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This Article is From Dec 20, 2016

दो कालजयी त्रासदियों के जरिए शेक्सपियर का स्मरण

Amitesh Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 21, 2016 19:06 pm IST
    • Published On दिसंबर 20, 2016 19:51 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 21, 2016 19:06 pm IST
अंग्रेजी साम्राज्य का सूरज तो डूब गया लेकिन शेक्सपियर के रूप में एक ऐसा प्रकाश दे गया जिसकी चमक विश्व की सभी भाषाओं में और विशेषकर उन भाषाओं के रंगमंच पर है. हर अभिनेता, हर  निर्देशक जीवन में कम से कम एक बार शेक्सपियर के किसी नाटक का हिस्सा बनाना चाहता है या बन चुका होता है. क्योंकि शेक्सपियर के नाटक उन आदिम प्रवृतियों को हमारे सामने रखते हैं जिससे मानवीय दुनिया चलती है और यह अपने आदिम रूप में इस समय भी उतनी ही मौजूद है जितनी शेक्सपियर के समय में या उससे पहले थीं.   

शेक्सपियर की याद
शेक्सपियर की मृत्य को चार सौ वर्ष पूरे हो गए हैं. उनकी याद में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में उनके दो नाटकों ‘ऑथेलो’ और ‘हैमलेट’ की प्रस्तुति हुई.  दूसरे वर्ष के विद्यार्थियों ने यह नाटक प्रस्तुत किए. निर्देशक क्रमश:  बापी बोस और केएस राजेन्द्रन थे. यह नाट्य प्रस्तुतियां पाठ्यक्रम का हिस्सा होती हैं इसलिए इन पर रंगमंच का बाहरी दबाव नहीं होता और प्रयोग की पूरी छूट होती है. दोनों ही निर्देशकों ने नाटक के मूल पाठ से अपनी प्रतिबद्धता दिखाई और प्रस्तुति की लंबाई की परवाह नहीं की. दोनों ही प्रस्तुतियां ढाई घंटे के आसपास की थीं. यानी इन नाटकों को आधे घंटे के अंतराल के बीच लगभग पांच घंटे में एक साथ देखना भी एक परिप्रेक्ष्य और अनुभव दे गया. शेक्सपियर के संवाद आज भी लाजवाब करते हैं और इनसे मानव मन की बारीकियों, क्रियाओं और उनके मनोवैज्ञानिक पहलुओं का उद्घाटन होता रहता है.
 
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ऑथेलो और हैमलेट
‘ऑथेलो’ जहां सत्ता में पहले से काबिज विशेष वर्ग और नस्ल के लोगों से घिरे एक प्रतिभाशाली और शक्तिशाली लेकिन उनके वर्ग से ताल्लुक नहीं रखने वाले मूर ऑथेलो की अपने हीनताबोध और उसमें रोपे गए शक के बीज के कारण उसके जीवन में आए विडंबना को केंद्र में रखता है. वहीं ‘हैमलेट’ में सत्ता के लिए किए जाने वाले षड्यंत्र, हत्या, बदले की भावना से घिरे हैमलेट का संघर्ष केंद्र में है.

‘हैमलेट’ के एक दृश्य में प्रिंस हैमलेट नाटक मंडली से कहता है कि नाटक को आइने की तरह होना चाहिए जिसमें मनुष्य अपना प्रकृत चेहरा देखकर उसकी कुरूपता से परिचित हो. इसी तरह ऑथेलो अंतिम दृश्य में पश्चाताप करते हुए कहता है कि उसकी कहानी को दुनिया को वैसे ही दिखाया जाए जैसे वह घटित हुआ है उसमें कोई श्लाघा नहीं हो. ताकि मनुष्य के इस पतन से लोग सीख लें. चार सौ सालों से यह कहानियां दोहराई जा रही हैं लेकिन मनुष्य क्या अपने आदिम स्वभावों का परिष्कार कर सका है? निश्चय ही नहीं. क्योंकि शेक्सपीयर के बाद ही हमने साम्राज्यवाद, सभ्यताकरण, राष्ट्रवाद और इन सबसे उपजे दो विश्व युद्धों को देखा. सत्ता, ईर्ष्या, बदले की भावना, अविश्वास, शक इत्यादि  बुनियादी मानवीय भावों के इर्दगिर्द रचे गए शेक्सपियर के कथानक को हम मंच पर ही नहीं जीवन में भी घटित कर रहे हैं इसलिए यह नाटक आज ही के लगते हैं. ऑथेलो और हैमलेट हमारे आसपास ही नहीं हममें भी रहते हैं. अपने-अपने इयागो, क्लाडियस, डेस्डीमोना और गर्टयुड से घिरे हुए. इनकी ऐसी उपलब्ध्ता भी  शेक्सपियर के प्रस्तुत करने में हमारे निर्देशकों का काम आसान करती है. क्योंकि प्रासंगिक बनाने का दबाव कम होता है. संवादों और कथा को ठीक तरह से पेश किए जाने से भी नाटक की संप्रेषणीयता बरकरार रहती है. नाटक देखते हुए हम संवादों से चौंकते हैं और मन ही मन सराहना करते हैं  रीझते हैं. इसमें योगदान अनुवादकों का भी है. बापी बोस ने ‘ऑथेलो’ के लिए रघुवीर सहाय के पद्यात्मक अनुवाद को चुना था जबकि राजेन्द्रन ने ‘हैमलेट’ के लिए अमृत राय का.

दोनों ही नाटकों के अंत में मृत्यु की एक श्रृंखला है जिसमें  नायकों के हाथ कुछ नहीं लगता. यह मुझे खटकता है कि क्या यह नाटकीय कमजोरी है या नाटक को किस बिंदू पर समाप्त करे इसकी दुविधा!

ऑथेलो एक पराक्रमी है वह अपनी शक्ति से उच्च शासन में जगह बना चुका है लेकिन मूर होने की  ग्रंथि उसके भीतर है जो इयागो के उकसाने से प्रबल हो जाती है.  मूर होने के बावजूद भी एक गौर वर्ण स्त्री का प्रेम पा जाना और राजा का प्रिय होना उसके ही सहकर्मियों को पचता नहीं और अपनी पहचानगत कमजोरी से उपजे शक से वह अपनी प्रिय डेस्डीमोना की हत्या करता है बिना सत्य जाने  और अंत में अपनी जान लेता है. वह  विजेता है लेकिन अपनी ग्रंथि को नहीं जीत पाता.

हैमलेट में बदले की भावना उसके पिता का प्रेत ही भर जाता है लेकिन इस बदले में झुलसता हैमलेट ही है. और इसी में सबको झुलसा  भी देता है. इसी में सबसे कोमल और शुभ्र गर्ट्र्यूड (ओफिलिया भी)  अकारण शिकार बनती है जो किंग हैमलेट, प्रिंस हैमलेट और क्लाडियस के बीच फ़ंस चुकी है और किसी एक का चयन उसके लिए मुश्किल है. राजेंद्रन अपने सधे निर्देशन से गर्ट्यूड के रोल से पूरी तरह न्याय करते हैं और तीन सिरों के बीच उसके संघर्ष को उभारते हैं. इस नाटक में नाटक के भीतर नाटक की अनोखी युक्ति है जिसका निर्वाह माइम और इम्प्रोवाइजेशन से होता है.
 
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कैसी रही प्रस्तुतियां
निर्देशकों ने  मंच पर न्यूनतम उपकरणों के जरिए पाठ के वैभव से दर्शकों को परिचित करा दिया. राजेंद्रन ने हैमलेट में अपने अभिनेताओ  से अच्छा काम लिया. ऑथेलो  में बापी बोस की प्रस्तुति परिकल्पना में प्रकाश, ब्लॉकिंग और घटनाओं की तीव्रता ने प्रस्तुति की गति और तनाव को बनाए रखा. हैमलेट की भूमिका निभाने वाले अभिनेता का उल्लेख करना चाहिए जो हैमलेट की विक्षिप्तता के साथ उसकी बुद्धिमता और कई अन्य शेड्स को उभारता है. ऑथेलो  में इयागो का किरदार भी अलग रंग में है. प्रस्तुतियों की खासियत थी उनका संगीत जो नाटक की रोचकता और आशंका से प्रतिपल घिरे स्थिति को और भयावह बना रहा था और घटनाओं से अवगत रहते हुए भी दर्शक एक कौतूहल में घिरे थे. हैमलेट के युद्ध के दृश्य इतने सजीव हैं कि भय भी लगता है कि अभिनेता अपने को चोटिल न कर ले. वहीं ऑथेलो में प्रस्तुति का पेस दर्शकों को बांधे हुए था.

(अमितेश कुमार एनडीटीवी में रिसर्चर हैं)

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