हिपोक्रेसी है इस डेमोक्रेसी का हिप्पोपोटोमस- प्रदर्शनीय और दर्शनीय

हिपोक्रेसी है इस डेमोक्रेसी का हिप्पोपोटोमस- प्रदर्शनीय और दर्शनीय

एक लाइन बार बार सुनते थे कि गुरू और अभिभावक जो कहें वो करो, जो करें वो मत करो. मतलब कहो कुछ, करो कुछ, सिखाओ कुछ और. हम एक महान दौर से गुज़र रहे हैं. जब हिप्पोक्रैसी हमारी डेमोक्रेसी का हिप्पोपोटोमस बन गया है, दर्शनीय, प्रदर्शनीय और संग्रहणीय. एक आदर्श, आदरणीय और अनुकरणीय गुण जिसे बड़ी साधना के बाद हमारे दैनंदिनी ने गोद लिया है. हवा में पीएम 2.5, पीएम 10 और सल्फ़र डायऑक्साइड के साथ मिला हुआ है हिप्पोक्रैसी. इस पर सीएसई ने अभी तक कोई रिपोर्ट नहीं दी है क्योंकि इसे नापने वाली भी पाखंडी ही चाहिए जो नापे कुछ और बताए कुछ और.

इतनी बड़ी मशीन बन भी नहीं सकती है क्योंकि पाखंड दरअसल एक वृहत प्रखंड है जिसे तलवार खंडित नहीं कर सकती है, सर्न का कोलाइडर भी विखंडित नहीं कर सकता है. क्योंकि हमारे समाज का पाखंड अजर अमर है, जिसकी नींव बचपन में ही डाली जाती है जब बच्चों को पढ़ाया जाता है सत्यमेव जयते, चोरी करना पाप है, हिंदू-मुस्लिम-सिख-इसाई आपस में सब भाई भाई, 'Honesty is the best policy' जैसे नारे जो हर दूसरे दिन उजागर होते रहते हैं. तो नोटबंदी ने भी कुछ नया नहीं किया है.

इस समाज का आचार-सदाचार ही पचरंगा अचार है, स्वाद बदलने के लिए इस्तेमाल होता है. मेन कोर्स मेन्यू तो भ्रष्टाचार ही है. स्वीकार्य है, स्वादिष्ट है और सामिष-निरामिषों में समान रूप से मान्य है. हमारी संस्कृति ऐसी है कि जहां भ्रष्टाचार मेनस्ट्रीम है और ईमानदारी एक चुटकुला. परिवार के परिवार देख लीजिए जहां पर घूसख़ोरों की भीड़ में से अचानक छोटा बेटा त्रासदी के तौर पर दिखता है, पिता कहता है कि क्या कहें बेटा नालायक निकल गया, ईमानदार निकल गया और ढकोसला यह कि चोरों की इस जमात का नेता ईमानदार खोजा जाता है. पाखंड का महात्म ये कि यही जमात क्विंटल के क्विंटल बहस मार्केट में ठेलता है कि भ्रष्ट नेता नहीं चलेगा.

नोट बंदी पर हिपोक्रेसी का हिप्पो बड़े पैमाने पर बहराया है. लोगों ने एक से एक तरीक़े निकाले और हम सभी उन तिकड़मियों के दिमाग़ की दाद देने में लग गए. कुछ ट्रेन टिकट बुक कराने लगे. हज़ारों-लाखों का टिकट कि पुराना नोट फंसा दिया जाए और कैंसिल करने पर नया नोट आएगा, फ़र्स्ट क्लास एसी का टिकट हज़ारों में. कुछ फ़्लाइट टिकट कटवाने लगे. ये सोचने में तो फिर भी टाइम लगा पर रात आठ बजे पीएम के ऐलान के बाद दिल्ली का करोल बाग़ कैश से ठुसा गया देख रहे थे. रात बारह बजे तक सोने की दुकानें खुली हुई थीं और केवल दिल्ली नहीं, जितने बड़े शहरों में से रिपोर्ट देख पाए ऐसा ही चल रहा था. किलो के किलो सोना ख़रीद लिया लोगों ने और हम लोग चटख़ारें लेकर ये अपडेट अपने व्हाट्सऐप ग्रुप में शेयर कर रहे थे कि वाह क्या तिकड़म निकाली है.

सुबह तक मकान मालिक कैश किराया वापस देने के लिए पहुंच गए किराएदारों के पास. कॉलनी में काम करने वाली बाई और दिहाड़ी मज़दूरों को लोगों ने लपेट लिया कि वो अपने जनधन खाते में पैसा जमा करवा लें, जिसके बाद अब बैंक सबके स्याही लगाने पर उतारू है. छोटे मोटे व्यापारियों - ठेकेदारों ने अचानक मज़दूरों कामगारों को चार चार महीने की अग्रिम सेलरी दे दी. पुराने पांच-सौ हज़ार के नोट में.

सोचिए हमारे समाज का मॉलीक्यूल कैसे कैसे टुच्चे-उच्चक्के दिमाग़ों के परमाणु से बना हुआ है. फिर बात यह भी होती है कि नेताओं को ईमानदार होना चाहिए. एक एमपी की याद आई, जो मुझे बता रहे थे कि अपने अपने लोकसभा क्षेत्र जाने से डर लगता है, ख़ासकर शादियों और त्यौहारों के मौसम में, जो वोटर आता है सब कुछ ना कुछ चाहते हैं. पांच-हज़ार दस हज़ार की आशीर्वादी. अब कहां से लाऊं सबके लिए पैसे. सुनकर एमपी पर शक़ हुआ कि कहीं वो ईमानदार तो नहीं. और ये भरोसा भी हुआ कि नेताओं के पैसे खाते स्टिंग ऑपरेशन पर ताली बजाने वाले ख़ुद कितने बड़े घूसख़ोर हैं ? और फिर हम लोग सोचते हैं कि भ्रष्टाचार चुनावी मुद्दा होगा लेकिन हम पाखंडी इतने हैं कि लोगों को भरोसा भी दिला देते हैं.

व्हाट्सऐप पर अचानक संदेश ठेलाने लगते हैं कि काला पैसा है तो जाकर अस्पताल में गरीबों का बिल भर दीजिए. काम करने वाली, मजदूरों को पांच सौ हज़ार का नोट पगार के तौर पर मत दीजिए. वो कहां बैंक वालों से निपट पाएंगे पर लाइन में दिखा कौन? क्योंकि सबको पता था कि उसी क्लास को लाइन में खड़ा होना था. फंसा दिया उनको लाइनों में और भाषण देते वक़्त क्या सुनाई दिया? कि भ्रष्टाचारी और घोटालेबाज़ लाइन में लगे हुए हैं. लाइन में लगे लोगों की परेशानी पर भाषण समारोह में ठहाके ज़रूर सुनाई दिए.

ठहाके उन लोगों के लिए थे जिनके पुराने नोट को लेने से अस्पताल मना कर रहे थे, दिहाड़ी मजदूर जिनके मालिकों ने चार चार महीने की पगार नक़द में दे दी थी. ऊपर से दलील यह कि दो साल से जनधन अकाउंट खोलने के लिए पीएम कह रहे थे, नहीं सुने तो भुगतिए. सोचिए टैक्सचोरों का मुल्क़ मज़दूरों को नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे हैं और टैक्स चोरी में नाम लाने वाले साधु साधु कर रहे हैं. विडंबना का हद से गुज़र जाना है निर्लज्ज हो जाना.

हां ठहाके ज़रूर गूंज रहे थे, पर किसी ग़रीब का अस्पताल द्वारा बिल पेमेंट कर लेना नहीं सुना. ना किसी मरने वाले देशभक्त के लिए मुआवज़ा सुना, शहीद का दर्जा ही दे देते, जब मंत्री जी ने बोल ही दिया था कि लाइनों में दरअसल देशभक्त खड़े हैं. हां, पर सुनाई सीएम साहब का बयान ज़रूर दिया कि काला धन असल अर्थव्यवस्था को सपोर्ट ही करता है तो फिर इतना बवाल क्यों किया गया. वैसे भी जिनको घूस लेना है वो ले ही रहे हैं. पहले हज़ार के नोट में लेते थे. शादी में जिनको पांच सौ करोड़ ख़र्च करने रहते हैं वो भी करेंगे ही. छाती काहे पीटें. जिस वक़्त पर दो हज़ार रु के नक़द के लिए लोग खड़े खड़े या काउंटर पर बैठ कर जान दे रहे हैं उस वक्‍त में अरबों की शादी करने की हिम्मत कहां से मिलती है. हिम्मत ऐसे आती है कि सबको पता है कि अभी भले ही गरियाएं लेकिन अगर उतना पैसा आ जाए तो इस आर्यावर्त में मजाल है कि कोई उससे कम आडंबर वाली शादी करे. सब के अंदर वही रेड्डी छुपा हुआ है.

जिस सवा सौ करोड़ वाली जागरुक आबादी में से मात्र सवा करोड़ टैक्स देते हो, उसकी सच्चाई किसी से छुपी नहीं रह सकती है. समझ में तो ये नहीं आता कि  जब शादी के चार हफ्ते के बाद व्हाट्सऐप पर पति-पत्नी-शादी की छीछालेदर करते टुच्चे चुटकुले ही शेयर करने हैं तो इतना आडंबर काहे. बचाइए वो पैसा, बोलिए कि ख़ाली कोर्ट मैरिज करेगा सब. बचा पैसा जवानों को दे जिनकी कसम खा-खा कर सोशल मीडिया धांगे रहता है. उन किसानों की मदद कर दे जिनकी व्यथा से फ़ेसबुक गीला हुआ पड़ा है. नहीं कुछ तो बुज़ुर्गों के लिए ही पैसा ही निकल आएगा, कम से कम 95  साल की उम्र में मां को पैसा निकालने बैंक तो नहीं जाना पड़ेगा, कब तक मां-बाप के लिए श्रवणकुमारीय व्हाट्सऐप फॉर्वर्ड भेजते रहेंगे. और ये सब नहीं होता है तो एक काम क्यों नहीं करते,  लाइन में खड़े लोगों को को थोड़ी मोहलत दे दीजिए, ज़ख़्म पर नमक मत छिड़किए. दवाखाना में देश को शर्तिया ईमानदार बनाने की बूटी बना ली गई है, पचास दिन के बाद बात करते हैं.

क्रांति संभव NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर और एंकर हैं...

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