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ब्लॉग राइटर
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क्या दिल्ली के रंगकर्मी सरकारी कठपुतली बनने के लिए तैयार हैं?
क्या दिल्ली के रंगकर्मी दिल्ली सरकार द्वारा तय किए विषयों पर नाटक करने के लिए तैयार हैं? क्या उन्हें नहीं लगता कि एक कलाकार होने के नाते अपने समय और समाज से कैसे जुड़ना चाहते हैं और किन विषयों के जरिए अभिव्यक्ति करना चाहते हैं यह तय करने का हक उनका है? और यह तय करने में वह सरकारी बाबूओं और मंत्रियों से अधिक सक्षम हैं? या दिल्ली के रंगकर्मी सरकार के हाथ की कठपुतली बनने के लिए तैयार हैं?
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- अमितेश कुमार
- सितंबर 22, 2017 12:56 pm IST
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‘डनकर्क’ युद्ध आधारित सिनेमा के इतिहास में एक बड़ा प्रस्थान बिंदु
झुके हुए कंधों से सिपाही समूह में ट्रेन की तरफ बढ़ रहे हैं, रास्ते में एक बूढ़ा सबको ब्रेड बांटता और शुक्रिया कहता है. एक सिपाही ठिठक कर पूछता है ‘लेकिन हम तो लड़े ही नहीं, हम केवल बच कर आए हैं’, बूढ़ा कहता है ‘बच के आना भी जीत है’, वह बूढ़ा जो अंधा भी है अपने हाथों से उसका चेहरा छूता है. क्रिस्टोफर नोलन की हालिया फिल्म ‘डनकर्क’ में यह दृश्य सिनेमा के अंत में आता है.
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- अमितेश कुमार
- अगस्त 01, 2017 12:20 pm IST
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वेद प्रकाश शर्मा : भाषा का उत्कर्ष दिखाने वाला चश्मा उतारकर भी देखें इन्हें
ये वो दिन थे जब ‘नंदन’, ‘चंपक’ और ‘नन्हें सम्राट’ पढ़ने में उम्र विद्रोह करने लगा था. ‘सुमन सौरभ’ और ‘विज्ञान प्रगति’ के दिन आ गए थे जिसे पढ़ने के बाद लगता था कि कुछ तो बड़े होने लगे हैं. ऐसे ही दिनों में मुझे गांव में विमल भैया की आलमारी मिली. इससे होकर एक ऐसी दुनिया की खिड़की खुली जहां रोमांच था, दिमागी कसरत थी और उत्सुकता थी. ऊपर कोने से मोड़े गए पन्ने जो बुकमार्क का काम करते थे वापस बुलाते रहते थे कि यहां से आगे बढ़कर क्लाइमेक्स तक पहुंचो. ये आलमारी बड़की मां के कमरे में थी, जहां कोई यह कहने नहीं आता था कि ‘इसको पढ़ने की तुम्हारी उम्र नहीं’. आलमारी की तरतीब जब तक न बिगड़े, भैया के भी बिगड़ने की संभावना नहीं थी. एक दिन यहीं मिले वेद प्रकाश शर्मा और ‘जिगर का टुकड़ा’ एक मोटा सा खुरदरे पन्ने वाला उपन्यास. बाद में पता चला था कि इसे लुगदी उपन्यास कहते हैं यानि पल्प फिक्शन.
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- अमितेश कुमार
- फ़रवरी 21, 2017 12:47 pm IST
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दो कालजयी त्रासदियों के जरिए शेक्सपियर का स्मरण
अंग्रेजी साम्राज्य का सूरज तो डूब गया लेकिन शेक्सपियर के रूप में एक ऐसा प्रकाश दे गया जिसकी चमक विश्व की सभी भाषाओं में और विशेषकर उन भाषाओं के रंगमंच पर है. हर अभिनेता, हर निर्देशक जीवन में कम से कम एक बार शेक्सपियर के किसी नाटक का हिस्सा बनाना चाहता है या बन चुका होता है.
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- अमितेश कुमार
- दिसंबर 21, 2016 19:06 pm IST