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This Article is From Feb 20, 2016

क्या आप डरे हुए हैं?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 20, 2016 18:53 pm IST
    • Published On फ़रवरी 20, 2016 17:05 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 20, 2016 18:53 pm IST
मंगलवार को पत्रकारों के मार्च से लौट कर कब सो गया पता नहीं चला। कई टाइम ज़ोन पार कर आया था इसलिए कई मुल्कों की रातों की नींद जमा हो गई थी। इसी को जेटलैग कहते हैं। अचानक नीचे से हुंकार भरी आवाजें आने लगी। इन आवाज़ों को सुनकर लगा कि मैं किसी दूसरे मुल्क में हूं। किसी और टाइम ज़ोन में हूं। शाम के वक्त आसमान से टपकती बूंदों से धरती जितनी तर हो रही थी उससे ज़्यादा मैं इन नारों की आक्रामकता से सूखने लगा। घर में घुसकर मारने के नारे लगाये जा रहे हैं। उन नारों से जो शोर पैदा हो रहा था वो मेरे भीतर बैठ गया। मारने के नारे और टीवी पर गोली मार देने के बयानों के बीच बची हुई जगह मिल नहीं रही थी। हर किसी की पीठ पर बंदूक तनी नज़र आ रही थी।

टीवी के एंकर डिबेट में दर्शकों को उलझाए हुए थे और दूसरी तरफ गली-गली में शाम के वक्त जेएनयू विरोधी नारे लग रहे थे। द्वारका और राजेंद्र नगर इलाक़े में शाम के वक्त ऐसी ही रैलियां निकाली गईं जिसमें मारने और दागने के नारे थे। मीडिया को ख़बर भी नहीं थी कि इन नारों से जेएनयू के ख़िलाफ़ माहौल बनाया जा चुका है। गिनती के तथ्य तो नहीं है मगर कह सकता हूं कि कई मोहल्लों में, मॉल में और बाज़ार में इस तरह की रैलियां निकली हैं और आक्रामक नारे लगे हैं।

पूर्वी दिल्ली के रेज़िडेंट वेलफ़ेयर एसोसिएशन के किसी सदस्य ने अपने ग्रुप में एक स्क्रीन शॉट शेयर कर दिया कि ये फ़लां लड़की है और अफ़ज़ल की समर्थक है। ऐसे ही एक मैसेज में मैंने देखा कि एक लड़की की तस्वीर है, जिसे काले रंग से घेरा गया है। उसमें नाम के साथ लिखा गया है कि ये लड़की बंगाली है और इसकी तस्वीर को इतना वायरल किया जाए कि दुनिया को पता चले कि ये अफ़ज़ल की साथी है। तस्वीर में जो लड़की है वो जेएनयू के छात्रों के साथ प्रदर्शन में शामिल है। हम पत्रकारों की तो ऐसी प्रोफाइलिंग होती रही है, हमारे बारे में तरह-तरह की अफ़वाहें फैलाई जाती रही हैं कि ये देश का दुश्मन है। यहां तक ट्वीट हुआ कि रवीश कुमार सौ फीसदी वेश्या की औलाद है। वैसे मेरी मां भारत माता है और वेश्याओं को मुझे मां कहने में कोई दिक्कत नहीं है।

लेकिन आम लड़की की ऐसी प्रोफ़ाइल बनाकर उसकी निशानदेही की जाएगी, हमें इसका ख़्याल ही नहीं आया। वो भी रेज़िडेंट वेलफ़ेयर एसोसिएशन के सदस्य भी ये सब करेंगे तब तो ये बहुत ख़तरनाक है। गनीमत है वो लड़की उस सोसायटी में नहीं रहती लेकिन ये आदत अगर सोसायटी के अंदर पहुंच गई तो क्या होगा। ये लड़कियों और औरतों की आज़ादी के ख़िलाफ़ है। पहले यही लोग उनकी स्कर्ट की लम्बाई नापते रहे और अब राजनीतिक विचारों की गहराई पता करने लगे हैं। सोसायटी के गेट पर बैठकर लड़कियों के बाप बन जायेंगे।

एक खास विचारधारा के लोग रेज़िडेंट वेलफ़ेयर एसोसिएशन में घुस गए हैं या पहले से हैं, मगर अब उस विचारधारा के लिए काम करने लगे हैं। इस पर सदस्यों ख़ासकर नौजवानों को सोचना चाहिए। कल इन्हीं में से कोई फोटो खींचकर या फेसबुक का कमेंट उठाकर वायरल करेगा कि 'अंतरा' नाम की लड़की कॉलेज जाने के बहाने सेक्टर छह के 'राजीव' नाम के लड़के के साथ मस्ती कर रही है। इस तस्वीर को इतना वायरल करो कि उसके मां-बाप को इसकी कारस्तानी का पता चले। यही भाषा थी उस व्हाट्स अप में। अगर इतनी सी बात का ख़तरा एक लड़की नहीं समझती है और एक लड़का नहीं समझता है तो ये देश का दुर्भाग्य है। क्या राष्ट्रवाद के नाम पर हम अपनी आज़ादी ऐसे लंपट तत्वों के पास गिरवी रख सकते हैं? मां-बाप इस तरह से सोचे कि संस्कृति बचाने के नाम पर कहीं ऐसे लोगों ने उनके बच्चों को घेर कर मार दिया या शर्मसार करने की इस तरकीब से डरकर उनके बच्चों ने ख़ुदकुशी कर ली तो क्या होगा।

सोशल मीडिया आम नागरिक की आज़ादी कुचलने का माध्यम बनता जा रहा है। इसकी संभावनाओं पर ग्रहण लग गया है। ये सब बातें मीडिया में रिपोर्ट नहीं हो रही थी, क्योंकि लोग डिबेट टीवी के सामने देशभक्त बनाम ग़द्दारों की बहस में उलझे रहे और दूसरी तरफ संगठन की ताकत के दम पर लोगों की आज़ादी छीनने का षड्यंत्र चलने लगा। जैसे पूरी योजना पहले से तैयार हो। टीवी थोक में लोगों को गद्दार बताने लगा। एंकर चीख़ रहे थे। चिल्ला रहे थे। धारणाएं हमेशा के लिए तय हो गईं। मैं ऐसी वहशी आवाज़ों के शोर में डूबने लगा। लगा कि हम संतुलन खो रहे हैं। लगा कि कुछ ज्यादा हो रहा है। सवाल सही या गलत का नहीं है। जब भी लगे कि हमारी ही बात अंतिम रूप से सही है तभी वो वक्त होता है कि हम ठहर कर सोचें। संशय को जगह दें। एक बार फिर से सवाल करें।

संस्थाओं पर नियंत्रण के किस्से हमने खूब सुने हैं मगर समाज में वैसे नियंत्रण के विस्तार की यह नई प्रवृत्ति है। गली-गली में जेएनयू के खिलाफ नारे लगाना और समर्थकों के घरों की निशानदेही करना यह कुछ नया सा है। राजनीतिक नियंत्रण के ज़रिये सामाजिक नियंत्रण और सामाजिक नियंत्रण के ज़रिये राजनीतिक नियंत्रण। आपको ये ठीक लगता है तो मोहल्ले में लड्डू बंटवा दीजिये और घर छोड़ कर चले जाइये क्योंकि आपके बच्चों के नए गार्जियन आ गए हैं। मुबारक हो। ये वहीं सब शोर हैं, जिन्हें लेकर मैं आपसे बात करना चाहता था। इसलिए हमने बत्ती बुझा दी ताकि अंधेरे में हम पहचाने भी न जाएं और बात भी हो जाए। ताकि आप सुन सकें कि हम क्या बोलते हैं।

टीवी एंकरों ने एक ख़ास विचारधारा की प्यास बुझाने के लिए डिबेट को दावानल में बदल दिया है। आग की आंधी को दावानल कहते हैं। वो नौटंकी रचने लगे। कोई डर से चुप रहा तो कोई बेख़ौफ़ होकर कुछ भी बोलता रहा। हमने पहले भी ग़लतियां की हैं और सवाल उठे हैं। हम नहीं सुधरे हैं। मैंने टीवी को सुधारने के लिए तो 'प्राइम टाइम' नहीं किया बल्कि जब भी ऐसा अंधेरा आए सवाल उठाने या ठहर कर सोचने की परंपरा बनी रहे, इसके लिए किया। आज हमने किया, कल किसी और ने किया था और आने वाले कल में कोई और करेगा। टीवी  को टीबी हो गया है। डिबेट टीवी तर्क और चिन्तन की जगह को मार रहा है। इसके ज़रिये जनमत की हत्या हो रही है। कोई मुग़ालते में न रहे कि टीवी मर रहा है बल्कि मर वो रहे हैं जो इस टीवी को देख रहे हैं। (देखें प्राइम टाइम : ये अंधेरा ही आज के टीवी की तस्वीर है)

आप सबने 'प्राइम टाइम' को पसंद किया इसके लिए आभारी हूं। पर एक सवाल आपसे पूछना चाहता हूं। जिस तरह से आप सबने प्रतिक्रिया व्यक्त की है उससे लगा कि आप सब डरे सहमे हुए थे, सहसा किसी को देखकर भरोसा आया और बाहर निकल आए। आप जब 'प्राइम टाइम' का वीडियो वायरल कर रहे थे तो मुझे क्यों महसूस हुआ कि सब अपना हाथ दूसरे को थमा रहे हैं। टटोल-टटोल कर हौसले का दामन थाम रहे हैं। अगर आपकी प्रतिक्रिया में डर से निकल कर बाहर आने का ऐसा भाव है तो इसके लोकप्रिय होने से ख़ुश नहीं हूं। चिन्तित हूं। बताइयेगा कि आपको डर क्यों लगता है? किससे डर लगता है? इस भीड़ को जगह मत दीजिये। थोड़ा बाहर निकलिये। अपने घर से भी और अपने डर से भी। डरपोक से डरा नहीं करते।

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