फिल्म 'अलीगढ़' का एक दृश्य...
हम सब 'बाई' में है। बचपन में सुना था ये शब्द। मतलब अंधाधुंध रफ़्तार से भागे जा रहे हैं। तब ज़िंदगी रफ़्तार को अलग से देख लेती थी, अब रफ़्तार ही ज़िंदगी है। ऐसे में कोई फ़िल्म हमारे ज़हन में ठहर जाए तो आदमी के पास भागने के लिए कोई दूसरा शहर नहीं बचता। अलीगढ़ ने रफ़्तार का साथ दिया, मगर अब वो ठहरने लगा है। शहर और विश्वविद्यालय दोनों। मुझे उम्मीद थी कि जहां-जहां अलीगढ़ के पढ़े छात्रों का समूह है, वहां ये फ़िल्म दिखायी जाएगी और देखी जाएगी। अलीगढ़ एक स्टेशन का नाम भर नहीं है कि वो खड़ा रह जाए और बदलते ज़माने की रफ़्तार वाली गाड़ियां वहां से गुज़र जाए।
अलीगढ़ धारणाओं के बोझ से दबा एक शहर और तालीम का इदारा है। इसके गलियारे में चलता हुआ कोई प्रोफेसर विरासत के साये में ही चलता होगा, मगर क्या उसके क़दम मुस्तक़बिल की तरफ़ बढ़ते होंगे या वो माज़ी की तरफ़ मुड़ जाते होंगे। प्रोफेसर सिरस की कहानी को अगर तब के छात्र नहीं समझ पाये तो क्या अब समझ सकते हैं। इसके लिए जरूरी है कि होस्टलों से जत्था निकले और अलीगढ़ देखने जाए। विश्वविद्यालयों के भीतर विविधता को लेकर ईमानदार बहस हो तभी हम अभिव्यक्ति की विविधताओं पर हो रहे बाहरी हमले का सामना कर पायेंगे।
भीड़ हमेशा बाहर से नहीं आती है। भीड़ हमेशा बाहर की भीड़ के मुक़ाबले में नहीं बनती है। भीड़ 'अपनों' से भी बनती है और कोई भीतर का भी अपनों के ख़िलाफ़ हम सबको भीड़ में बदल देता है। हम सबको देखना होगा कि हम बाहर की भीड़ के ख़िलाफ़ हैं या भीड़ बनने की प्रवृति के ख़िलाफ़ भी। इस समय में जब हम सब तरह-तरह की भीड़ से घिरे हैं, अलीगढ़ फ़िल्म उससे निकलने का रास्ता बताती है। प्रोफेसर सिरस के घर में पहले छोटी भीड़ घुसती है। बाद में बड़ी भीड़ आती है और फिर वो सवाल खड़े देती है, जिसका कोई तुक नहीं होता।
अलीगढ़ एक ऐसी फ़िल्म है जिसे देखते समय फ़िल्म देखने के अनुभव को भी चुनौती मिलती है। इस फ़िल्म की सबसे बड़ी ख़ूबी है कि फ़िल्म की तरह होने का दावा नहीं करती। अलीगढ़ की कहानी जेएनयू की घटना से कितनी मिलती है। फ़िल्म कई स्तरों पर चलती है। प्रोफेसर सिरस शब्दों के बीच बची हुई किसी अज्ञात जगह में रहना चाहते हैं। शब्द से इतने घिर जाते हैं कि नए अनजान शब्दों के मुल्क अमरीका जाना चाहते हैं। उनके लिए हर अहसास शब्द नहीं है जैसे कि हर अच्छा काम ज़रूरी नहीं कि अद्भुत, अद्वितीय और शानदार ही हो। पर इस दुनिया में हम सब शब्दों के शिकंजे में बंधे हुए हैं। इससे मुक्ति का रास्ता किसी को मालूम नहीं।
उस किरदार को मनोज वाजपेयी ने शब्दों के बिना जीने का प्रयास किया है। कम बोलते हुए भी वे ज़्यादा बोलते हैं। हर वक्त एक निर्मम उदासी को लादे चले आ रहे हैं, मगर किरदार भीतर से कितना भरा-पूरा है। जो बाहर से भरा-पूरा है वो अंदर से कितना ख़ाली है, जो बाहर से ख़ाली है वो अंदर से कितना भरा है। एक ऐसे समय में जब पत्रकारों के बारे में क्या-क्या कहा जा रहा है, अलीगढ़ फ़िल्म का पत्रकार बुनियादी सवालों के जवाब खोजने जाता है। अच्छा ही लगा। मीडिया समाज की रचनाएं कमज़ोर शख्स के लिए बेहद क्रूर होती है। अदालत से जीत कर भी प्रोफेसर हार जाते हैं या उन्हें उसी साज़िश के तहत हरा दिया जाता है, जिसके कारण वे पहली बार अपराधी करार दिये जाते हैं।
अच्छा लगा कि नौजवानों के साथ देख रहा था। यक़ीन हुआ कि कुछ लोग हैं जो दुनिया को समझना चाहते हैं। ज़िंदगी को खोजना चाहते हैं। अलीगढ़ देख आया हूं। शब्दों की तरह पसंद-नापसंद के दायरे से निकलने का असर हुआ है तभी तो ये नहीं लिख पा रहा कि फ़िल्म कैसी है। उल्टा है। यह फ़िल्म हमीं से पूछती है आप कैसे हैं? ऐसे क्यों हैं?