ब्ल्यूविट ने छत्तीसगढ़ के बसना क्षेत्र में एक मादा उल्लू का शिकार किया था. करीब 11 साल बाद, वन उल्लू की विलुप्ति की घोषणा के बाद भी कुछ नमूनों के आधार पर इस पक्षी के अंतिम ज्ञात नमूनों पर शोध चल रहा था. कई प्रयासों के बाद भी यह विफल रहा. जब विफलता की टोह ली गई तो पता चला कि वह अंतिम ज्ञात नमूना गलत इलाके की जानकारी वाले लेबल के साथ फिर से पेश किया गया था. इसे ब्रिटिश-संग्रहालय से चुराया गया था. प्रसिद्ध पक्षी-वैज्ञानिक पामेला रासमुसेन के अथक प्रयास से 1997 में इसे सतपुड़ा की तलहटी में फिर से खोज निकाला गया. इस तरह मध्य-भारत के घने पर्णपाती वनों में फिर से जान आ गई.

कैसा दिखता है वन उल्लू

वन उल्लू करीब 23 सेंटीमीटर लंबा, ताक़तवर,सफेद पेट,पीली आँखें और भारी धारियों वाले पंख वाला होता है. इसकी उड़ान में पंखों पर गहरे धब्बे किसी कलाकार की ब्रश से बनी आकृतियों जैसे दिखते हैं. इसकी आदतें भी अद्वितीय हैं, दिन के उजाले में दिखने वाला यह उल्लू दुर्लभ है, क्योंकि अधिकांश उल्लू रात्रिचर होते हैं. सुबह की सुनहरी किरणों में पेड़ों की ऊंचाई पर बैठकर यह शिकार की ताक में रहता है. शिकार और व्यवहार में चपल वन उल्लू 'धीमी चाल, गहरी मार' वाला शिकारी है. छिपकलियां, स्किंक (सांप की मौसी), चूहे और कभी-कभी पक्षी भी इसका शिकार बनते हैं. यह चुपचाप बैठकर शिकार पर झपटता है- मानो कोई बाण कमान से छूटा हो! 

वन उल्लू का प्रजनन काल अक्टूबर से मई के बीच रहता है. इनका जीवनकाल प्रकृति की बारीकी और सौंदर्य से भरा होता है. प्रेम की शुरुआत में मादा को लुभाने के लिए, नर उल्लू उसे उपहार के तौर पर शिकार देता है. अगर मादा यह भेंट स्वीकार कर लेती है तो रिश्ता पक्का हो जाता है. वे एक बार ही जोड़ा बनाते हैं, वह भी अटूट. इसके बाद वो एक ऐसे पेड़ की तलाश करते हैं, जिसकी खोखल में वे सुरक्षित आशियाना (घोंसला) बना सकें. आमतौर पर ये खोखले पेड़ पुराने और ऊंचे होते हैं, जो दुर्भाग्य से अब कम हो रहे हैं. मादा दो अंडे देती है. वह लगातार अंडों को सेती (हैचिंग) है. इस दौरान नर उल्लू उसका पूरा ख्याल रखता है.

वन उल्लू को 1997 में सतपुड़ा की तलहटी में फिर से खोजा गया.

वन उल्लू को 1997 में सतपुड़ा की तलहटी में फिर से खोजा गया.
Photo Credit: Saswat Mishra

क्या सच में उल्लू अक्लमंद नहीं होता है

भले ही उल्लू दुनिया का सबसे अक्‍लमंद पक्षी न हो, लेकिन उसे सबसे बेवकूफ मानना भी समझदारी नहीं है. हिंदू धर्म की पौराणिक कथाओं में इसे देवी लक्ष्‍मी का वाहन माना जाता है. वहीं पश्चिमी देशों में इसे समझदारी का प्रतीक भी माना जाता है. वैसे वन उल्लू अपनी निष्ठा के लिए भी जाना जाता है, यह एक ही जीवनसाथी के साथ जीवन पर्यंत रहता है, जो हमें अगाध प्रेम, समर्पण और साझेदारी का पाठ सिखाते हैं.

वन उल्लू की 'की-याह...की-याह' और 'चिरुर...चिरुर...' जैसी आवाज़ें जंगल की नीरवता में गूंजती हैं. ये आवाजें कभी प्रेम का संकेत होती हैं तो कभी शिकार की जानकारी देने वालीं.

वन उल्लू के अस्तित्व पर मंडराते खतरे वन-कटाई, जलवायु-परिवर्तन, दावानल, अतिक्रमण और मानव उपेक्षा हमें संरक्षण करने की ओर इशारा करते हैं. यह केवल एक प्रजाति नहीं, बल्कि हमारी जैव-विविधता, संस्कृति और जिम्मेदारी का जीवंत प्रतीक हैं. प्रकृति संरक्षण की दिशा में काम करने वाली संस्था IUCN ने इस दुर्लभ पक्षी को  2018 से  अपनी रेड-लिस्ट में लुप्तप्राय घोषित कर रखा है. ऐसा अनुमान है कि इसके केवल 250-1000 वयस्क ही शेष हैं. बचपन से हमने देखा है कि अक्सर मूर्ख/बेवकूफ व्यक्ति के लिए हिंदी-मुहावरा 'उल्लू का पट्ठा' उपयोग किया जाता है, जिसका शब्दार्थ 'उल्लू-का-बेटा' होता है. अगर आज हमने 'उल्लू का पट्ठा' कहकर इसे नज़रअंदाज़ किया, तो कल हमारी पीढ़ियां किताबों में ही इसकी तस्वीर ढूंढेंगी और तब शायद कोई बच्चा पूछेगा, "माँ, क्या उल्लू सच में कभी जंगल में रहते थे?"

उल्लू संरक्षण मध्य-भारत के जंगलों की पारिस्थितिकी संतुलन को बनाए रखने में सहायक है, प्राकृतिक-पर्यावास को संरक्षित करना और संरक्षण कार्यक्रमों में सहभागिता, दुर्लभ जीवों को बचाने की नई उम्मीद बन सकता है.

अस्वीकरण:  लेखिका वानिकी शोधार्थी हैं और पर्यावरण के विषयों पर लिखती हैं. उन्हें 'चांसलर गोल्ड मेडल' मिल चुका है. इस लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है. 

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