
- 1952 के पहले चुनाव से अब तक बिहार को सिर्फ एक मुस्लिम CM मिला. पिछले 73 सालों में कई विधायक और मंत्री बनाए गए.
- शिक्षा, अल्पसंख्यक कल्याण और गृह जैसे अहम विभाग मुस्लिम नेताओं को मिले, लेकिन सत्ता की कमान हमेशा दूर रही.
- 17% आबादी वाले मुस्लिमों को विधानसभा में कभी 10% भी प्रतिनिधित्व नहीं मिला. क्या 2025 में तस्वीर बदलेगी?
बिहार में 2022 में हुई जातिगत सर्वेक्षण के अनुसार राज्य में मुस्लिम आबादी करीब 17 फीसद है लेकिन अब तक वहां राज्य की कैबिनेट में मुसलमानों को उनकी आबादी के अनुपात में जगह नहीं मिलती रही है. यहां तक कि विधानसभा चुनाव में भी मुसलमान विधायकों की संख्या उनकी आबादी के अनुरूप नहीं रहा है. बिहार में पहली बार विधानसभा चुनाव 1952 में हुए थे. तब से अब तक बिहार में 16 बार विधानसभा चुनाव हो चुके हैं. 1952 से 1985 तक के आंकड़े बताते हैं कि आजादी के बाद हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के टिकट पर ही बिहार में अधिकांश मुसलमान विधायक बने.

1952 में बिहार में 24 मुस्लिम विधायक चुन कर विधानसभा पहुंचे थे. बिहार विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की अधिकतम संख्या 1985 में थी. तब 34 मुसलमान विधायक बने थे. उनमें से 29 विधायक कांग्रेस के थे. उस दौरान मुख्यमंत्री चंद्रशेखर सिंह थे जिन्होंने दो वर्षीय शासन के दौरान अपने मंत्रिमंडल में सात मुसलमानों को मंत्री बनाया था. यह तब बिहार की कैबिनेट में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व का रिकॉर्ड था. बाद में लालू यादव ने आठ मुसलमानों को अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर नया कीर्तिमान स्थापित किया जो आज भी बरकरार है.
1990 के विधानसभा चुनाव में मुसलमान विधायकों की संख्या 20 थी. तब सबसे अधिक 11 मुसलमान विधायकों की संख्या जेडीयू में थी. कांग्रेस से केवल पांच मुस्लिम विधायक जीते थे. अल्पसंख्यक मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बिहार विधानसभा में तब केवल 6.19 फीसद था.

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क्या आबादी के अनुसार है बिहार विधानसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व?
बिहार में 1952 से विधानसभा में सीटों की संख्या 330 थीं जो कुछ इलाकों के पश्चिम बंगाल में विलय किए जाने के बाद 1957 के विधानसभा में 318 हो गई. हालांकि आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनाव में 324 सीटें हो गईं. अब यह संख्या साल 2000 में बिहार से अलग झारखंड राज्य के गठन के बाद घटकर 243 रह गई है.
1952 से लेकर 2020 तक हुए बिहार विधानसभा चुनाव में मुसलमानों का अधिकतम प्रतिनिधित्व साल 1985 और 2000 में हुआ था. तब राज्य में 29 मुस्लिम विधायक बने थे. जबकि मुस्लिम विधायकों की सबसे कम संख्या 1967, 1990 और 2005 में केवल 17 रही थी. हालांकि राज्य में मुसलमानों की आबादी के अनुपात में इनकी संख्या इस समय कम-से-कम 40 होनी चाहिए. जिस तरह मुसलमानों को आबादी के अनुपात में राज्य की विधानसभा में प्रतिनिधित्व नहीं मिला उसी तरह उन्हें बिहार कैबिनेट में भी जगह नहीं मिली है.
अभी पिछले विधानसभा चुनाव 2020 की बात करें तो 19 मुस्लिम विधायक जीते थे. इनमें आरजेडी के 8, एआईएमआईएम के 5, कांग्रेस के 4, सीपीआई और बसपा से एक-एक मुस्लिम विधायक थे.

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नीतीश कुमार की कैबिनेट में मुस्लिम चेहरे
जब नीतीश कुमार ने 2005 में मंत्रिमंडल का गठन किया था तब उनके मंत्रालय में चार मुस्लिम चेहरे शामिल किए गए. मोनजिर हसन को बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन मंत्रालय दिया गया. शाहिद अली खान विज्ञान व तकनीक मंत्री बनाए गए. साथ ही उन्हें मंजर आलम के साथ संयुक्त रूप से अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय भी दिया गया. 2010 में जब नीतीश कुमार की सरकार बनी तब उन्होंने शाहिद अली खान को अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय के साथ ही सूचना एवं तकनीकी मंत्रालय की जिम्मेदारी भी सौंपी. तो परवीन अमानुल्लाह को समाज कल्याण मंत्रालय सौंपा. जब जीतन राम मांझी की नौ महीने की सरकार बनी तब नौशाद आलम पिछड़ा व अति पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री बनाए गए तो परवीन अमानुल्लाह को अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री बनाई गईं.

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2015 में जब आरजेडी के साथ नीतीश कुमार ने सरकार बनाई तब उन्होंने अब्दुल बारी सिद्दीकी (वित्त मंत्री), अब्दुल जलील मस्तान (आबकारी मंत्री), अब्दुल गफूर (अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री) और खुर्शीद अहमद (गन्ना उद्योग मंत्री) को मंत्री बनाया. जब नीतीश 2019 में बीजेपी के साथ मुख्यमंत्री बने तब खुर्शीद अहमद ही उनकी कैबिनेट के एकमात्र चेहरा थे. वहीं जब 2020 में नीतीश कुमार ने सत्ता में वापसी की तब उनकी टीम में एक भी मुस्लिम चेहरा नहीं था. हालांकि तीन महीने बाद मंत्रिमंडल के विस्तार में सैयद शाहनवाज हुसैन को मंत्रिमंडल में बतौर उद्योग मंत्री शामिल किया गया. 2022 में जब नीतीश ने बीजेपी का साथ छोड़ कर आरजेडी के साथ शपथ ग्रहण किया तब उनके मंत्रालय में शमीम अहमद कानून और गन्ना उद्योग (संयुक्त रूप से) मंत्री बनाए गए. मोहम्मद शाहनवाज आलम को आपदा प्रबंधन दिया गया, मोहम्मद इसरैल मंसूरी को सूचना प्रसारण, मोहम्मद जमा खान को अल्पसंख्यक कल्याण और मोहम्मद अफाक आलम को पशुपालन विभाग सौंपा गया.
नीतीश सरकार में इकलौते मुस्लिम चेहरा जमा खान
साल 2024 में जब आरजेडी से अलग हो कर नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई और मार्च में उन्होंने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया तो जमा खान को अपने मंत्रिमंडल में बतौर अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री एंट्री दी. 2006 से 2014 तक पांच मुस्लिम नेताओं को राज्यसभा भेजने वाले नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल में ज़मा ख़ान अल्पसंख्यक मुसलमानों के एकमात्र प्रतिनिधि रह गए हैं.

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जब मुसलमानों के लिए बिहार में आरक्षित थीं सीटें
सामाजिक न्याय के नारे को बुलंद करने वाले पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के कार्यकाल के दौरान 26 अप्रैल 1971 को राज्य में अल्पसंख्यक आयोग का गठन किया गया ताकि राज्य के किसी नागरिक के प्रति धर्म, जाति, जन्मस्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं हो. समय समय पर इस आयोग का पुनर्गठन होता भी रहा है. पर बिहार में अल्पसंख्यकों की विधायिका में आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की गई जो आजादी के पहले थीं. जब 1937 में 152 सीटों के लिए राज्य में पहली बार प्रांतीय चुनाव हुए थे तब एक चौथाई से अधिक सीटें (40) मुसलमानों के लिए आरक्षित थीं.
#PatnaUniversity expanded under the tenure of Sir Mohammad Fakhruddin (1921-33)#पटना_विश्वविद्यालय #पटना_युनिवर्सिटी #Patna_University pic.twitter.com/FuGre1L8dn
— Heritage Times (@HeritageTimesIN) October 14, 2017
सैयद मुहम्मद फखरुद्दीन- बिहार के पहले शिक्षा मंत्री
बिहार में अहम योगदान देने वाले सैयद मुहम्मद फखरुद्दीन खान बहादुर बिहार के पहले मुस्लिम शिक्षा मंत्री थे. सैयद मुहम्मद पेशे से वकील थे और कभी भारत की राजधानी रह चुके तब के कलकत्ता में बतौर प्रैक्टिस किया करते थे जहां उन्होंने काफी बुलंदी पाई. 1912 में सैयद मुहम्मद फखरुद्दीन खान बहादुर 1912 में पटना के म्यूनिसिपल कमिश्नर रहे. 1917 में पटना विश्वविद्यालय की स्थापना में उनका अहम योगदान बताया जाता है. बोर्ड ऑफ सेकेंड्री एजुकेशन के भी कई सालों तक सदस्य रहे. 1921 में बिहार-उड़ीसा विधानपरिषद के कौंसिल सदस्य चुने गए. अपने कार्यकाल के दौरान ही उन्होंने उर्दू को पटना, तिरहुत और भागलपुर डिविजन के कोर्ट में ऑफ्शनल भाषा का दर्जा मिला. 1933 में बिहार के शिक्षा मंत्री रहे सैयद मुहम्मद ने बिहार की शिक्षा व्यवस्था के सुधार में अहम योगदान दिया. उन्हें ख़ान बहादुर की मानद उपाधि से भी नवाजा गया. उनके निधन पर विधानसभा में श्रद्धांजलि देते हुए अध्यक्ष ने कहा था कि सैदय मुहम्मद उस दिन भी दफ्तर में काम कर रहे थे जिस दिन उनका निधन हुआ.

मोहम्मद यूनुस- आजादी से पहले बिहार प्रांत के पहले मुखिया
मोहम्मद यूनुस ने बिहार में 1937 में गठित पहली प्रांतीय सरकार का नेतृत्व किया था. मोहम्मद यूनुस ने कुछ समय के लिए मुस्लिम लीग के अखिल भारतीय सचिव के रूप में भी कार्य किया. वो इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य भी थे. दो बार पटना म्युनिसिपल बोर्ड के सदस्य भी रहे. 1921 में यूनुस बिहार और उड़ीसा लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य बने. यह मुहम्मद युनूस ही थे जिन्होंने प्रदेश प्रमुख के तौर पर बिहार सरकार के दफ्तरों में उर्दू भाषा के इस्तेमाल की अनुमति दी.
अब्दुल वहाब- मोहम्मद यूनुस की सरकार में ही राजस्व मंत्री
आजादी के पहले राज्य में बनी प्रांतीय सरकार में बाबू गुरु सहाय लाल और कुमार अजित प्रसाद सिंह देव के साथ अब्दुल वहाब केवल तीन मंत्री शामिल थे.

मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी के नाम पर है पटना एयरपोर्ट का नाम
बिहार में मुसलमानों का अहम योगदान रहा है, यही कारण है कि पटना के एयरपोर्ट रोड का नाम पीर अली मार्ग है जो 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में सेनानी थी. तकी रहीम जयप्रकाश नारायण के दाहिने हाथ माने जाते थे. जिन्होंने 'तहरीक-ए-आजादी में बिहार के मुसलमानों का हिस्सा' नाम से वो किताब लिखी जिसे बिहार की आजादी में मुसलमानों के योगदान पर लिखी गई पहली किताब माना जाता है. खुदाबख्श लाइब्रेरी के पूर्व निदेशक डॉ. आबिद रजा बेदार, आजादी के परवाने अब्दुल कयूम अंसारी, उर्दू लेखक अब्दिल कवि देसनावी समेत सैकड़ों की संख्या में ऐसे मुस्लिम समाज के लोग हुए हैं जिनका बिहार में बड़ा योगदान रहा है.
बिहार में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व में सबसे अधिक ऊंचाई 1973 में आई जब अब्दुल गफूर मुख्यमंत्री बनाए गए.

अब्दुल गफूर- बिहार के पहले मुस्लिम CM
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के बाद सियासी सफर शुरू करने वाले अब्दुल गफूर आजादी के संघर्ष के दौरान कई वर्षों जेल में रहे. उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना के टू नेशन थ्योरी को ठुकराते हुए भारत में रहना स्वीकारा. देश की आजादी के बाद साल 1952 में विधायक बन कर पहली बार बिहार विधानसभा पहुंचे. बिहार में जुलाई 1973 में राज्य के पहले अल्पसंख्यक मुख्यमंत्री बने और करीब 21 महीने तक इस पद पर बने रहे. अब्दुल गफूर को तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1975 में हटा कर जगन्नाथ मिश्र को मुख्यमंत्री बनवा दिया था. गफूर जुलाई 1973 से अप्रैल 1975 तक बिहार के मुख्यमंत्री थे. बाद में 1984 मे कांग्रेस के टिकट पर सिवान से जीत कर सांसद बने और वे 1984 के राजीव गांधी सरकार में नगर विकास विभाग मंत्री रहे. 1996 में भी सांसद बने पर तब वो गोपालगंज से समता पार्टी के टिकट पर जीत कर संसद पहुंचे थे. कटिहार मेडिकल कॉलेज की स्थापना में भी इनका सक्रिय सहयोग रहा है.
बिहार की पहली महिला मुस्लिम विधायक
पहले चुनाव के 10 साल बाद राज्य में जब तीसरी बार विधानसभा के लिए वोट डाले गए, तब 1962 में पटना पूर्वी सीट से एक मुस्लिम महिला प्रत्याशी जाहरा अहमद को जीत हासिल हुई. इसके साथ ही जाहरा अहमद बिहार विधानसभा में राज्य की पहली मुस्लिम विधायक बनीं. 10 साल बाद 1972 में शहीदुननिसा सीपीआई की तरफ से रामगढ़ सीट से विधायक चुनी गईं तो 2010 में रजिया खातून जेडीयू की तरफ से कल्याणपुर से विधायक बनीं.
Ghulam Sarwar was Bihar's education minister (1977-79), Speaker, #Bihar Legislative Assembly (1990-95), and agriculture minister (1995-2004). In 1977 he was elected for Bihar Legislative Assembly from Siwan, whereas in 1990, 1995, and 2000 he was elected from Keoti (Darbhanga). pic.twitter.com/aGhZS49y84
— Lost Muslim Heritage of Bihar (@LMHOBOfficial) May 22, 2022
गुलाम सरवर- लेखनी की धार से बिहार की राजनीति तक
सत्तर के दशक में जेपी आंदोलन से बिहार की राजनीति में उर्दू आंदोलन के सबसे मजबूत स्तंभों में से एक बने गुलाम सरवर 1977 में बिहार के शिक्षा मंत्री, 1990 में बिहार विधानसभा के अध्यक्ष और 1995 में राज्य के कृषि मंत्री बने. गुलाम सरवर के अलावा मोहम्मद हिदायतुल्लाह 1989 में विधानसभा अध्यक्ष चुने गए थे. चालीस के दशक में गुलाम सरवर एक प्रखर उर्दू वक्ता के रूप में प्रसिद्ध हुए. उन्होंने 'नौजवान', 'साथी', 'संगम' अखबारों में अपनी कलम की धार से युवाओं के बीच साख बनाई. अपनी लेखनी के जरिए वो बिहार के पिछड़े मुसलमानों (पसमांदा मुसलमानों) के हक के लिए लड़ते थे. अपनी क्रांतिकारी लेखनी से साठ के दशक में वो सरकार के आंखों की किरकिरी बन गए. 1964 में उन्हें जेल में डाल दिया गया तो उनकी लेखनी वहां भी नहीं रुकी. जेल डायरी 'गोशे में कफस के' लिखी जो बाद में इतनी मशहूर हुई कि उसकी रॉयल्टी से उन्हें हज करने लायक रुपये मिल गए. वापस लौट कर आए तो 1965 में उन्हें वापस जेल में डाल दिया गया तो फिर एक जेल डायरी 'जहां हम हैं' लिख डाली. 2004 में उनका निधन हो गया.

जाबिर हुसैन- जेपी आंदोलन में सक्रिय भूमिका से बिहार की राजनीति में पहचान
कर्पूरी ठाकुर के मंत्रिमंडल में स्वास्थ्य मंत्री रहे जाबिर हुसैन ने जेपी आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी. 1977 में मुंगेर विधानसभा से चुने गए और कैबिनेट मंत्री बनाए गए. अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष रहे. विधान परिषद के सभापति तो राज्यसभा के सदस्य भी रहे. अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे जाबिर हुसैन ने बिहार आंदोलन के दौरान भूमिगत रह कर अहम कार्य किए. बीड़ी मजदूरों और कामगारों पर उनकी लिखी रिपोर्ट छपा करती थीं. आपातकाल के दौरान 'मीसा' के तहत नजरबंद किए गए. उन्हें नौकरी से निलंबित कर दिए गए. हालांकि बाद में पटना के कॉमर्स कॉलेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर बने. उनकी हिन्दी-उर्दू में दो दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित हुईं. पसमांदा मुस्लिम आबादियां नाम से भी एक किताब लिखीं. उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी नवाजा गया. बिहार विधान परिषद में हिंदी और उर्दू प्रकाशन विभाग की स्थापना में अहम योगदान दिया. शिक्षा, जन-साक्षरता, बाल श्रमिक, बिहार में नदी पानी जैसे कई ज्वलंत विषयों पर गंभीर विमर्श छेड़ा.

अब्दुल बारी सिद्दीकी- तेजस्वी के बड़े मुस्लिम नेता
अब्दुल बारी सिद्दीकी मिथिलांचल के दरभंगा के अलीनगर विधानसभा क्षेत्र से आरजेडी के टिकट पर विधानसभा पहुंचे. लालू यादव ने 1995 में ही उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया था. 2010 से 2013 तक विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी रहे. जब नवंबर 2015 में नीतीश कैबिनेट में फिर मंत्री बनाए गए तब उन्हें महत्वपूर्ण वित्त विभाग की बागडोर सौंपी गई. बिहार क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष भी रहे. हालांकि तीन बार लोकसभा के लिए उम्मीदवार बनाए गए पर मधुबनी में वो एक बार महज 10 हजार तो दूसरी बार 15 हजार वोटों के अंतर से संसद नहीं पहुंच सके. अब तक सात बार विधायक बन चुके अब्दुल बारी सिद्दीकी अभी आरजेडी के प्रधान महासचिव हैं और गाहे बगाहे अपने विवादित बयानों से चर्चा में रहते हैं. बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में वो तेजस्वी यादव को राज्य के मुख्यमंत्री का चेहरा बनाने में दिन रात एक किए हैं.

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परवीन अमानुल्लाह- नीतीश कैबिनेट की पहली महिला मुस्लिम चेहरा
आरटीआई एक्टिविस्ट रहीं परवीन अमानुल्लाह 2010 में बेगुसराय के साहेबपुर कमाल विधानसभा सीट से जेडीयू के टिकट पर पहली बार चुनाव जीता था. उनके पति अफजल अमानुल्लाह भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे और गृह सचिव के पद पर भी रह चुके थे. पहली बार चुनाव जीत कर बिहार विधानसभा पहुंची परवीन अमानुल्लाह को नीतीश कुमार ने अपने कैबिनेट में समाज कल्याण मंत्री बनाया था. वो नीतीश कैबिनेट की पहली महिला मुस्लिम चेहरा थीं. 2023 में उनका निधन हो गया.

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खुर्शीद आलम- पश्चिम चंपारण के मुस्लिम चेहरा
2017 में नीतीश कुमार की सरकार में खुर्शीद आलम को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया. जिन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में पश्चिम चंपारण (बेतिया) की सिकटा विधानसभा सीट निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला किया है. खुर्शीद आलम अल्पसंख्यक समाज के पश्चिम चंपारण में एक बड़े नेता माने जाते हैं. 2005 में कांग्रेस के टिकट पर पहली बार विधानसभा पहुंचे तो 2015 में नीतीश की पार्टी ने उन्हें विधायक बनाया और बाद में अपने मंत्रिमंडल में जगह भी दी. उन्हें अल्पसंख्यक कल्याण और गन्ना मंत्रालय दिया गया था. हालांकि पिछले चुनाव (2020) में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था.
बिहार में मुसलमान मंत्रियों को आमतौर पर अल्पसंख्यक कल्याण, तकनीकी व सामाजिक क्षेत्र के विभागों में प्रतिनिधित्व मिलता रहा है. वहीं जब आरजेडी और कांग्रेस सरकार में रहती है तब उन्हें अन्य मंत्रालयों में भी प्रतिनिधित्व दिया जाता रहा है. हालांकि इसमें लगातार उतार-चढ़ाव देखने को मिला है, जो बिहार में बदलते राजनीतिक समीकरणों को भी दर्शाता है.
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